इस साल चौबीस फरवरी को रूस ने यूक्रेन पर हमला किया। तब सभी को यूं लगा कि दो चार दिन में मामला खत्म हो जाएगा, रूस यूक्रेन की सरकार गिरा देगा और वहां कोई नई कठपुतली सरकार बन जाएगी। इसके बाद रूस की सेना वापस आए या वहीं बनी रहे यह दोनों मिलकर तय कर लेंगे लेकिन शांति बहाल हो जाएगी।

रूस और यूक्रेन दोनों ही तेल, गैस, अनाज और दलहन तिलहन के बड़े उत्पादक और निर्यातक हैं। यही वजह है कि इस लड़ाई से दुनिया भर में महंगाई भड़क गई है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने इस पर गंभीर चिंता जताई है और अमेरिकी अर्थशास्त्री केनेथ रोगौफ ने सवाल उठाया है कि - इस साल के अंत तक अमेरिका, चीन और यूरोपीय संघ की अर्थव्यवस्थाएं एक साथ सुस्ती के संकेत दे रही हैं, तो क्या दुनिया की अर्थव्यवस्था एक बवंडर में फंसने जा रही है?
चार महीने बीत चुके हैं लेकिन न तो शांति बहाल हुई है और न ही उसके आसार दिख रहे हैं। अब यह तो साफ हो चुका है कि रूस ने जैसा समझा था यूक्रेन उतना कमजोर शिकार साबित नहीं हुआ। उल्टे रूसी सेना की हालत पस्त नज़र आ रही है। डेढ़ करोड़ लोग घरबदर हो गए, हज़ारों इमारतें तबाह हुईं, यूक्रेन की इकोनॉमी घट कर आधी रह जाने का डर पैदा हो गया है।
इसके बाद भी शांति नहीं आई। बात सिर्फ यूक्रेन तक ही नहीं है। इस लड़ाई की खासी बड़ी कीमत रूस को भी चुकानी है। मोटा अनुमान है कि इस लड़ाई पर रूस हर रोज़ नब्बे करोड़ डॉलर खर्च कर रहा है। यह सैनिकों, हथियारों और गोला बारूद का खर्च है। एक एक क्रूज़ मिसाइल डेढ़ डेढ़ लाख डॉलर की है और ऐसी हज़ारों मिसाइलें इस्तेमाल हो चुकी हैं। लेकिन यह खर्च उस कीमत के आगे कुछ भी नहीं है जो रूस के भविष्य को चुकानी है। इसमें यह हिसाब भी नहीं जोड़ा गया है कि हमले के बाद लगे आर्थिक प्रतिबंधों की वजह से रूस को कितना नुकसान उठाना पड़ा है। हमला खत्म होने के बाद भी यह प्रतिबंध जारी रहेंगे और नुकसान होता रहेगा।