पश्चिम बंगाल के वन मंत्री राजीव बनर्जी ने इस्तीफ़ा दे दिया और उनका समर्थन करने वाली विधायक वैशाली डालमिया को पार्टी ने निकाल दिया। इससे पहले राज्य सरकार के दो और मंत्री सरकार से त्यागपत्र दे चुके हैं और कई विधायक भी पार्टी छोड़कर बीजेपी का दामन थाम चुके हैं। इससे देशभर में यह संकेत जा रहा है कि राज्य में सत्ता परिवर्तन की बयार बह रही है और अगले चुनावों में बीजेपी की सरकार आते देखकर ही ‘इतने सारे लोग’ टीएमसी छोड़कर जा रहे हैं।
क्या वाक़ई बदलाव आने वाला है?
लेकिन क्या वाक़ई राज्य में बदलाव आने वाला है? क्या वास्तव में बहुत सारे ‘ताक़तवर और प्रभावशाली’ लोग तृणमूल कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में जा रहे हैं? आइए, देखते हैं कि वे कौन और कितने लोग हैं, जिन्होंने अब तक तृणमूल कांग्रेस को छोड़ा है और बीजेपी का झंडा थामा है। इससे हमें यह अंदाज़ा भी लग जाएगा कि ये लोग ऐसा क्यों कर रहे हैं।
पहले कुछ ज़रूरी तथ्य
अब तक कुल 11 विधायक अपना-अपना दल छोड़कर बीजेपी में गए हैं और कम-से-कम 3 अन्य के निकट भविष्य में बीजेपी में जाने की संभावना है। लेकिन ध्यान दीजिए, ये सब के सब तृणमूल कांग्रेस के विधायक नहीं है। इनमें से 5 वे हैं, जो 2016 में सीपीआईएम और कांग्रेस के टिकट पर जीते थे या दलबदल करके टीएमसी में गए थे।
यानी तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर जीतकर आने वाले केवल 6 विधायक हैं, जिन्होंने अब तक बीजेपी के पाले में छलांग लगाई है। जो 3 अन्य शीघ्र ही बीजेपी में जा सकते हैं, उनमें से एक राजीव बनर्जी हैं, जिन्होंने कल मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दिया और दूसरी वैशाली डालमिया हैं जिनको पार्टी से निकाला गया है। तीसरा एक दलबदलू विधायक है जो कांग्रेस से टीएमसी में गया था।
बीजेपी में जाने वाले विधायकों की तीन श्रेणियाँ हैं। सीपीआईएम और कांग्रेस के विधायक - 4, टीएमसी के मूल विधायक - 8, अन्य पार्टियों से टीएमसी में आए विधायक -2। हमें विधायकों की अलग-अलग श्रेणियाँ बनाने की ज़रूरत इसलिए है कि इन तीनों श्रेणियों के विधायकों के बीजेपी में जाने की वजहें अलग-अलग हैं। पहले हम लेफ़्ट और कांग्रेस के विधायकों की बात करते हैं, क्योंकि उनके बीजेपी में जाने का कारण समझना सबसे आसान है।
सीपीआईएम-कांग्रेस के विधायकों का दलबदल
आप जानते होंगे कि 2019 के लोकसभा चुनावों में बंगाल में बीजेपी के वोट शेयर में बहुत बड़ी वृद्धि हुई थी। वह 2014 के 16% से बढ़कर 40% तक हो गया था।
यह वृद्धि तृणमूल कांग्रेस की क़ीमत पर नहीं हुई थी, क्योंकि उसका वोट शेयर भी पाँच सालों में 4% बढ़ गया था यानी 39% से 43%। तो फिर बीजेपी का बढ़ा हुआ जन समर्थन कहाँ से आया था? वह आया था - सीपीआईएम और कांग्रेस से, जिनका वोट शेयर 40% से घटकर 12% रह गया।
यानी लेफ़्ट के 28% वोटरों ने 2019 के लोकसभा चुनाव में अपना मत बदल दिया। इसमें से कुछ ने तृणमूल को वोट दिया, अधिकतर ने बीजेपी को।
यदि हम 2019 के लोकसभा चुनाव परिणामों का विधानसभा के स्तर पर आकलन करें तो पता चलता है कि बीजेपी को 122 विधानसभा क्षेत्रों में लीड मिली थी। इसका मतलब यह हुआ कि अगर 2021 में बंगाल का वोटर उसी तरह वोट करे जिस तरह 2019 में किया था तो बीजेपी को 122 सीटें मिल सकती हैं।
इन 122 सीटों में क़रीब आधी ऐसी सीटें हैं जहाँ 2016 में कांग्रेस या सीपीआईएम के उम्मीदवार जीते थे। लेकिन 2019 की तसवीर यह बताती है कि इनमें से कई सीटों पर कांग्रेस और सीपीआईएम के वोट मिला भी दिए जाएँ (क्योंकि तब वे अलग-अलग लड़े थे और इस बार साथ लड़ रहे हैं), तो बीजेपी या टीएमसी से 40-50 हज़ार वोटों से पीछे रह जाते हैं। ऐसे में इन विधायकों को अगर अपनी पार्टी का टिकट मिल भी जाए तो उनके जीतने की संभावना शून्य के बराबर है। इसलिए वे बीजेपी की ओर जा रहे हैं।
तृणमूल के विधायकों का दलबदल
तृणमूल के जो विधायक बीजेपी में गए हैं या जाने वाले हैं - उनकी दो उपश्रेणियाँ हैं। 1. मंत्री, 2. शुद्ध विधायक। पदत्यागी मंत्री : अब तक तीन मंत्री सरकार से इस्तीफ़ा दे चुके हैं। एक, शुभेंदु अधिकारी जो बीजेपी में शामिल हो चुके हैं और दूसरे, राजीव बनर्जी जो जल्दी ही जाने वाले हैं। तीसरे लक्ष्मी रत्न शुक्ला ने कहा है कि वे अब राजनीति छोड़कर खेल जगत में अपना ध्यान लगाएँगे।
शुभेंदु अधिकारी पार्टी और सरकार में नंबर दो की हैसियत चाहते थे, लेकिन पिछले कुछ सालों से ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी के उभरने और ताक़तवर बनने से उनकी स्थिति कमज़ोर पड़ने लगी थी।
इधर हाल में कई महत्वपूर्ण पदों से उनको हटा दिया गया था। ऐसे में उनके सामने दो ही विकल्प थे। या तो वे अपनी कमज़ोर होती हैसियत से समझौता कर लेते या बीजेपी में अपनी नई पारी शुरू करते। उन्होंने दूसरा रास्ता चुना।
राजीव बनर्जी का शुभेंदु की तरह 2011 से पहले कोई राजनीतिक करियर नहीं था। ममता बनर्जी ने उनको 2011 में चुनाव लड़वाया और मंत्री बनाया। लेकिन 2018 से उनकी भी ताक़त कम की जाने लगी, बिना उनको पूर्व-सूचना दिए उनका मंत्रालय बदल दिया गया, जिसका उन्होंने कल दुखी मन से ज़िक्र भी किया।
2019 में उनका मंत्रालय फिर बदल दिया गया। यानी वे भी पार्टी के नए सत्ता समीकरण में घाटे में जा रहे थे और पिछले कुछ सालों से पार्टी और सरकार में अपनी हैसियत को लेकर क्षुब्ध थे। उनके सामने भी वही दो विकल्प थे जो शुभेंदु के सामने थे। उन्होंने भी दूसरा विकल्प चुना।
दलत्यागी विधायक
इनमें से कुछ ऐसे हैं जिनकी सीट से 2019 में बीजेपी को भारी लीड मिली थी या फिर टीएमसी की लीड बहुत कम थी। मसलन नागराकाटा में बीजेपी की लीड 50 हज़ार वोटों की थी तो वहाँ से टीएमसी विधायक शुक्रा मुंडा को लगा होगा कि ऐसे हालात में पाला बदलना ही उचित है।
उसी तरह वैशाली डालमिया जो बाली से विधायक हैं, उनके विधानसभा क्षेत्र में टीएमसी की लीड क़रीब 300 वोट की रही। पार्टी की अंदरूनी उठापटक के चलते उनको इस बार टिकट मिलने की संभावना भी नहीं दिख रही थी। ऐसे में उनको भी यही ठीक लगा कि वे टीएमसी छोड़कर बीजेपी का हाथ थाम लें।
जो विधायक कांग्रेस या सीपीआईएम से टीएमसी में आए थे, उनमें से भी कुछ को लग रहा है कि पार्टी में अब उनकी उपयोगिता नहीं रह गई है क्योंकि बीजेपी के उभार के चलते उनका अपना स्थानीय प्रभाव कम हो गया है और इस कारण उनको टीएमसी से टिकट नहीं मिलेगा।
सारे विधायक बीजेपी में क्यों नहीं?
2019 के हिसाब से 122 ऐसी सीटें हैं जहाँ बीजेपी को लीड थी और अगर इस बार भी वोटिंग पैटर्न वही रहा तो बीजेपी को इतनी सीटें मिल सकती हैं। अगर ऐसा है तो इन सारी 122 सीटों के विधायक बीजेपी में क्यों नहीं चले जाते? दलबदलू विधायकों की संख्या इतनी कम क्यों?
सही सवाल है। लेकिन ऐसा न होने के कई कारण हैं जिनको नीचे संक्षिप्त में इस तरह समझा जा सकता है।
लोकसभा और विधानसभा में वोटिंग का ढर्रा अलग-अलग होता है। देशभर में देखा गया है कि विधानसभा चुनावों में बीजेपी का समर्थन कम हो जाता है और क्षेत्रीय पार्टियों का वोट बढ़ जाता है।
ऐसे में ज़रूरी नहीं कि बीजेपी इस बार उन सभी 122 सीटों पर जीत हासिल करे जहाँ से उसे 2019 में लीड मिली थी। बहुत संभव है कि जिन सीटों पर बीजेपी की लीड बहुत कम थी, वहाँ इस बार टीएमसी या दूसरी पार्टियों को बीजेपी से ज़्यादा वोट मिलें।
बीजेपी को हो सकता है घाटा
कांग्रेस और सीपीआईएम के एक होने से भी बीजेपी को मिलने वाली सीटों की संख्या घट सकती है। एबीपी के हाल के सर्वे से भी यही रुझान सामने आया है जिसने बीजेपी का वोट शेयर घटने और उसको लगभग 100 सीटें मिलने की भविष्यवाणी की है।
जिन सीटों पर बीजेपी को अच्छी-ख़ासी बढ़त मिली है और जहाँ उसके जीतने की पूरी संभावना है, वहाँ से टिकट के लिए बीजेपी के अपने दावेदार भी कम नहीं हैं। फिर पार्टी टीएमसी या सीपीआईएम-कांग्रेस के विधायकों को अपने साथ जोड़कर आंतरिक प्रतिस्पर्धा को क्यों बढ़ावा दे!
अभी तक जो विधायक और नेता शामिल हुए हैं, उसके चलते भी पार्टी में काफ़ी विवाद है और कहीं-कहीं पथराव और हिंसा भी हो चुकी है। इसी कारण पार्टी को यह घोषणा करनी पड़ी है कि जो भी विधायक पार्टी में आना चाहेगा, पहले उसका इतिहास टटोला जाएगा।
बीजेपी उन इलाक़ों से दलबदल नहीं चाहती जहाँ से उसे 2019 के चुनावों में अच्छी-ख़ासी लीड मिली है। वह उन इलाक़ों से दलबदल चाहती है जहाँ से वह पिछड़ रही है ताकि तृणमूल के वोट घटें और उसके बढ़ें।
शुभेंदु और राजीव ऐसे ही इलाक़ों से आते हैं। लेकिन क्या ये दोनों नेता इतने ताक़तवर हैं कि वे अपने साथ तृणमूल के ढेर सारे कार्यकर्ताओं और समर्थकों को भी खींच ले जाएँ? शुभेंदु की ताक़त का संकेत तो पहले ही दिन मिल गया था जब वे मिदनापुर इलाक़े से केवल 2 विधायकों को अपने साथ ले जा पाए थे जबकि पिछले कई महीनों से दावा किया जाता था कि टीएमसी के 40 से 50 विधायक उनके साथ हैं।
अगर मिदनापुर और आसपास के इलाक़ों में उनकी तूती बोलती होती तो उनके साथ जाने वालों की संख्या 2 नहीं, कम-से-कम 15-20 होती। अब ममता के नंदीग्राम से चुनाव लड़ने से उनकी स्थिति और कमज़ोर हो गई है। जहाँ तक राजीव बनर्जी का मामला है, वे ऊपर से लाए गए हैं और कार्यकर्ताओं में उनका आधार नहीं के बराबर है।
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