आत्म चिंतन की बजाय मायावती मुसलमानों से नाराज
लोकसभा नतीजों पर बसपा प्रमुख मायावती ने बुधवार को अपनी टिप्पणी की। उन्होंने अपना गुस्सा यूपी के मुसलमान मतदाताओं पर उतारा। उन्होंने एक्स पर अपनी पार्टी का प्रेस नोट जारी करके यह बात कही। मायावती ने कहा- ''मुस्लिम समाज पिछले चुनावों और इस बार लोकसभा आम चुनाव में भी उचित प्रतिनिधित्व दिए जाने के बावजूद बसपा को ठीक से समझ नहीं पा रहा है। पार्टी अब काफी सोच-विचार के बाद उन्हें चुनाव में मौका देगी ताकि भविष्य में पार्टी को इस बार की तरह भारी नुकसान न उठाना पड़े।''05-06-2024-BSP PRESS NOTE- LOK SABHA POLL RESULT REACTION pic.twitter.com/iUYELFPnCM
— Mayawati (@Mayawati) June 5, 2024
मायावती की प्रतिक्रिया से साफ हो गया है कि वो पार्टी की हार के लिए मुसलमानों को जिम्मेदार ठहराना चाहती हैं। 2022 के विधानसभा चुनाव बाद भी उन्होंने ऐसा ही किया था जब बसपा का सिर्फ एक प्रत्याशी जीता। उस समय भी उन्होंने मुसलमानों को जिम्मेदार ठहराया था। लेकिन लोकसभा में फिर 35 मुस्लिम प्रत्याशी उतार दिए। मायावती को खुद सोचना चाहिए कि वो ऐसा क्यों कर रही है।
यह हैरान कर देना वाला तथ्य है कि 2019 के आम चुनाव में यह यूपी की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी थी और इसे 19% प्रतिशत से अधिक वोट मिले थे। इन्हें बसपा और मायावती के वफादार वोटर माना गया और उन्होंने यूपी की चुनावी राजनीति में मायावती और बसपा की प्रासंगिकता बनाए रखी। वही वोट प्रतिशत अब खिसक कर 9.39% पर आ गया। वफादार वोटर सपा और कांग्रेस में चला गया। यह मायावती की आंखों के सामने हुआ।
भाजपा की बी टीम
एक बार किसी भी पार्टी पर दूसरी पार्टी की छिप कर मदद करने का लेबल लग जाए तो उस दाग को छुड़ाना मुश्किल होता है। राजनीतिक विरोधियों ने विभिन्न मुद्दों पर मायावती के सार्वजनिक रुख के आधार पर बसपा को भाजपा की 'बी' टीम के रूप में भी ब्रांड कर दिया। हाल ही में हुए राज्यसभा चुनाव में उनके एकमात्र विधायक उमा शंकर सिंह ने बीजेपी को वोट दिया और उसी से आरोपों पर मुहर लग गई। भाजपा ने खुलकर साम्प्रदायिक राजनीति की, पीएम मोदी के बयान आए लेकिन बसपा और मायावती ने उसकी निन्दा तक नहीं की। मायावती गठबंधन की राजनीति से अच्छी तरह वाकिफ हैं लेकिन ऐसी कौन सी मजबूरी थी, जिसने उन्हें 2024 में दूसरे दल या दलों से गठबंधन करने को रोका।बसपा का मुख्य दलित वोट बैंक यूपी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। क्योंकि यूपी से 80 सांसद लोकसभा में जाते हैं। हर लोकसभा क्षेत्र में दलित वोट हैं। यूपी के कुल मतदाताओं में 20 प्रतिशत से अधिक दलित वोट हैं। यही वजह है कि भाजपा दलित नेता बेबी रानी मौर्य को राज्य में वरिष्ठ मंत्री बनाकर दलितों का दिल जीतने की कोशिश करती रहती है। अखिलेश यादव ने मायावती के राजनीतिक प्रभाव को कम करने के लिए तमाम दलित प्रत्याशी इस बार उतार दिए। नगीना में चंद्र शेखर आज़ाद "रावण" सपा की मदद से ही जीत सके हैं। यही चंद्रशेखर बार-बार बसपा और मायावती के दरवाजे पर एंट्री के लिए दस्तक देते रहे लेकिन मायावती ने चंद्रशेखर को हमेशा खारिज किया।
जिस तरह बसपा को इस बार कुल 9.39% वोट मिले तो दूसरी तरफ कांग्रेस को भी 9.48% वोट मिले, उसने सपा के साथ 17 सीटों पर चुनाव लड़ा और सात सीटें झटक लीं। बसपा ने 2022 के यूपी विधानसभा चुनावों में भी यही गलती की थी। बिना गठबंधन चुनाव लड़ा और सिर्फ एक बसपा उम्मीदवार जीत हासिल कर पाया था। बसपा के मुकाबले सपा का प्रदर्शन ज्यादा बेहतर था। यानी मायावती ने गठबंधन के महत्व को समझा ही नहीं या फिर उसे तमाम मजबूरियों के चलते महत्व नहीं दिया।
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