अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका 20 साल बाद लौट गया है, चुनी हुई सरकार ध्वस्त हो चुकी है और शरीआ क़ानून यानी इसलाम के बताए रास्ते पर शासन करने का वायदा करने वाले तालिबान ने अपनी पकड़ मजबूत बना ली है। अब जब सरकार बनाने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है तो सवाल यह उठता है कि यह सरकार किस मॉडल पर चलेगी।
यह तो साफ है कि यह वेस्ट मिंस्टर मॉडल यानी संसदीय लोकतंत्र नहीं होगा, यानी ब्रिटेन या भारत की तरह संसदीय प्रणाली और प्रधानमंत्री की अगुआई में चलने वाली व्यवस्था नहीं होगी।
यह प्रेसिडेन्सियल फ़ॉर्म यानी अमेरिका की तरह की सरकार भी नहीं होगी, जहां देश एक व्यक्ति को राष्ट्रपति चुनता है और उसे प्रशासन की वे छूटें होती हैं जो संसदीय प्रणाली में नहीं होतीं। कारण साफ है, इसलामी व्यवस्था में इस तरह की प्रणाली के लिए जगह नहीं है।
क़तर की राजधानी दोहा में तालिबान के शूरा की तीन दिनों की बैठक के बाद इसके संकेत मिलने लगे हैं वह ईरान की राजनीतिक पद्धति पर ही चलेगा।
यह बिल्कुल ईरान की कॉपी न हो, इसकी संभावना ज़्यादा है, लेकिन ईरान से मिलती जुलती प्रणाली ही होनी चाहिए।
क्या है ईरानी शासन प्रणाली?
ईरान में तत्कालीन शासक मुहम्मद रज़ा शाह पहलवी के ख़िलाफ़ जनवरी 1978 में ही प्रदर्शन शुरू हो गए, जिसमें छात्रों की भागेदारी अधिक थी और तेहरान विश्वविद्यालय के छात्र नेता आगे थे। बाद में इस आन्दोलन की कमान शिया धर्मगुरुओं ने संभाली। साल 1979 में विद्रोह कामयाब रहा, रज़ा शाह पहलवी को देश छोड़ कर भागना पड़ा।
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ईरान में नया युग
निर्वासन में रह रहे सर्वोच्च शिया धर्मगुरु अयातुल्ला रूहल्ला ख़ुमैनी स्वदेश लौट आए और इसे इसलामी क्रांति कहा गया, एक नए युग की शुरुआत हुई।
ईरान में उसके पहले भी लोकतांत्रिक व्यवस्था नहीं थी, पहलवी वंश का शासन था और वह पश्चिमी मूल्यों व जीवन शैली पर चलता था। शाह पहलवी यानी राजा ही शासन के प्रमुख थे, वे ही अपना मंत्रिमंडल चुनते थे। यानी लोकतंत्र नहीं था।
ईरानी व्यवस्था
राजा मुसलमान ज़रूर था, पर वह इसलामी शासन व्यवस्था नहीं थी। महिलाओं के लिए बुर्का पहनना अनिवार्य नहीं था, तेहरान विश्वविद्यालय समेत तमाम जगहों पर महिलाओं की भागेदारी थी, लेकिन राजीति में उनकी अधिक मौजूदगी नहीं थी।
ईरान की मौजूदा शासन प्रणाली के मुख्य अंग होते हैं- अयातुल्ला यानी सर्वोच्च धार्मिक नेता, कार्यकारी यानी सरकार, विधायिका यानी संसद, न्यायपालिका, विशेषज्ञों की समिति जो सरकार को सलाह देती है. मज़मा-ए-तशखीस-ए-मसालहत-ए-निज़ामी, यानी वह परिषद जो शासन व्यवस्था पर नज़र रखता हो, इसकी नियुक्ति अयातुल्ला करते हैं। इनका कार्यकाल पाँच साल का होता है।
ईरान के संविधान को 1979 में लागू किया गया और 1989 में इसमें संशोधन किया गया।
ईरानी संविधान के अनुच्छेद 5 के तहत अयातुल्ला यानी सर्वोच्च नेता की व्यवस्था है। वे देश के सर्वोच्च तो होते ही हैं, मुख्य सेनापति, सरकार के प्रमुख, न्यायपालिका के प्रमुख, संसद के प्रमुख भी होते हैं।
खुमेनी का पद आजीवन होता है। यानी जो इस पद पर चुना जाएगा, वह मृत्यु पर्यंत उस पर बना रहेगा।
मौजूदा सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली खामिनी हैं।
राष्ट्रपति
इसके बाद नंबर आता है राष्ट्रपति का। चार साल के लिए उनका चुनाव होता है, एक व्यक्ति इस पद पर अधिकतम दो बार चुना जा सकता है।
ये सरकार के रोज़मर्रा के कामकाज के प्रमुख होते हैं, यानी सरकार वही चलाते हैं। ये मंत्री नियुक्त करते हैं, पर संसद की मंजूरी लेनी होती है। वे मंत्रिमंडल के प्रमुख होते हैं।
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मौजूदा राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी हैं, जो इसी साल 18 जून को चुने गए।
संसद
ईरानी विधायिका के दो सदन होते हैं-इसलामी सलाहकार परिषद और अभिभावक परिषद।
इसलामी सलाहकार परिषद संसद का निचला सदन होता है, भारत के लोकसभा की तरह। इसके सदस्य सीधे जनता के द्वारा पाँच साल के लिए चुने जाते हैं।
अभिभावक परिषद संसद का ऊपरी सदन होता है। इसका काम यह देखना होता है कि निचले सदन के लिए हुए फ़ैसले इसलाम के सिद्धान्तों के अनुकूल हैं या नहीं।
इसके 12 सदस्य होते हैं, आधे की नियुक्ति अयातुल्ला करते हैं। बाकी की नियुक्ति मुख्य न्यायाधीश निचले सदन की सिफारिश पर करते हैं। ये मुसलिम न्यायविद होते हैं।
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न्यायपालिका
मुख्य न्यायाधीश न्यायपालिका के प्रमुख होते हैं। उनकी और दूसरे जजों की नियुक्ति अयातुल्ला यानी सर्वोच्च नेता करते हैं।
इस न्यायपालिका के कई स्तर होते हैं- क्रांतिकारी अदालत, अमन की अदालत, आम अदालत और सर्वोच्च अदालत।
हर शहर और गाँव के स्तर पर एक कमिटी होती है जो स्थानीय प्रशासन का काम देखती है।
यह तो साफ है कि ईरानी शासन व्यवस्था पहली नज़र में अलोकतांत्रिक और थियोक्रेटिक यानी धर्म का शासन लगती है। यह आंशिक रूप से सही भी है क्योंकि जो सर्वेसर्वा हैं वे सर्वोच्च धर्मगुरु हैं।
अयातुल्ला की पकड़
इसी तरह राष्ट्रपति का चुनाव आम जनता के बीच से होता है, लेकिन हर उम्मीदवार की परख स्वयं अयातुल्ला करते हैं। वे जिन उम्मीदवारों को उचित समझेंगे, वे ही राष्ट्रपति चुनाव लड़ सकते हैं।
लेकिन यह भी सच है कि संसद है और इसके निचले सदन यानी इसलामी सलाहकार समिति के सदस्य आम जनता के बीच से चुने जाते हैं।
ऊपरी सदन यानी अभिभावक परिषद के आधे सदस्य सर्वोच्च नेता नियुक्त करते हैं, पर आधे की नियुक्ति निचले सदन की सिफ़ारिश पर होती है।
क्या करेगा अफ़ग़ानिस्तान?
ईरानी मॉडल पर अफ़ग़ानिस्तान के चलने की संभावना ज़्यादा इसलिए है कि वही एक मात्र इसलामी मॉडल है और मोटे तौर पर कामयाब है क्योंकि ईरान में 1979 से अब तक चल रहा है।
लेकिन ईरान में प्रभुत्व वाले धार्मिक नेताओं का दबदबा है और शुरू से ही रहा है। अयातुल्ला रूहल्ला खुमैनी स्वयं धार्मिक विद्वान थे।
तालिबान शरीअत के शासन की बात करता है, पर इसके पास इसलाम के प्रकांड विद्वान नहीं हैं। जिन मुल्ला हिबतुल्लाह अखुंदज़ादा के धार्मिक नेता होने की बात कही जा रही है, वे भी मूल रूप से लड़ाका ही हैं, इसलामी विद्वान नहीं।
सवाल उठता है कि तालिबान किस इसलामी विद्वान के नियंत्रण में शरीआ लागू करेगा?
तालिबान ने बार बार जिस तरह समावेशी सरकार होने की बात कही है, उससे यह संकेत ज़रूर मिलता है कि वे किसी ऐसे मॉडल को लेकर चलें जिसमें एक व्यक्ति के हाथ में ही सबकुछ न हो, समाज के दूसरे वर्गों की भी हिस्सेदारी हो। इसके लिए किसी न किसी तरह के लोकतांत्रिक मॉडल को मानना होगा।
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क्या यह शूरा या परिषद होगा?
तालिबान को जब 2001 में अफ़ग़ानिस्तान छोड़ कर निकलना पड़ा, पाकिस्तान ने उन्हें शरण दी और बलोचिस्तान में उन्होंने कामकाज शुरू किया, तो क्वेटा शूरा की स्थापना की गई। इसमें शुरू में सिर्फ पाँच लोग थे जो बाद में बढ़ते हुए 13 हो गए। तालिबान के तमाम अहम फैसले यह शूरा ही लेता था। मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर इस शूरा में थे।
यदि तालिबान क्वेटा शूरा के तर्ज पर किसी शूरा की स्थापना करता है तो यह साफ है कि नियंत्रण किसी एक व्यक्ति के हाथ में नहीं होगा।
इसके बाद सरकार का क्या स्वरूप होगा, यह आने वाले समय में ही मालूम हो सकेगा।
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