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राम भक्ति परंपरा में रामलला स्वरूप के तौर पर नहीं है! 

अयोध्या में राम मंदिर में ‘गर्भगृह’ में बालराम या ‘रामलला’ की प्राण प्रतिष्ठा होने जा रही है। यह सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बाबरी मस्जिद की ज़मीन पर ‘राम लला’ के स्वामित्व को स्वीकार करने के कारण संभव हुआ है। 

‘राम लला’ के ज़मीन की मिल्कियत के दावे से पहले निर्मोही अखाड़ा ने उस ज़मीन के स्वामित्व का दावा पेश किया था। उसने किसी रामलला की तरफ़ से दावा नहीं किया था। ‘रामलला’ का प्रवेश इस मुक़दमे में 1989 में हुआ। कहा गया कि वे ‘रामलला विराजमान’ हैं। ऐसी किसी वस्तु का उल्लेख किसी राम कथा में नहीं है, अलावा विश्व हिंदू परिषद के रामाख्यान के। फिर उनका दावा क्यों स्वीकार कर लिया गया? क्या यह साफ़ नहीं था कि रामलला की आड़ में विश्व हिंदू परिषद बाबरी मस्जिद की ज़मीन की मिल्कियत का दावा कर रहा था?

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बाबरी मस्जिद के मस्जिद होने के बावजूद अदालत ने कहा कि मुसलमान उसे सबूत नहीं दे पाए हैं कि मस्जिद बनने के बाद से 1856 तक वहाँ नमाज़ पढ़ी जा रही थी। इससे बड़ा मज़ाक़ कुछ नहीं हो सकता था। मस्जिद का इस्तेमाल अगर नमाज़ के लिए नहीं हो रहा था तो वह 500 साल तक क्या पाठशाला का काम कर रही थी? क्या अदालत को हाज़िरी बही चाहिए थी जिनमें इन 300 सालों में नमाजियों के पाँचों वक्त नमाज़ के समय के दस्तख़त होते? 

बहरहाल! अदालत को जब 300 साल के नमाज़ के सबूत चाहिए थे तो क्या यह उचित न था कि जिन ‘रामलला विराजमान’ का स्वामित्व वह स्वीकार करने जा रही थी उनके वास्तविक भौतिक अस्तित्व का नहीं तो काल्पनिक अस्तित्व का सबूत ही वह माँगती? 

हिंदू कल्पना में ‘रामलला’ के अस्तित्व का कोई प्रमाण नहीं क्योंकि हिंदुओं में राम के बाल रूप की अर्चना की परंपरा नहीं है। तुलसीदास के ग्रंथों में, जिनमें सबसे प्रमुख है ‘राम चरित मानस’, प्रसंगवश ही  राम के बालरूप का ज़िक्र होता है। 
अयोध्या राम की भूमि है लेकिन वह पूरी अयोध्या है, कोई एक राम जन्मभूमि नहीं। अयोध्या में छोटे-बड़े मंदिरों में कहीं भी शिशु राम की पूजा-आराधना नहीं की जाती, यह नियमित रूप से अयोध्या जानेवाले श्रद्धालु बतलाते हैं।

रामलला को लेकर कोई स्तुति हिंदुओं में प्रचलित या लोकप्रिय हो, इसका प्रमाण नहीं। राम को लला कहा जाता है ‘रामलला नहछू’ में। लला और लली, नायक और नायिका को क्यों और किस समय कहते हैं, यह हिंदी, या अवधी या ब्रज काव्य परंपरा को जाननेवालों को मालूम है। 

रामलला का ज़िक्र इसमें इस प्रकार आता है:

“गावहिं सब रनिवास देहिं प्रभु गारी हो।

रामलला सकुचाहिं देखि महतारी हो।।

हिलिमिलि करत सवाँग सभा रसकेलि हो। 

नाउनि मन हरषाइ सुगंधन मेलि हो ।।१८।।

दूलह कै महतारि देखि मन हरषइ हो।

कोटिन्ह दीन्हेउ दान मेघ जनु बरखइ हो।।

रामलला कर नहछू अति सुख गाइय हो।

जेहि गाये सिधि होइ परम निधि पाइय हो ।।१९।।”

यह क्या राम का शिशु रूप है? यह राम के विवाह का समय है जिसमें कवि उन्हें ‘रामलला’ कहकर संबोधित करता है। तो ‘रामलला’ शिशु नहीं, विवाह के लिए तैयार किशोर है। 

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तो राम के ‘रामलला’ रूप का आविष्कार पूरी तरह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके संगठन ‘विश्व हिंदू परिषद’ का कमाल है। यह अवश्य है कि प्राचीनता को किसी परंपरा के दृढ़ और गहरा होने का प्रमाण मानने वाली धार्मिक हिंदू जनता 40-45 साल में ही ‘रामलला’ को स्वीकार करने लगी और उसे प्राचीन भी मानने लगी। 

जनता के इस विश्वास को, जो कि 40, 45 साल में एक अभियान के ज़रिए निर्मित किया गया, जाँचने की ज़रूरत सर्वोच्च न्यायालय ने नहीं महसूस की। अदालत ने लिखा कि किसी भी समुदाय की आस्था को जाँचने का कोई तरीक़ा किसी अदालत के पास नहीं होता इसलिए वह इसकी कोशिश नहीं करेगी। क्या इसपर अदालत को विचार करना आवश्यक नहीं लगा कि राम के जिस रूप का उल्लेख हिंदू उपासना परंपराओं में कहीं नहीं मिलता, यानी जो स्वरूप नहीं है राम का, उसका अवतरण कब और क्यों हुआ? अदालत ने राम से संबंधित ग्रंथ नहीं पढ़े और न उनसे संबंधित लोकगाथाओं का अवलोकन किया।

5 न्यायाधीशों की पीठ में किसी एक ने परिशिष्ट लिखा जिसमें बिना संकोच के हिंदू आस्था को निर्णय का आधार बतलाया गया। इस परिशिष्ट में कहा गया है कि मस्जिद के निर्माण के बहुत पहले से हिंदू मान्यता थी कि जहाँ बाबरी मस्जिद थी, ठीक वहीं राम का जन्म हुआ था।

इसके लिए किसी प्रमाण की ज़रूरत नहीं महसूस की गई, हालाँकि हास्यास्पद तरीक़े से मस्जिद में नमाज़ पढ़ने का सबूत माँगा गया। लेकिन इस परिशिष्ट में भी रामलला की आराधना की परंपरा का कोई प्रमाण नहीं दिया गया। वह इसलिए कि ऐसा कोई प्रमाण संभवतः है नहीं।

इस फ़ैसले की समीक्षा करते हुए ए जी नूरानी ने लाल कृष्ण आडवाणी को, जिन्होंने ‘मंदिर वहीं बनाएँगे’ का नारा दिया, उद्धृत किया है कि राम के ठीक वहीं पैदा होने का सबूत नहीं मिल सकता। आडवाणी भी रामलला की परंपरा का सबूत नहीं दे सकते थे और न अटल बिहारी वाजपेयी। उन्होंने कहा कि इसकी ज़रूरत नहीं क्योंकि यह हमारा विश्वास है। हमारा यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा गढ़े गए हिंदू का।

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राम भक्ति परंपरा में ‘रामलला’ स्वरूप के तौर पर नहीं हैं। उनका आविष्कार एक राजनीतिक मक़सद से किया गया जिसे अप्रत्यक्ष रूप से आडवाणी, सुषमा स्वराज और अरुण जेटली ने स्वीकार किया था।

‘दीनदयाला’, ’कृपाला’,  ’कौसल्या हितकारी’ राम को रामलला बनाकर ख़ुद जो उनके अभिभावक और उनके हितों के संरक्षक बन बैठे हैं, जो बालक राम की उँगली पकड़ कर उन्हें उनके ‘जन्मस्थान’ ले जाने का दंभ कर रहे हैं, वे क्या हिंदुओं पर पूरी तरह क़ब्ज़ा कर चुके हैं?

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अपूर्वानंद
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