ख़िलाफ़त की स्थापना
'द हिन्दू' में छपे एक लेख के अनुसार, तुर्की के राष्ट्रपति ने अपने सलाहकार अदनान तनिर्वदी को इस काम में लगाया था। हालाँकि वह हाल में ही राष्ट्रपति के सलाहकार के पद से इस्तीफ़ा दे चुके हैं। उन्होंने ऐसा क्यों किया, यह अभी साफ़ नहीं है, लेकिन वह पिछले काफ़ी समय से अर्दवान के ख़लीफ़ा बनने की आकांक्षा को परवान चढ़ाने में लगे थे। उन्होंने और उनके आसपास के लोगों ने गुपचुप यह बात फैलानी शुरू कर दी थी कि अर्दवान ही मुसलमानों के अगले खलीफ़ा हैं और वह ख़िलाफ़त की स्थापना करेंगे।मुसलिम देशों का कॉनफ़ेडरेट
इसी सिलसिले में नवंबर, 2017 में मुसलिम बहुल 61 देशों का एक सम्मेलन इस्ताम्बुल में बुलाया भी गया था। इसमें एक राजनीतिक समूह 'एसरिका' यानी एशिया-अफ्रीका का गठन का प्रस्ताव रखा गया। परिकल्पना यह है कि एसरिका के देश अपनी-अपनी सीमा में अपने-अपने ढंग से रहें, लेकिन वह शरीआ को मान कर चलें और अपने देश में शरीआ स्थापित करें।एसरिका का एक राष्ट्रपति होगा, जो कुरान और सुन्नत के प्रति वफ़ादार रहेगा और वह पूरी दुनिया में इसलामिक एकता कायम करेगा। एसरिका के सारे देश राष्ट्रपति को मानेंगे और उसके कहे मुताबिक़ काम करेंगे।
लेकिन वे अपने देश में सार्वभौम होंगे और उसमें एसरिका का राष्ट्रपति कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा। एसरिका का राष्ट्रपति एक सलाहकार मंडल या कार्यकारी परिषद की मदद से काम करेगा।
अया सोफ़िया
माना जा रहा है कि अया सोफ़िया (जिसे कुछ लोग ग़लती से हागिया सोफ़िया भी लिखते हैं।) संग्रहालय को मसजिद में तब्दील करना अर्दवान को ख़लीफ़ा बनाने की मुहिम का ही हिस्सा है। समझा जाता है कि अर्दवान ने इस संग्रहालय को मसजिद में बदलने का काम बहुत ही सोच समझ कर किया और उसके पीछे सोच मुसलमानों को यह संदेश देने की थी कि उनका अतीत का गौरव वापस लाया जा रहा है और अतीत की 'ग़लतियों' को ठीक किया जा रहा है।तुर्की में बढ़ता इसलामी मूल्य
बीते 20 साल में तुर्की में बड़े पैमाने पर सामाजिक बदलाव हुए, इसलाम का दबदबा बढ़ा। जिस हेडगेयर यानी महिलाओं के सिर ढकने के कपड़े को अतातुर्क ने प्रतिबंधित कर दिया था, अर्दवान ने उसकी वापसी की। अभी भी तुर्की में ज़्यादातर महिलाएं इस हेडगेयर का इस्तेमाल नहीं करती हैं, पर तुर्की समाज में इसलामी मूल्य बढ़ रहे हैं।अर्दवान की चाल
लेकिन अया सोफ़िया का मसजिद बनना सिर्फ सांकेतिक है। अर्दवान का मक़सद खुद को ख़लीफ़ा की तरह पेश करना है। वह ओटोमन यानी उस्मानिया साम्राज्य के गौरव को फिर से हासिल करना चाहते हैं। इस मामले में वे बहुत कुछ रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की तरह हैं, जो सोवियत संघ के पुराने गौरव को हासिल करना चाहते हैं।अर्दोवान का मक़सद बड़ा है, वह इसलामी ख़िलाफ़त की स्थापना करना चाहते हैं। ख़िलाफ़त यानी इसलामिक क़ानून यानी शरीआ से चलने वाला राज्य।
खलीफ़ा
दरअसल मुसलिम इतिहास में ख़लीफ़ा पद की अवधारणा नई नही है, यह शुरू से ही चली आ रही है। ख़लीफ़ा दरअसल धर्मगुरु तो होता ही है, उसके पास राजनीतिक ताक़त भी होती है। वह सभी मुसलमानों का प्रमुख होता है। दुनिया के सारे मुसलमान अपनी स्थितियों के मुताबिक अपना काम करते रहें, अपनी राजनीतिक स्थिति को देखते रहें, पर खलीफ़ा को सर्वोपरि मान लें और शरीआ के नियमों के मुताबिक़ काम करें, इतना ही काफ़ी होता है।ख़िलाफ़त की पहली कोशिश
उन्नीसवीं सदी के अंत में तुर्की के उस्मानिया साम्राज्य के सुलतान अब्दुल हमीद द्वितीय ने अपने साम्राज्य को टुकड़े-टुकड़े होने से बचाने के लिए ख़िलाफ़त की बात की। उनका मक़सद लोकतांत्रिक आन्दोलन को कुचल कर अपनी सत्ता बनाए रखना था, पर उन्होंने इसके लिए धार्मिक कारण चुना। उन्होंने ख़िलाफ़त को बचाए रखने की अपील मुसलमानों से की। इसकी गूंज भारत में भी सुनाई पड़ी।ख़िलाफ़त की दूसरी कोशिश
समझा जाता है कि अमेरिका के बढ़ते प्रभाव, मुसलिम बहुल देशों पर उसका दबदबा, उन देशों में अमेरिकी सैनिकों की मौजूदगी और पश्चिमी प्रभावों ने मुसलमानों के मन में एक तरह की अनश्चितता को बढ़ावा दिया। आतंकवाद को कुचलने के नाम पर जो ज़्यादतियाँ की गईं, उससे मुसलमानों के मन की बेचैनी बढ़ती गई। इसका नतीजा यह हुआ कि इक्कीसवीं सदी में एक बार फिर खलीफ़ा की अवधारणा को स्थापित करने की कोशिशें हुईं।
इसलामिक स्टेट का भी मूल मक़सद शरीअत से चलने वाले राज्य और ख़िलाफ़त की स्थापना करना ही था। लेकिन शुरू से ही उसके साथ दिक्क़त यह थी कि वह इसलाम के बहुत ही संकीर्ण और कट्टरपंथी व्याख्या पर आधारित था, जो खुद मुसलमानों को स्वीकार नहीं था। यह कोशिश भी नाकाम रही।
ख़िलाफ़त की तीसरी कोशिश
अर्दवान इस कोशिश को आगे बढ़ाना चाहते हैं, पर शांतिपूर्ण तरीके से। वह एक बार फिर ख़िलाफ़त की स्थापना करना चाहते हैं और ख़ुद को खलीफा के रूप में पेश करना चाहते हैं। उनकी मंशा मुसलमानों की बेचैनी को भुना कर इसलामी पुनरुत्थानवाद को आगे बढ़ाना है। उनके साथ खूबी यह है कि उनका तरीका न हिंसक है न ही इसलाम की उनकी व्याख्या आईएस की तरह संकीर्ण है। वे मुसलमानों की बेचैनी को मूर्त रूप देना चाहते हैं।अर्दवान को महदी की अवधारणा का फ़ायदा
इस प्रक्रिया में उन्हें इसलाम के 'महदी' की अवधारणा से भी बल मिलता है। महदी की अवधारणा यह है कि क़यामत के पहले धर्मगुरु महदी आएंगे जो मुसलमानों को एकजुट करेंगे, पूरी दुनिया पर 5, 7, 9, या 99 साल तक राज करेंगे और उसके बाद क़यामत आएगी। क़यामत मतलब वह दिन जब यह दुनिया ख़त्म हो जाएगी और ख़ुदा सभी मुसलमानों के किए का फ़ैसला करेगा।अल अक्सा को आज़ाद कराएंगे अर्दवान?
अर्दवान ने इज़रायल की अल अक्सा मसजिद को आज़ाद कराने की बात जब कही थी तो इसरायल ही नहीं अमेरिका में भी तीखी प्रतिक्रिया हुई थी। अल अक्सा मसजिद यहूदियों के माउंट टेंपल के पास है और 'वेलिंग वॉल' से बिल्कुल सटा हुआ है। वेलिंग वॉल यानी ध्वस्त मंदिर का भग्नावशेष, जो यहूदियों के लिए बहुत ही पवित्र हैं। वे वहां जाकर उस दीवाल से सट कर प्रार्थना करते हैं। माउंट टेंपल यहूदियों का सबसे पवित्र स्थल है और कहा जाता है कि इसी जगह पर डेविड के समय बनाया हुआ यहूदी मंदिर था, जिसे रोमन साम्राज्य ने पहली सदी में ही ध्वस्त कर दिया था। इसका कारण राजनीतिक था क्योंकि यहूदियों ने रोमन साम्राज्य के आधिपत्य को चुनौती दी थी।जब अर्दवान अल अक्सा मसजिद को आज़ाद कराने की बात करते हैं तो वे पूरी दुनिया के मुसलमानों को यह संकेत देने की कोशिश करते हैं कि वह उनके भविष्य के नेता हैं, वह उनका उद्धार करने वाले हैं, वह उन्हें एकजुट कर मुसलमानों के साम्राज्य की स्थापना करने वाले हैं।
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