अयोध्या में सरयू नदी में 28 साल में कितना पानी बह गया, इसका अंदाज़ा तो नहीं लगाया जा सकता, लेकिन नदी में अक्सर कुछ कंकर–पत्थर नीचे रह जाते हैं और वे कभी नहीं जाते ज़मीन छोड़कर, नदी में उतरने वालों के पाँव तले चुभते हैं, महसूस होते हैं। कुछ को तकलीफ़ देते हैं तो कुछ को गुदगुदी का अहसास कराते हैं, लेकिन साथ नहीं छोड़ते। अयोध्या में बाबरी मसजिद ढाँचा का गिरना भी वैसा ही कुछ है।
बीते सालों में अयोध्या में बहुत कुछ बदल गया है। सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले ने नई शुरुआत कर दी है। राम जन्मभूमि पर मंदिर निर्माण का काम शुरू हो गया है, मगर 6 दिसम्बर 1992 को इतिहास से मिटाया नहीं जा सकता।
रोज़ाना सुनवाई
बाबरी मसजिद विवाद को ‘मुक्कमिल इंसाफ’ तक पहुँचाने के लिए ऐतिहासिक तौर पर संविधान के अनुच्छेद 142 का इस्तेमाल किया और अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए उत्तर प्रदेश सरकार को मामले की सुनवाई कर रहे विशेष न्यायाधीश सुरेन्द्र यादव को नहीं हटाने , उनका तबादला नहीं करने और रिटायर होने पर भी रोक लगा दी। अदालत ने यादव को कहा कि वे मामले की रोज़ाना सुनवाई करें और ज़रूरी कारणों से सुनवाई टाले जाने पर उसका लिखित उल्लेख भी करें।
जज सुरेन्द्र यादव का भी अयोध्या से ख़ास रिश्ता लगता है। राज्य न्यायिक सेवा के इस अधिकारी की पहली पोस्टिंग फैज़ाबाद में हुई। फिर एडिशनल डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के तौर पर पहला प्रमोशन भी फैज़ाबाद में हुआ और अब आखिरी फ़ैसला सुनाने का मौका भी उन्हें अयोध्या प्रकरण के विशेष न्यायाधीश के तौर पर मिला। यदि वे इस स्पेशल कोर्ट में नहीं होते तो पिछले साल सितम्बर में रिटायर भी हो गए होते। सुरेन्द्र यादव ने 2 सितम्बर को यह फैसला लिखाने का काम शुरू किया। सीबीआई ने इस मामले में अपने पक्ष में 351 गवाह और 600 दस्तावेज़ पेश किए।
क़ानूनी लड़ाई
नवम्बर 2019 में रामजन्मभूमि पर फ़ैसला दे कर देश की सर्वोच्च अदालत ने एक बड़ी क़ानूनी लड़ाई को तो ख़त्म कर दिया, लेकिन ढाँचा गिरने का मामला नतीजे तक नहीं पहुंचा था। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद ही उस नतीजे के करीब पहुँच गए। बाबरी मसजिद का ढाँचा कैसे गिरा, किसने गिराया इस सब पर बहुत बहस हो चुकी है, अदालत में भी और अदालत के बाहर भी।
बहुत से लोग सवाल करते हैं कि बाबरी मसजिद ढाँचा गिरने की शुरुआत कब हुई ? क्या 22-23 दिसम्बर 1949 की दरमियानी रात को, जब वहाँ मूर्तियाँ रखी गईं और एक नया आन्दोलन और क़ानूनी दाँवपेच शुरू हुए।
या 1 फरवरी 1986 को जब कांग्रेस सरकार ने अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण के बाद हिन्दुओं को खुश करने के लिए ताला खुलवा दिया। या 25 सितम्बर 1990 को, जब बीजेपी के दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी सोमनाथ से अयोध्या की रथयात्रा पर हिन्दू ह्रदय सम्राट बनने का सपना लेकर निकले और 23 अक्टूबर को बिहार में गिरफ़्तार होने से उनके सपनों को पंख लग गए । या फिर आख़िर 6 दिसम्बर 1992 को हज़ारों कारसेवकों के अयोध्या में जमावड़े और मंच पर बैठे नेताओं के भाषणों के बाद।
आडवाणी ने क्या कहा?
बताया जाता है कि लालकृष्ण आडवाणी ने स्पेशल कोर्ट में अपने बयान में खुद के शामिल होने से इनकार किया है और इसे एक राजनीतिक साज़िश बताया है। वैसे इससे पहले भी आडवाणी बहुत बार ना केवल खुद की भूमिका से इनकार कर चुके हैं बल्कि 6 दिसम्बर1992 को अपने जीवन का सबसे दुखद दिन भी बताया है।
आडवाणी के इस बयान से उस आन्दोलन में शामिल होने वाले ज़्यादातर लोगों ने नाराज़गी ज़ाहिर की है, इसमें उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह और उमा भारती शामिल हैं।
सज़ा काटने को तैयार उमा
उमा भारती ने तो कहा है कि वो कोई भी सजा काटने को तैयार हैं। कल्याण सिंह ने भी कभी खुद की ज़िम्मेदारी से बचने की कोशिश नहीं की है, बल्कि सुप्रीम कोर्ट की वादाख़िलाफ़ी को लेकर उन्होंने सज़ा भी काटी और अफ़सरों के लिए कहा कि मुख्यमंत्री के तौर पर उन्होंने कारसेवकों पर गोली नहीं चलाने के आदेश दिए थे।
दो एफ़आईआर
आडवाणी को तो एक बार रायबरेली कोर्ट ने आरोपों से मुक्त भी कर दिया था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद यह मामला फिर शुरू हुआ। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर लखनऊ की विशेष कोर्ट में यह मामला 6 दिसम्बर 1992 को दर्ज हुए दो एफआईआर 197/92 और 198/92 को लेकर है।
पहली एफआईआर लाखों अनाम कार सेवकों के ख़िलाफ़ है जबकि दूसरी में लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, कल्याण सिंह समेत कुल 49 लोग हैं जिन्हें सीबीआई ने अभियुक्त बनाया।
इनमें से 17 लोगों की मौत हो चुकी है जिनमें विश्व हिन्दू परिषद के अशोक सिंहल, विष्णु हरि डालमिया, गिरिराज किशोर और बाल ठाकरे भी शामिल हैं।
कौन ज़िम्मेदार?
रामजन्मभूमि मामले में नवम्बर 2019 में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले में अदालत ने कहा था कि 70 साल पहले 450 साल पुरानी बाबरी मसजिद में मुसलमानों को इबादत करने से ग़लत तरीके से रोका गया और 27 साल पहले मसजिद गैर-क़ानूनी तरीके से गिरा दी गई।
कुछ लोगों का कहना है कि इस मामले में हर बार बीजेपी को कटघरे में खड़ा करना और कांग्रेस को क्लीन चिट देना वाजिब नहीं है क्योंकि 1949, 1986 और 1992 तीनों ही बड़ी घटनाओं के वक्त केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी। 1949 में नेहरू, 1986 में राजीव गांधी और 1992 में नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री थे।
1993 में चार्जशीट
ढाँचा गिराने के मामले में सीबीआई ने अक्टूबर 1993 को चार्जशीट दायर की थी। इसमें बाल ठाकरे, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, ब्रज भूषण शरण सिंह, कल्याण सिंह, अशोक सिंहल, उमा भारती, विनय कटियार, साध्वी ऋतम्भरा, आचार्य गिरिराज किशोर, शिव सैनिक पवन पांडेय, अयोध्या के डीएम आर. एस. श्रीवास्तव और एसएसपी डी. बी. राय का नाम शामिल था।
इस चार्जशीट में आडवाणी पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने कहा कि कारसेवा होगी। कारसेवा का मतलब भजन कीर्तन से नहीं है, मंदिर निर्माण किया जाएगा। डॉ. मुरली मनोहर जोशी के लिए सीबीआई ने लिखा कि जोशी अयोध्या के रास्ते में 1 दिसम्बर को मथुरा में थे, जहां उन्होंने कारसेवकों से कहा कि कोई ताक़त मंदिर निर्माण से नहीं रोक सकती। जोशी कारसेवकों को भड़का रहे थे।
उत्तरप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह पर सीबीआई ने कहा कि कल्याण सिंह ने 24 जून 1991 को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी।
कल्याण सिंह शपथ ग्रहण के बाद डॉ. जोशी, अपने मंत्रिमंडल के सदस्यों, विधायकों और बीजेपी नेताओं के साथ अयोध्या पहुंचे थे और मंदिर निर्माण की शपथ ली थी। कल्याण सिंह ने कहा कि उनके कार्यकाल में मंदिर निर्माण होकर रहेगा।
साध्वी उमा भारती 6 दिसम्बर को अयोध्या में मंच पर मौजूद थी और भड़काऊ नारे लगवा रही थीं। सीबीआई ने उन नारों का ज़िक्र भी किया जो उमा भारती कारसेवकों से लगवा रही थीं। फिर दो साल की जांच के बाद 11 जनवरी 1996 को सीबीआई ने लखनऊ कोर्ट में सप्लीमेंट्री चार्जशीट दायर की।
इसमें सात नाम और जोड़े गए,राम विलास वेदांती, धर्मदास, नृत्यगोपाल दास, जगदीश मुनि महाराज, बैंकुठ लाल शर्मा, परमहंस रामचन्द्र, विजयाराजे सिंधिया और सतीश कुमार। सीबीआई ने इस घटना को योजनाबद्ध और बड़ी साज़िश का हिस्सा बताया। सीबीआई की चार्जशीट में महंत नृत्यगोपालदास और चंपत राय का नाम भी है जो इस वक्त रामजन्मभूमि तीर्थ ट्र्स्ट में शामिल हैं। इस पर 1997 में लखनऊ कोर्ट ने 48 लोगों के ख़िलाफ़ आरोप तय करने के आदेश दिए,इनमें से 33 ने इसे इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी।
चार साल की चुप्पी
फिर चार साल तक कुछ नहीं हुआ। 12 फरवरी 2001 को हाइकोर्ट ने कहा कि विशेष जज को इस मामले की सुनवाई का अधिकार नहीं और 198/92 पर दिए आदेश को ग़लत बताया।
लालकृष्ण आडवाणी केन्द्रीय गृहमंत्री और उप-प्रधानमंत्री थे जब 19 सितम्बर 2003 को सीबीआई की विशेष अदालत के विशेष ज्यूडिशियेल मजिस्ट्रेट विमल कुमार सिंह ने उन्हें सभी आरोपों से बरी कर दिया।
इसी आधार पर मुरली मनोहर जोशी ने 10 अक्टूबर 2003 को हाइकोर्ट में अपने मामले पर पुनर्विचार करने की मांग की।
दो साल बाद 6 जुलाई 2005 को इलाहाबाद हाइकोर्ट ने आडवाणी पर फिर से आरोप तय करने के आदेश दिए। इस पर 28 जुलाई 2005 को विशेष ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट विनोद सिंह ने आडवाणी पर साम्प्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने के आरोप तय किए। साल 2010 में हाइकोर्ट में दायर सीबीआई की पुनर्विचार याचिका खारिज़ हो गई और सभी पर आरोप रद्द हो गए।साल 2010 तक रायबरेली और लखनऊ कोर्ट में अलग अलग सुनवाई हो रही थी।
इस मसले में महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब 19 अप्रैल 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने आदेश जारी किया कि आडवाणी और दूसरों पर आपराधिक साज़िश का आरोप तय किया जाए और कोर्ट दो साल में मामले की सुनवाई पूरी करे।
फिर 19 जुलाई 2019 को छह महीने में सभी गवाहों और आरोपियों के बयान दर्ज करने का आदेश हुआ। सर्वोच्च अदालत के आदेश पर ही आखिर में 30 सितम्बर तक फ़ैसला सुनाने को कहा गया।
बीजेपी का रुख
बीजेपी में बहुत से लोग कहते हैं कि केन्द्र या उत्तर प्रदेश की सरकार चाहती तो अपने नेताओं पर से इन मामलों को रद्द कर सकती थी, लेकिन ऐसा नहीं किया गया ताकि यह दावा किया जा सके कि पार्टी क़ानून व्यवस्था में विश्वास करती हैं।
इस मामले में शामिल ज़्यादातर नेता अब राजनीतिक अवसान के दौर में हैं। कुछ मार्गदर्शक मंडल में हैं तो कुछ हाशिए पर, यानी बीजेपी के राजनीतिक भविष्य पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला।
बहुत से लोग मानते हैं कि राम मंदिर आंदोलन मंदिर निर्माण के लिए नहीं हिन्दू विचारधारा को मजबूत करने और आगे बढ़ाने के लिए था और उस रास्ते पर यह रथ तेज़ रफ़्तार से दौड़ने लगा है,भले ही सारथी और नायक के चेहरे बदल गए हों।
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