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जिस इसलामी चरमपंथी गुट हमास ने इज़राइली ठिकानों पर ताबड़तोड़ मिसाइल हमले किए, उसकी नींव खुद इज़राइल ने रखी थी, उसे तमाम तरह की वित्तीय और राजनीतिक समर्थन दिया था और पाल पोस कर तब तक बड़ा किया, जब वह खुद इस यहूदी राज्य के ख़िलाफ़ नहीं हो गया।
हरकत अल मकावमा अल इसलामिया (हमास) यानी इसलामी प्रतिरोध आन्दोलन नाम भी इसकी स्थापना के कई साल बाद दिया गया और इसका चार्टर तो उसके भी बाद सामने आया।
इसके चार्टर में ही दुनिया के नक्शे से इज़राइल को ख़त्म कर देना इसका मूल मक़सद बताया गया है और इसलाम के इस पवित्र स्थान को मुक्त करना हर मुसलमान का कर्तव्य और पवित्र जिहाद बताया गया है, चाहे वह कहीं का रहने वाला हो।
लेकिन यह पहली बार 1989 में पता चला कि इस संस्था का यह चार्टर है, इसका यह उद्देश्य है।
तब तक तो दज़ला-फ़रात नदियों में काफी पानी बह चुका था। और पवित्र जोर्डन मुसलमानों और यहूदियों के ख़ून गिरने से काफी अपवित्र हो चुका था।
एक तरफ इज़राइल तो दूसरी तरफ जोर्डन, सीरिया व मिस्र के बीच 1967 में भयानक युद्ध हुआ जो 5 जून 1967 से 10 जून 1967 तक चला। इसे ही छह दिनों का युद्ध यानी सिक्स डे वॉर कहते हैं। इस युद्ध में इज़राइल ने जोर्डन से गज़ा पट्टी, पश्चिमी तट व पूर्वी येरूशलम, मिस्र से गोलान की पहाड़ियों और सीरिया से सिनाई प्रायद्वीप को छीन लिया। इस बीच मुसलिम ब्रदरहुड शांत बैठा रहा, इसने मध्य-पूर्व के इस निर्णायक युद्ध में कोई भूमिका नहीं निभाई। इसने अपने आपको सामाजिक व सांस्कृतिक संगठन के रूप में स्थापित किया, जिसका मुख्य उद्येश्य फ़लस्तीन में सामाजिक काम करना था।
इसके नेता अहमद यासीन थे जो अल-ज़ूरा के फ़लस्तीनी शरणार्थी शिविर में रहते थे। यह शिविर गज़ा पट्टी में था। शारीरिक रूप से बेहद कमज़ोर, निरुपाय, अपंग और हमेशा व्हील चेअर पर रहने वाले अहमद यासीन गज़ा पट्टी में बेहद लोकप्रिय थे।
अहमद यासीन ने 1973 में अल- मजमा-अल-इसलामिया की स्थापना की, जिसका मक़सद शरणार्थियों की आर्थिक मदद करना था। उन्हें इसके लिए पैसे की ज़रूरत थी।
यासिर अरफ़ात उस समय तक सर्वस्वीकार्य नहीं तो कम से बेहद प्रभावशाली नेता बन चुके थे।
पीएलओ ने छिटपुट वारदात की थी, कई जगहों पर इज़राइल के कई प्रशासनिक अधिकारियों की हत्या की थी। पीएलओ और यासिर अरफ़ात को मोटे तौर पर फ़लस्तीनी मुक्ति का प्रतीक माना जाने लगा था।
लगभग उसी समय यानी 1972 में एक बड़ी वारदात हुई। जर्मनी के म्युनिख़ शहर में चल रहे ओलंपिक खेलों में भााग ले रहे इज़राइली टीम पर पीएलओ के ब्लैक सेप्टेम्बर ग्रुप ने हमला किया, नौ खिलाड़ियों का अपहरण कर लिया।
जर्मनी सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में ब्लैक सेप्टेम्बर ग्रुप के आठ में से पाँच लोग मारे गए, एक जर्मन अफ़सर मारा गया। दो इज़राइली खिलाड़ी मारे गए और सात खिलाड़ियों को छुड़ा लिया गया।
इस घटना की एक बड़ी प्रतिक्रिया यह हुई कि इज़राइल ने पीएलओ को रोकने के लिए अल- मजमा-अल-इसलामिया और यासिर अरफ़ात को उनके ही क्षेत्र में घेरने के लिए अहमद यासीन को बढ़ावा देना शुरू किया।
यासिर अरफ़ात फ़लस्तीन आन्दोलन को अभी भी धर्मनिरपेक्ष रखना चाहते थे क्योंकि एक तो उन्हें ईसाई बहुल यूरोप से पैसे मिलते थे, सोवियत संघ और गुट निरपेक्ष देशों से राजनीतिक समर्थन मिलता था और वह मानते थे कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर या संयुक्त राष्ट्र में किसी तरह की कामयाबी मुसलिम चरित्र को लेकर नहीं मिल सकती।
लेकिन अहमद यासीन इसे खुले आम इसलामी विद्रोह मानते थे, यहूदी-मुसलमानों का संघर्ष मानते थे और उनका भरोसा इसलामी देशों पर अधिक था। इस वजह से उनकी अपील बढ़ती गई और वे अरफ़ात के सामने उन्हें चुनौती देने वाले नेता बन गए, जिसकी गज़ा पट्टी में बेहतर पकड़ थी।
यह सब यहूदी राज्य इज़राइल की सहमति से हो रहा था क्योंकि उसे लगता था कि पहले यासिर अरफ़ात के प्रभाव क्षेत्र को सीमित करना ज़रूरी है, क्योंकि उसका अंतरराष्ट्रीय प्रभाव था।
लेकिन यासीन की महत्वाकांक्षाएं बढ़ीं क्योंकि यासिर अरफ़ात शांतिपूर्ण तरीके से नहीं तो हिंसक तरीके से ही सही, इज़राइल से फ़लस्तीन छीन लेने की बात कर रहे थे।
म्युनिख कांड की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भले ही आलोचना हुई हो, लेकिन गज़ा पट्टी व पश्चिमी तट पर उसका स्वागत ही हुआ था। उसे फ़लस्तीनी ज़मीन पर कब्जा करने वालों को मजा चखाने की कार्रवाई के रूप में देखा गया था।
अल- मजमा-अल-इसलामिया के साथ इज़राइल के रिश्तों में पहली बार तल्ख़ी तब उजागर हुई जब 1984 में उसके ठिकानों पर पुलिस ने छापे मार कर हथियार बरामद किए और अहमद यासीन को गिरफ़्तार कर लिया।
अल अक्सा मसजिद मुसलमानों का तीसरा सबसे पवित्र धर्म स्थान माना जाता है जो पूर्व येरूशलम में है। इसी से सटा हुआ है यहूदियों का पवित्र माउंट टेंपल। इज़राइल ने 1967 के युद्ध में पूर्व येरूशलम पर कब्जा कर लिया तो अल अक्सा मसजिद भी उसके कब्जे में आ गया। इस मसजिद को मुक्त कराने के लिए जब पहला इंतिफ़ादा यानी विद्रोह 1987 में हुआ और लोग सड़कों पर उतर कर आन्दोलन करने लगे तो इस संगठन के लोग खुल कर सामने आए।
अहमद यासीन ने पहले इंतिफ़ादा को समर्थन तो दिया, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता है कि उनके संगठन ने किसी तरह की कार्रवाई की या हिंसा की।
लेकिन दिक्क़त यह थी कि पीएलओ के लोग खुले आम इंतिफ़ादा में भाग ले रहे थे, हालांकि यह मोटे तौर पर शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन था। यह साफ़ हो गया कि अहमद यासीन और उनके संगठन चुप रहे तो उनका समर्थन कम हो जाएगा और वे पूरी तरह अप्रासंगिक हो जाएंगे।
यह स्थिति बहुत दिनों तक नहीं चल सकती थी, नहीं चली। अगस्त 1988 में हमास की स्थापना का विधिवित एलान हुआ और हमास चार्टर जारी किया गया।
इसके बाद यानी 1989 से ही हमास का समर्थन बढ़ता गया, वह गज़ा पट्टी के बाहर भी लोकप्रिय होने लगा। अरब के मुसलिम देशों ने इसका समर्थन शुरू किया है और हमास को पैसे मिलने लगे। सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, जोर्डन, इरान, इराक़, कुवैत, मिस्र ही नहीं कई देशों से इसे पैसे आने लगे।
यासिर अरफ़ात, पीएलओ और उनके राजनीतिक दल फ़तह के सामने एक बड़ा संगठन खड़ा हो चुका था, जिसके पास हथियार थे, पैसे थे, जनता में समर्थन था।
वह इज़राइल के सामने तन कर खड़ा था और उसके वजूद को मिटा देने का एलान छाती ठोक कर रहा था।
लेकिन फरवरी 1994 में एक बड़ा बदलाव हुआ, जिससे हमास पूरी तरह स्थापित हो गया। पश्चिमी तट के शहर हेब्रोन स्थित इब्राहिमी मसजिद में रमज़ान के पवित्र महीने में बरूच गोल्डस्टीन नामक एक यहूदी ने अंधाधुंध गोलीबारी कर दी, जिसमें 29 फ़लस्तीनी मुसलमान मारे गए।
इसके बाद यानी 1997 में इज़राइली सरकार और हमास के बीच ख़ूनी जंग ज़्यादा तेज़ हो गई। इज़राइल सरकार ने एक के बाद कई हमास प्रमुखों की हत्या करवा दी। अहमद यासीन और उनकी जगह लेने वाले अल रंतीसी की हत्या खुले आम हुई। ये दोनों ही इज़राइल के मिसाइल हमले में मारे गए।
इस समय तक इज़राइली राजनीति में बिन्यामिन नेतन्याहू की पकड़ मजबूत हो गई थी, वे प्रधानमंत्री बन चुके थे।
नेतन्याहू के पास यहूदी कट्टरपंथ, यहूदी राष्ट्रवाद, अति राष्ट्रवाद, घनघोर यहूदीवादी आन्दोलन का अद्भुत मिश्रण बन कर तैयार हो चुका था, जिसका मक़सद अधिक से अधिक फ़लस्तीनीयों की हत्या कर कर उनके मन में खौफ पैदा करना था।
वे एक ऐसा इज़राइल बनाने की राह पर चल रहे थे, जो राष्ट्रवादी ही नहीं था, बल्कि जिसके राष्ट्रवाद का मतलब फ़लस्तीनी विरोध ही था।
वे यहूदी धर्मग्रंथ तोराह से संचालित तो नहीं थे, पर तोराह को जीवन का एकमात्र मूल मंत्र मानने वालों के बीच उनकी ज़बरदस्त लोकप्रियता थी। उनकी तुलना आज के भारतीय प्रधानमंत्री से ही की जा सकती है।
या फिर वे बहुत कुछ रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की तरह थे, जो सोवियत संघ के गौरव की तरह ही मूसा के समय की यहूदी भूमि को हर कीमत पर हासिल करना चाहते थे। उनके सामने हमास था जो जिहाद के लिए ही बना था। दोनों एक दूसरे के धुर विरोधी थे, पर एक दूसरे के बल पर ही फल- फूल रहे थे।
लेकिन साल 2000 में जब इज़राइली राष्ट्रपति एरियल शैरन ने पूर्वी येरूशलम स्थित माउंट टेंपल का दौरा किया तो इसे अल अक्सा मसजिद को अपवित्र करना और समझौते से पीछे हटना माना गया। इसके बाद इस मसजिद की मुक्ति के लिए दूसरा इंतिफ़ादा शुरू हुआ।
लेकिन इसक स्वरूप शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन नहीं था, खुले आम हमला था। इस दौरान हमास का अल क़सम ब्रिगेड खुल कर सामने आया। दूसरे इंतिफ़ादा और उसके बाद के एक साल के हमलों में कम से कम पाँच हज़ार फ़लस्तीनी और एक हज़ार इज़राइली मारे गए।
हमास की बढ़ती लोकप्रियता को कोई नहीं रोक पाया। उसने साल 2006 का चुनाव जीत लिया, पूरे पश्चिमी तट पर उसका वैधानिक कब्जा हो गया। फ़लीस्तीन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास का क्षेत्र गज़ा पट्टी तक सीमित रह गया। लेकिन इसके बावजूद हमास ने हिंसा छोड़ने से इनकार कर दिया। उसने इज़राइल के साथ किसी तरह की बातचीत को सिरे से खारिज कर दिया।
इसके कुछ दिन बाद ही 2007 में हमास और पीएलओ के राजनीतिक संगठन फ़तह के बीच खू़नी झड़पें हुईं, फतह के 50 से अधिक लोग मारे गए। हमास ने उसे पश्चिमी तट से पूरी तरह बाहर कर दिया।
आज फ़लस्तीन दो टुकड़ों में बंटा हुआ है- हमास के क़ब्जे वाला पश्चिमी तट और फतह के कब्जे वाला गज़ा पट्टी। यह बंटवारा भौगोलिक ही नहीं है, राजनीतिक है, वैचारिक है, सैद्धांतिक है।
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