देश में जातीय जनगणना की जोर पकड़ती मांग के बीच बीएसपी प्रमुख मायावती ने भी अपने पत्ते खोल दिए हैं। मायावती ने शुक्रवार को कहा है कि अगर केंद्र की सरकार ओबीसी समुदाय की अलग से जनगणना कराने की दिशा में कोई सकारात्मक कदम उठाती है तो फिर बीएसपी इसका संसद के अंदर व बाहर भी ज़रूर समर्थन करेगी।
मायावती ने अपनी बात को और ज़्यादा साफ करते हुए कहा है कि देश में ओबीसी समुदाय की अलग से जनगणना कराने की मांग बीएसपी शुरू से ही करती रही है और वह इस पर कायम है।
बीते दिनों में ओबीसी समुदाय के तमाम नेताओं ने जातीय जनगणना की मांग को लेकर केंद्र सरकार पर दबाव बनाया है और इसमें धुर विरोधी नीतीश कुमार से लेकर तेजस्वी यादव तक साथ दिखाई दिए हैं।
मायावती के ओबीसी समुदाय के लिए अलग से जनगणना कराने की मांग को इतनी मज़बूती से उठाने का क्या मतलब निकलता है। वह यह क़दम उठाने पर केंद्र सरकार का भी खुलकर समर्थन करने का वादा कर चुकी हैं। क्या मायावती को यह लगता है कि ओबीसी समुदाय के हक़ में आवाज़ उठाकर और इसी बहाने बीजेपी के साथ सियासी जुगलबंदी कर वह उत्तर प्रदेश में पस्त पड़ चुके हाथी को फिर से खड़ा कर सकती हैं।
नरम रहने के आरोप
बीते कुछ सालों में मायावती पर लगातार यह आरोप लगता रहा है कि वह बीजेपी के प्रति काफी नरम रही हैं। इसके लिए उन पर कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा तक हमला बोल चुकी हैं। मायावती पर आरोप लगता है कि उन्होंने बीते साढ़े चाल में योगी सरकार के ख़िलाफ़ अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को मैदान में नहीं उतारा।
2022 का चुनाव है अहम
मायावती जानती हैं कि बीएसपी के सियासी भविष्य के लिए उत्तर प्रदेश का 2022 का चुनाव कितना अहम है। पिछले तीन चुनाव जिनमें 2014 का लोकसभा चुनाव, 2017 का विधानसभा चुनाव और 2019 का लोकसभा चुनाव शामिल है, इन तीनों चुनाव में उनकी सियासी हैसियत घटती गई है। 2019 में उन्होंने एसपी-आरएलडी के साथ गठबंधन कर भले ही 10 सीटें जीत लीं लेकिन उत्तर प्रदेश के अदंर तमाम बड़े नेता उनका साथ छोड़ते गए हैं।
लालजी वर्मा, राम अचल राजभर, नसीमुद्दीन सिद्दीकी सहित कई ऐसे बड़े नाम जो बीएसपी के मजबूत स्तंभ थे, वे पार्टी का साथ छोड़कर जा चुके हैं। बीएसपी को 2017 के विधानसभा चुनाव में 19 सीटों पर जीत मिली थी लेकिन आज उसके पास सिर्फ़ 7 विधायक बचे हैं।
बीएसपी का ख़राब वक़्त
निश्चित रूप से मायावती इस वक़्त सियासत में बड़ी मजबूरी का सामना कर रही हैं और ऐसे में वह एक बार फिर से अपने उस दलित-ब्राह्मण समीकरण पर काम कर रही हैं, जिसने उन्हें 2007 में सूबे की मुख्यमंत्री बनाया था। इसके साथ ही वह ओबीसी समुदाय को भी जोड़ना चाहती हैं और अगर बीजेपी ओबीसी समुदाय के लिए अलग से जनगणना कराती है, तो फिर मायावती अप्रत्यक्ष रूप से बीजेपी के सहारे अपनी डूब रही सियासी नैया को भी सहारा दे सकती हैं।
यह बात साफ है कि उत्तर प्रदेश में कई बार मुख्यमंत्री का पद संभाल चुकीं मायावती ने फिर से अपनी खोई हुई राजनीतिक ताक़त हासिल करने के मक़सद से ही ओबीसी समुदाय की अलग से जनगणना कराने का दांव खेला है।
गठबंधन करती रही है बीएसपी
ऐसा भी नहीं है कि बीएसपी बिना गठबंधन के ही राजनीति करती रही हो। वह बीजेपी के साथ दो बार गठबंधन करके उत्तर प्रदेश में सरकार चला चुकी है। वह 1996 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ गठबंधन कर चुकी है। वह 2019 के लोकसभा चुनाव में एसपी के साथ भी गठबंधन कर चुकी है। बीएसपी को बड़ी कामयाबी तब मिली थी, जब उसने 2007 में अकेले दम पर उत्तर प्रदेश में सरकार बनाई थी।
लेकिन उसके बाद से ही मायावती की राजनीतिक ताक़त लगातार कम होती जा रही है और ऐसे में इस बड़ी दलित नेत्री को राजनीतिक सहारे की सख़्त ज़रूरत है।
पुरानी है मांग
ओबीसी समुदाय की अलग से जनगणना का मसला कोई नया नहीं है। समाजवाद के प्रखर चिंतक रहे राम मनोहर लोहिया ने भी पिछड़ों के हक़ की लड़ाई जोरदार ढंग से लड़ी थी और नारा दिया था- पिछड़े पावें सौ में साठ। देश में ओबीसी समुदाय की आबादी पचपन से साठ फ़ीसदी मानी जाती है और कहा जाता है कि इस समुदाय की जातियों को अभी तक उनकी आबादी के हिसाब से आरक्षण नहीं मिला है।
यह मुद्दा सामाजिक न्याय से भी जुड़ा है, इसलिए ही मंडल कमीशन के द्वारा इन ओबीसी जातियों को 27 फ़ीसदी आरक्षण दिया गया है। लेकिन इस समुदाय की मांग है कि उसे उसकी आबादी के हिसाब से हिस्सेदारी मिलनी चाहिए, जिसका देश के बुद्धिजीवी और राजनीतिक विश्लेषक समर्थन भी करते हैं।
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