बनारस हिंदू विश्वविद्यालय यानी बीएचयू फिर विवादों में है। इस बार विवाद है बीएचयू के संस्कृत फ़ैकल्टी में एक मुसलिम फ़िरोज़ के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर नियुक्त किए जाने का। कुछ छात्र उनके मुसलिम होने के कारण विरोध कर रहे हैं और उनको हटाए जाने की माँग कर रहे हैं। पिछले हफ़्ते ही कुछ छात्रों ने विश्वविद्यालय परिसर में कुलपति के आवास के बाहर प्रदर्शन किया। ऐसे में सवाल है कि क्या संस्कृत भाषा किसी ख़ास मज़हब या जाति का व्यक्ति ही पढ़ा सकता है? क्या उन्हें फ़िरोज़ की योग्यता से जुड़ी कोई आपत्ति है?
फ़िरोज़ से ऐसी कोई आपत्ति कैसे हो सकती है जब बीएचयू प्रशासन ने साफ़ कर दिया है कि वह नियमों के तहत चुने गए हैं। यही नहीं, फ़िरोज़ राजस्थान में संस्कृत युवा प्रतिभा सम्मान से सम्मानित हैं। तीन साल तक संस्कृत के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर रहे हैं। दूसरी कक्षा से संस्कृत स्कूल में पढ़ते रहे। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, फ़िरोज़ कहते हैं कि जब शास्त्री यानी स्नातक की पढ़ाई कर रहे थे तब वह उस कैंपस में एकमात्र मुसलिम छात्र थे, लेकिन उनके मुसलिम होने पर आपत्ति किसी ने नहीं की थी।
छात्रों की आपत्ति क्या?
छात्रों का आरोप है कि संस्कृत पढ़ाने के लिए जिस शिक्षक की नियुक्ति की गई है वह नियमों के मुताबिक़ नहीं है। संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान (एसवीडीवी) संकाय के छात्र अपने तर्कों के समर्थन में एक शिलापट्ट का हवाला दे रहे हैं। संस्कृत विभाग के बाहर लगे शिलापट्ट का उल्लेख करते हुए छात्रों ने कहा कि उस पर साफ़ लिखा हुआ है कि किसी भी ग़ैर-हिन्दू धर्म के व्यक्ति का उस संस्थान में प्रवेश वर्जित है।
प्रदर्शनकारियों ने बीएचयू के कुलपति राकेश भटनागर को लिखे पत्र में विश्वविद्यालय के संस्थापक दिवंगत पंडित मदन मोहन मालवीय का ज़िक्र करते हुए दावा किया है कि ‘संकाय के बाहर लगे शिलापट्ट में लिखा है कि यह संस्था सांस्कृतिक, धार्मिक, ऐतिहासिक बहस और सनातन हिंदुओं और उनकी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष शाखाओं जैसे आर्य समाज, बौद्ध, जैन, सिख आदि के लिए है।’
रिपोर्ट के अनुसार, प्रदर्शन करने वालों ने कहा कि इन सभी तथ्यों को जानने के बावजूद, एक 'ग़ैर-हिंदू' को नियुक्त किया गया है, जो एक साज़िश लगती है। उनका आरोप है कि चूँकि नई नियुक्ति संस्था की आत्मा और भावना के ख़िलाफ़ है, इसलिए इसे तुरंत रद्द कर दिया जाना चाहिए।
नियुक्ति नियमों के अनुसार: प्रशासन
बीएचयू प्रशासन का कहना है कि इस पोस्ट के लिए सबसे योग्य उम्मीदवार फ़िरोज़ ही थे। इसने साफ़ किया है कि उनकी नियुक्ति विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यानी यूजीसी के नियमों और बीएचयू अधिनियम के अनुसार पारदर्शी तरीक़े से उम्मीदवार की पात्रता के आधार पर की गई है।
‘आउटलुक’ एक की एक रिपोर्ट के अनुसार, बीएचयू के प्रवक्ता राजेश सिंह ने कहा, ‘नियुक्ति संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय के साहित्य विभाग में इंटरव्यू के बाद की गई है। विश्वविद्यालय ने नियुक्ति यूजीसी के नियमों और बीएचयू अधिनियम के अनुसार की है। जाति और पंथ के आधार पर भेदभाव का कोई स्थान नहीं है। नियुक्ति पूरी पारदर्शिता के साथ और केवल उम्मीदवार की पात्रता के आधार पर की गई है।’
संस्कृत से विशेष जुड़ाव रहा है फ़िरोज़ का
प्रदर्शन करने वाले इन छात्रों के आरोपों को विश्वविद्यालय परिसर ने ख़ारिज़ कर दिया है और सबसे योग्य बताया है तो यह यूँ ही नहीं है। दरअसल, फ़िरोज़ का संस्कृत से काफ़ी गहरा जुड़ाव रहा है। वह जयपुर के पास बगरू नगर में सरकारी संस्कृत स्कूल में पढ़े। 'हिंदुस्तान टाइम्स' की रिपोर्ट के अनुसार, फ़िरोज़ कहते हैं कि जयपुर में राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान में पढ़ने के दौरान संस्कृत नाटक का प्रदर्शन करने के लिए उन्होंने अपने दोस्तों के साथ मिलकर एक थिएटर ग्रुप 'युवा तरंग' भी बनाया था। उन्होंने कहा, 'हम लोग जयपुर, नागपुर, जोधपुर और भरतपुर में भी प्रदर्शन कर चुके हैं।' संस्कृत दिवस के अवसर पर राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने उन्हें संस्कृत युवा प्रतिभा सम्मान दिया था।
रिपोर्ट के अनुसार, फ़िरोज़ कहते हैं कि उनके पिता रमज़ान ख़ान भजन गाते हैं और वह गायों की सुरक्षा और संरक्षण वाले भजन गाने के लिए काफ़ी प्रसिद्ध हैं। वह कहते हैं कि उनके दो भाई भी संगीत से जुड़े हैं। फ़िरोज़ यह भी कहते हैं कि अब तक किसी ने मुसलिम होने के कारण संस्कृत पढ़ने या पढ़ाने पर आपत्ति नहीं की थी, लेकिन उनके साथ अब ऐसा हो रहा है।
अब सवाल है कि यदि भाषाओं को किसी ख़ास मज़हब और जाति से जोड़ दिया जाएगा तो अँग्रेज़ी, हिंदी, बंगाली, मराठी, फ़्रेंच या दूसरी किसी भाषा को कैसे पढ़ा और पढ़ाया जाएगा? ऐसे में क्या वह भाषा तरक्की कर पाएगी? माना जाता है कि संस्कृत जिस तरह से आज सिकुड़ती जा रही है उसमें ऐसे दक़ियानूसी विचारों का भी बहुत बड़ा हाथ है।
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