आज के भारतीय समाज में जैसे-जैसे राजनीति और नौकरशाही की ओर से विकास के नारे को आक्रामक लहजे के साथ पेश किया जा रहा है वैसे-वैसे एक समांतर विमर्श भी सामने आ रहा है और मुखरित भी हो रहा है। और वो समांतर विमर्श है प्रकृति और पर्यावरण को बचाने का। कला की हर विधा में भी इन दिनों प्रकृति केंद्रित विचारों, कृतियों और नाट्य प्रस्तुतियों की संख्या भी बढ़ रही है। और न सिर्फ़ भारतीय समाज में बल्कि विश्व स्तर पर इस तरह के सामाजिक आंदोलन उभर रहे हैं जिनमें `किसका विकास और कैसा विकास’ जैसे प्रश्न उठ रहे हैं। क्या प्रकृति का विनाश कर आदमी अपने भविष्य को बचा पाएगा? किंतु एक ओर प्रकृति का विनाश जारी है तो दूसरी ओर उसे संरक्षित करने का अभियान भी चल रहे हैं और विकास के नारे के पीछे जो असली मंसूबें हैं वो भी, आहिस्ता आहिस्ता ही सही, उजागर हो रहे हैं।
पिछले हफ्ते राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय और दिल्ली पर्यटन की ओर से गांधी स्मृति और दर्शन समिति, राजघाट में हुए बाल नाटकों के समारोह में एक ऐसा नाटक था जो `विकास बनाम संरक्षण’ वाली बहस को आगे बढ़ाने वाला था। नाटक का नाम था `जंगल में बाघ नाचा’। वैसे बाघ नाचता नहीं है। वो तो अपने शिकार पर झपट्टा मारता है। खासकर जंगली जानवरों पर। लेकिन कल्पना की दुनिया में ऐसा हो सकता है कि बाघ भी नाचे। और इस नाटक में ये विश्वसनीय भी लगा क्योंकि बाघ भी प्रकृति का हिस्सा है और वो भी अपने को बचाने का कुछ तो यत्न करेगा। जब जंगल नहीं बचेंगे तो बाघ का क्या होगा?
`जंगल में बाघ नाचा’ पर्यावरणविद और संस्कृतिकर्मी सुरेश नौटियाल का लिखा नाटक है और इसे निर्देशित किया युवा रंगकर्मी हिम्मत सिंह नेगी ने। इस नाटक का मुख्तसर किस्सा ये है कि हिमालय के गढ़वाल इलाके के एक गांव डांडापानी गांव और उसके के आस पास के जंगल पर कॉरपोरेट ताक़तों की नज़र है और वे विकास के नाम पर यहां के निवासियों की बेदखली चाहते हैं। मगर जब आदमी उजड़ेंगे तो जंगल में रहनेवाले प्राणी कहां जाएंगे? उनका आशियाना भी उजड़ जाएगा। इसलिए गांव के निवासियों के साथ जंगल के भीतर रहनेवाले प्राणी भी एक साथ मिलकर संयुक्त मोर्चा बनाते हैं। यानी बंदर, हिरण, हाथी, खरगोश जैसे जंतु तो साथ आते ही हैं, जंगल का राजा कहलाने वाला बाघ भी इस मनुष्य और वन जंतु के इसे संयुक्त मोर्चे में शामिल हो जाता है। और फिर क्या? कॉरपोरेट ताकतों को भागना पड़ता है और जंगल नष्ट होने से बच जाता है। नृत्य, गीत और संगीत से भरे इस नाटक में कई उम्र के कलाकार थे। बड़े भी और बच्चे भी।
बाल रंगमंच की मुख्य रूप से दो धाराएं हैं। एक वो जिसमें सिर्फ बच्चे ही अभिनय करते हैं। निर्देशक कोई युवा या प्रौढ़ हो सकता, सकती है। दूसरी धारा वो है जिसमें उम्रदराज भी बतौर अभिनेता मंच पर उतरते हैं।
`जंगल में बाघ नाचा’ में दोनों ही प्रक्रियाओं का मिश्रण था। साथ ही इसकी संगीत की टोली बहुत प्रभावशाली थी। निर्देशक हिम्मत सिंह नेगी ने जिस सरलता के साथ एक जटिल विषय को पेश किया वो प्रशंसनीय रहा। नाटक की ये भी एक खूबी रही कि सिर्फ गांव या एक खास जंगल को बचाने की बात नहीं की गई बल्कि देश की पूरे हिमालय के पर्यावरण की बात भी गई।
हिमालय या ये कहें पूरा हिमालय क्षेत्र पिछले कुछ बरसों से पर्यावरण के भयावह संकट से गुजर रहा है। उत्तराखंड पिछले कुछ बरसों से कुछ बड़ी त्रासदियों से गुजरा है। बाढ़ और जलप्लावन के बड़े हादसे हुए हैं और आशंकाएं ये भी जताई जा रही हैं कि और भी बड़े हादसे हो सकते हैं। पर न राज्य सरकार और न केंद्र सरकार इस दिशा में बहुत कुछ सकारात्मक सोच या कर पा रही हैं। इसलिए मामला सिर्फ एक गांव या किसी एक जंगल को बचाने का नहीं है। धीरे-धीरे मामला पूरे हिमालय क्षेत्र को बचाने का होता जा रहा है। इसलिए रंगमंच और नाटक जैसे सांस्कृतिक कर्म की ये जिम्मेदारी भी बनती है कि उन आशंकाओं के प्रति भी समाज को जागरूक और सचेत करे जो जंगल को खत्म होने को लेकर है, जल और वायु के प्रदूषित होने को लेकर है और ग्रामीण आबादी के अस्तित्व को लेकर है।
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