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यूपी में बीजेपी की मदद करेंगे ओवैसी!

एक तरफ बिहार में उनकी उपस्थिति के कारण महागठबंधन की हार और भाजपा जदयू की सत्ता में वापसी हुई। दूसरी तरफ बंगाल में तृणमूल काँग्रेस के साथ मुसलिम एकजुटता के कारण भाजपा को पराजित करके ममता बनर्जी ने शानदार जीत दर्ज की। इसलिए यूपी में मुसलिम मतदाता चौकन्ना है। दलित, पिछड़े, गरीब, मजदूर, किसान सब भाजपा की योगी सरकार से नाराज हैं। 
रविकान्त

यूपी के आगामी विधानसभा चुनाव में असदुद्दीन ओवैसी ने 100 सीटों पर चुनाव लड़ने का एलान किया है। हालाँकि, ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम का यहाँ कोई विशेष जनाधार नहीं है। लेकिन 18 फ़ीसदी मुसलिम आबादी वाले यूपी में ओवैसी की आमद से कई तरह के सवाल खड़े हो रहे हैं। क्या ओवैसी बीजेपी को फ़ायदा पहुँचाने के लिए आए हैं? क्या ओवैसी बीजेपी की बी टीम हैं? क्या ओवैसी मुसलमानों के वोट काटेंगे? क्या ओवैसी के आने से सेकुलर दल कमजोर होंगे? क्या यूपी के मुसलमान एआईएमआईएम को वोट करेंगे?

राजनीतिक विश्लेषक और सेकुलर दल एआईएमआईएम को वोटकटवा पार्टी मानते हैं। क्या ओवैसी यूपी में मुसलिम वोट में सेंधमारी करने में कामयाब होंगे? दरअसल, ओवैसी और उनकी पार्टी सीधे तौर पर मुसलमानों की राजनीति करती है। वे लगातार मुसलमानों के मुद्दों को उठाते रहे हैं। जिस तरह बीजेपी खुलेआम हिंदू सांप्रदायिक राजनीति करती है, उसी तरह एआईएमआईएम भी पिछले कुछ सालों से मुस्लिम कट्टरता की भाषा बोलती रही है। असदुद्दीन के भाई अकबरुद्दीन ओवैसी पर विभाजनकारी भड़काऊ बयान देने के आरोप हैं।

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1928 में नवाब महमूद नवाज़ खान ने एक सामाजिक धार्मिक संस्था के रूप में मजलिस-ए- इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एमआईएम) की स्थापना की थी। आज़ादी के समय मजलिस हैदराबाद को भारत से अलग रखने की बात करती थी। 1948 में जब हैदराबाद का भारत में विलय हुआ तो भारत सरकार ने इस संगठन को प्रतिबंधित कर दिया और तत्कालीन अध्यक्ष कासिम राजवी को गिरफ्तार कर लिया गया। रिहा होने के बाद राजवी मशहूर वकील अब्दुल वहाद ओवैसी को मजलिस की ज़िम्मेदारी देकर पाकिस्तान चले गए। 1957 में मजलिस को राजनीतिक पार्टी में तब्दील कर दिया गया। इसमें 'ऑल इंडिया' शब्द जोड़ दिया गया और इसका संविधान बदल दिया गया। अब्दुल वहाद ओवैसी के बाद 1976 में उनके बेटे सलाहुद्दीन ओवैसी को पार्टी की बागडोर प्राप्त हुई। वह 1984 से लेकर 2004 तक लगातार 6 बार हैदराबाद के सांसद चुने गए। इसके बाद पार्टी की बागडोर सलाहुद्दीन के बेटे असदुद्दीन ओवैसी ने संभाली।

13 मई 1969 को जन्मे असदुद्दीन ओवैसी ने लंदन से क़ानून की पढ़ाई की। वे वैरिस्टर हैं। ओवैसी बेहतरीन वक्ता ही नहीं बल्कि संविधान और क़ानून के अच्छे जानकार भी हैं। अपने पिता की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाते हुए ओवैसी ने हैदराबाद से 2004 में अपना पहला लोकसभा चुनाव जीता। 2019 में वह लगातार चौथी बार सांसद बने। बीजेपी की बढ़ती हिन्दू सांप्रदायिक राजनीति के बरक्स ओवैसी ने अपनी पार्टी का दायरा बढ़ाने के लिए मुसलिम बहुल सीटों पर प्रत्याशी उतारने की योजना बनाई। 

हैदराबाद से बाहर सबसे पहले ओवैसी ने महाराष्ट्र के मुसलिम बहुल क्षेत्र मराठबाड़ा में अपनी पार्टी के विस्तार की संभावनाएँ तलाशीं। 2014 के तेलंगाना विधान सभा चुनाव में ओवैसी ने 7 सीटें जीतीं। इसी साल मराठबाड़ा में भी उनके दो विधायक चुने गए। पार्टी के दूसरे सांसद पूर्व पत्रकार इम्तियाज जमील 2019 में औरंगाबाद से चुने गए। 

ओवैसी ने मुसलमानों के साथ दलितों को जोड़ने की कोशिश की। इसके लिए उन्होंने महाराष्ट्र में प्रकाश आंबेडकर की पार्टी बीबीए से गठबंधन किया और 'जय भीम, जय मीम' का नारा दिया। उनकी रैलियों में मंच डॉ. आंबेडकर की फोटो से सजा रहता है।

हालाँकि यह गठबंधन अब टूट गया है। इस तरह हैदराबाद तक सीमित एक छोटी सी पार्टी एआईएमआईएम आज राष्ट्रीय फलक पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही है। हालाँकि यह उपस्थिति मीडिया में ज़्यादा है, ज़मीन पर कम।

मीडिया की सुर्खियों में रहने से, ओवैसी और उनकी पार्टी को राजनीतिक फ़ायदा मिलता है। अब सवाल यह है कि एक ओर जहाँ बीएसपी और सपा जैसी बड़े जनाधार वाली क्षेत्रीय पार्टियां सिकुड़ रही हैं, वहीं एआईएमआईएम के विस्तार के क्या कारण हैं? दरअसल, जैसे-जैसे बीजेपी की बहुसंख्यकवादी सांप्रदायिक राजनीति बढ़ रही है, घोषित तौर पर मुसलिमपरस्त राजनीति करने वाली एआईएमआईएम के लिए जगह बन रही है। हिन्दुत्ववादी सांप्रदायिक माहौल के कारण मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा बढ़ी है। जबानी हमलों से लेकर मुसलमानों की मॉब लिंचिंग तक हो रही है। उनके धार्मिक स्थलों को नुक़सान पहुँचाया जा रहा है। दाढ़ी टोपी के कारण सार्वजनिक स्थलों पर उनके साथ बदसलूकी हो रही है। बेखौफ और निर्लज्ज होकर मुसलमानों को पाकिस्तानी बोला जा रहा है। सरकारी स्तर पर भी उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार होता है। इन हालातों में मुसलमानों के भीतर असुरक्षा का बोध दिन ब दिन बढ़ता जा रहा है। ऐसे में विशेष जाति समुदाय की पहचान आधारित राजनीति करने वाली बसपा, राजद और सपा की तरह मुसलमान भी एक ऐसी पार्टी की ज़रूरत महसूस करने लगे हैं, जो खुलकर उनके मुद्दों की राजनीति करे। इसी माहौल में ओवैसी की संभावनाओं को बल मिला है।

asaduddin owaisi aimim to fight up assemble election 2022 - Satya Hindi

ओवैसी की पार्टी के विस्तार का एक कारण और है। दरअसल, हिन्दू बहुसंख्यकवाद की राजनीति के दबाव में आज काँग्रेस, सपा, बसपा, राजद जैसी पार्टियाँ मुसलमानों के मुद्दों पर खामोशी अख्तियार कर लेती हैं। ये पार्टियाँ मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोप से डरती हैं। इस चुनावी रणनीतिक चुप्पी से मुसलिम तबका खफा है। ऐसे में ओवैसी खासकर मुस्लिम नौजवानों की पसंद बन रहे हैं। इसीलिए धीरे-धीरे एआईएमआईएम का समर्थन और जनाधार बढ़ रहा है। लेकिन इसका सीधा फायदा भाजपा को मिल रहा है। भाजपा और संघ ओवैसी के मार्फत मुसलमानों की अलग पहचान, उनकी कौम के प्रति प्रतिबद्धता, उनकी आस्था और अंततः उनकी राष्ट्रीयता पर ही सवाल खड़े करता है। इस तरह हिंदुत्ववादियों के लिए मुसलमानों को विधर्मी और देश विरोधी प्रचारित करके हिंदुओं का ध्रुवीकरण करना आसान हो जाता है। 

कांग्रेस और सपा जैसी सेकुलर पार्टियों पर मुस्लिम तुष्टीकरण के आरोप लगाकर भाजपा लंबे समय से बहुसंख्यकवाद की राजनीति करती रही है। पिछले एक दशक में बीजेपी की इस सांप्रदायिक राजनीति ने झूठ और फरेब को खुलकर परोसा है। मोतीलाल नेहरू को मुसलमान प्रचारित किया गया। मुलायम सिंह को खुलेआम मुल्ला मुलायम कहा गया। इस वजह से इन राजनीतिक दलों ने इस आरोपित छवि से मुक्ति पाने के लिए सॉफ्ट हिंदुत्व को अपनाया। राहुल गांधी गुजरात से लेकर यूपी तक तमाम मंदिरों में गए। अखिलेश यादव ने विष्णु मंदिर बनाने का वादा किया। बीजेपी की हिन्दुत्व की राजनीति के दबाव में सेकुलर नेता अपनी हिंदू पहचान पुख्ता करने लगे। ऐसे में बीजेपी को भी एक ऐसे चेहरे और पार्टी की दरकार थी, जो सीधे तौर पर मुसलमानों की बात करे। 

ओवैसी की टोपी-दाढ़ी वाली छवि, नफीस उर्दू जबान और मुस्लिम परस्त राजनीति ने बीजेपी की मुराद पूरी कर दी। बीजेपी ने ओवैसी की इस छवि को गाढ़ा करके हिंदू जनमानस में उभारा।

2019 के लोकसभा में चुने हुए सदस्यों के शपथ लेने के अवसर पर संसद में ओवैसी पर फब्तियां कसी गईं। उनके खड़े होते ही जय श्रीराम के नारे लगाए गए। उन्हें हूट किया गया। दरअसल, यह सब उस मुस्लिम छवि को हिंदुओं की आंखों में चुभाने और सांप्रदायिक मन को सहलाने के लिए किया गया था। ओवैसी की प्रतिक्रिया भी गौरतलब है। शपथ लेने के बाद उन्होंने 'जय भीम, जय मीम' के नारे के साथ 'अल्ला हू अकबर' से अपना वक्तव्य समाप्त किया। जवाहरलाल नेहरू, अबुल कलाम आज़ाद, पटेल और आंबेडकर वाली संसद में उस दिन सांप्रदायिक विभाजन का नजारा दिखाई दिया। भारतीय संविधान की आत्मा को तार तार करते हुए तमाम चुने हुए सांसद धर्म, पंथ, ईश्वर, खुदा, देवी देवता के नाम लेकर नारेबाजी कर रहे थे। यह संसद और संविधान दोनों का अपमान था। लेकिन सबसे ज्यादा निराशाजनक लोगों की प्रतिक्रियाएं थीं।

राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले, धारा 370 को हटाने, तीन तलाक पर बने कानून, सीएए-एनआरसी और लव जेहाद जैसे मुद्दों पर ओवैसी ने दूसरे सेकुलर दलों की अपेक्षा ज्यादा मुखर होकर भाजपा और संघ का विरोध किया। जब विपक्षी दलों ने मंदिर जैसे धार्मिक मुद्दों पर खामोश रहने की रणनीति अपनाई तो सरकार समर्थित मीडिया ने ओवैसी के मार्फत सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की आग को जलाए रखा।

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2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में ओवैसी ने 6 सीटों पर चुनाव लड़ा। एआईएमआईएम सभी सीटों पर ना सिर्फ़ पराजित हुई बल्कि 5 पर उसकी जमानत भी जब्त हो गई। लेकिन 2020 के चुनाव में बिहार के सीमांचल की 24 सीटों में से मुसलिम बहुल 20 सीटों पर ओवैसी ने प्रत्याशी उतारे। 5 सीटों पर उनके प्रत्याशियों ने जीत दर्ज की और 1.24 फीसदी वोट प्राप्त किए। इस जीत से भी ज्यादा मानीखेज यह है कि करीब 20 सीटों पर राजद-कांग्रेस महागठबंधन को सीधे तौर पर नुक़सान हुआ। परिणामस्वरूप, महागठबंधन थोड़े फासले से ही सत्ता में पहुँचने से चूक गया।

बिहार में जीत से प्रोत्साहित होकर ओवैसी ने बंगाल की ओर कूच किया। करीब 30 फ़ीसदी मुस्लिम आबादी वाले बंगाल में ओवैसी अपनी संभावनाएँ देख रहे थे। इससे ममता बनर्जी को नुक़सान होने के कयास लगाए जा रहे थे। लेकिन भाजपा से सीधे मुक़ाबले में बंगाल के मुसलमानों ने तृणमूल कांग्रेस को वोट दिया। ओवैसी ने 50 फ़ीसदी से अधिक मुसलिम आबादी वाली 7 विधानसभा सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे। सभी प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गई। एआईएमआईएम को केवल  0.01 फ़ीसदी वोट मिले। जाहिर है कि ओवैसी के लिए यूपी चुनाव 2022 में विशेष सफलता की गुंजाइश नहीं है। 

पिछले विधानसभा चुनाव में भी ओवैसी अपनी ताकत आजमा चुके हैं। 2017 में उन्होंने 38 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे। सभी प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गई थी। ओवैसी की पार्टी को केवल 0.2 फीसदी वोट मिले।

इस बार उनके सामने ज्यादा चुनौतियाँ हैं। एक तरफ बिहार में उनकी उपस्थिति के कारण महागठबंधन की हार और भाजपा जदयू की सत्ता में वापसी हुई। दूसरी तरफ बंगाल में तृणमूल काँग्रेस के साथ मुसलिम एकजुटता के कारण भाजपा को पराजित करके ममता बनर्जी ने शानदार जीत दर्ज की। इसलिए यूपी में मुसलिम मतदाता चौकन्ना है। दलित, पिछड़े, गरीब, मजदूर, किसान सब भाजपा की योगी सरकार से नाराज हैं। जाहिर है मुसलिम मतदाता भी इन तमाम समुदायों के साथ भाजपा को हराने वाले प्रत्याशी को वोट करेंगे। जाहिर है, ओवैसी के साथ जाकर वे अपने वोट को बर्बाद नहीं करेंगे। लेकिन गोदी मीडिया और भाजपा ओवैसी के चेहरे और भाषा का इस्तेमाल करके हिन्दुओं का ध्रुवीकरण करने की पूरी कोशिश करेगी। भाजपा राम मंदिर, धर्मांतरण, लव जेहाद और जनसंख्या नियंत्रण जैसे मुद्दों को उछालकर समाज को विभाजित करने की कोशिश करेगी। ओवैसी इन मुद्दों पर मुखर होंगे। इससे ओवैसी के पक्ष में मुसलमानों के ध्रुवीकरण की संभावना हो या ना हो लेकिन बीजेपी उनके ज़रिए हिन्दुओं का ध्रुवीकरण करने की कोशिश ज़रूर करेगी। 

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