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नागरिकता संशोधन क़ानून के संसद में पारित हो जाने के बाद दिल्ली, अलीगढ़, सहारनपुर सहित कई जगहों पर विरोध-प्रदर्शन के दौरान बवाल हो चुका था। इसके साथ ही उत्तर प्रदेश के कई शहर सुलग रहे थे। कई जगह हिंसक घटनाएं भी हुई थीं और पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच टकराव भी हुआ था। सरकारी और ग़ैर सरकारी संपत्तियों के नुक़सान के साथ लोग भी हताहत हुए थे। ऐसे में 20 दिसंबर, 2019 (शुक्रवार) को जुमे की नमाज़ के मद्देनजर मेरठ प्रशासन अलर्ट था। आशंका थी कि जुमे की नमाज़ के बाद मुसलिम समुदाय की ओर से विरोध-प्रदर्शन हो सकता है।
देश के अन्य हिस्सों में प्रदर्शनों के दौरान हुई हिंसा को देखते हुए प्रशासन ने एक दिन पहले ही इंटरनेट सेवाओं को ब्लॉक करा दिया था। ख़ास मसजिदों के बाहर और संवेदनशील इलाकों में फोर्स तैनात कर दी गई थी। फिर भी प्रदर्शन हुए और प्रदर्शनकारियों की पुलिस के साथ झड़पों में तोड़फोड़ और हिंसा हुई, जिसमें 6 लोगों की जानें गईं और दो पुलिसकर्मी जख्मी हुए, जिनके पैरों में 12 बोर के तमंचे से चली गोली के छर्रे लगे थे।
अब सवाल यह उठता है कि जब प्रशासन चौकन्ना था और उसे अंदेशा था कि विरोध-प्रदर्शन के दौरान बवाल हो सकता है, तब भी बवाल को क्यों नहीं रोका जा सका?
सबसे पहले यह समझने की कोशिश करते हैं कि मेरठ में बवाल कैसे शुरू हुआ। हापुड़ रोड स्थित इमलियान मसजिद पर जुमे की नमाज़ शांतिपूर्ण हुई। यह मेरठ की प्रमुख मसजिदों में से एक है, जहां हर जुमे को नमाज़ पढ़ने के लिए काफी संख्या में मुसलिम एकत्र होते हैं। नमाज़ के बाद मसजिद के बाहर खड़े लोगों को जब पुलिस ने धारा 144 का हवाला देकर जाने को कहा तो वे लोग चुपचाप अपने गंतव्य की तरफ चले गए।
इसके बाद कोतवाली थाना इलाके की जामा मसजिद में जुमे की नमाज़ का समय हुआ तो वहां नौजवानों की काफी भीड़ थी, जो आमतौर पर इतनी नहीं होती। नमाज़ अदा करने आए कुछ लोग काली पट्टी लगाए हुए थे। इसी बीच मसजिद के आसपास से पुलिस ने भारी मात्रा में काले कपड़ों के थान को बरामद कर इन्हें अपने कब्जे में ले लिया और लोगों से नमाज़ के बाद शांतिपूर्वक घर लौट जाने की अपील की। साथ ही चेतावनी दी कि धारा 144 की अवहेलना कर यदि प्रदर्शन किया गया तो पुलिस-प्रशासन सख़्त कार्रवाई करेगा।
पुलिस-प्रशासन द्वारा बलपूर्वक काले कपड़ों के थान व गट्ठर कब्जे में लिए जाने का भीड़ ने विरोध किया तो टकराव की स्थितियां बन गईं। मेरठ की जामा मसजिद पर इकट्ठा हुए लोगों ने पुलिस-प्रशासन और सरकार के ख़िलाफ़ नारेबाज़ी शुरू कर दी, जिसके बाद बवाल शुरू हो गया। पुलिस-प्रशासन ने जब प्रदर्शनकारियों को रोका तो भीड़ में से कुछ पत्थर चले और फिर पुलिस की लाठियां। इसके बाद भीड़ हिंसक हो गई। फिर गोलियां चलीं। पुलिस फ़ायरिंग में अब तक 6 लोगों की मौत हो चुकी है। कुछ पुलिसकर्मी भी घायल हुए। इसके बाद जमकर तोड़फोड़ हुई और इसलामाबाद पुलिस चौकी में आग लगा दी गई और कई वाहन फूंक दिए गए।
यहां सवाल यह उठता है कि अगर मुसलिम समुदाय काली पट्टी लगाकर नागरिकता संशोधन क़ानून का लोकतांत्रिक ढंग से विरोध कर रहा था और यदि कोई जुलूस या नारेबाज़ी नहीं हुई थी, तब पुलिस को काले कपड़े या काली पट्टियां या उनके थान जब्त करने की क्या ज़रूरत थी?
मेरठ में मुसलिमों की आबादी और प्रदर्शनकारियों की संभावित संख्या को देखते हुए प्रशासन के पास पर्याप्त मात्रा में पुलिस बल भी मौजूद नहीं था। शहर की जामा मसजिद पर हुए उपद्रव के बाद शहर के कई मुसलिम इलाकों में उपद्रव शुरू हो गया और अनेक स्थानों पर इतना पुलिस बल नहीं था कि वह उपद्रवियों पर प्रभावी नियंत्रण रख पाता। पथराव और आगजनी शुरू होने के बाद पुलिस के पास अपनी रक्षा करने और भीड़ को नियंत्रित करने के लिए फायरिंग के अलावा कोई चारा भी नहीं था।
अगर मेरठ में हुए बवाल का विश्लेषण करें तो दो चीजें साफ़ तौर पर नजर आती हैं। पहली, काली पट्टी लगाकर विरोध का इजहार करना पुलिस-प्रशासन को नागवार गुजरा और दूसरा, अगर उन्हें यह जानकारी पहले से थी कि लोग काली पट्टी लगाएंगे और उसके लिए कुछ तत्वों ने काले कपड़ों के गट्ठर मसजिद के पास लाकर रख दिए हैं, तब नमाज़ से पहले ही काले कपड़े के गट्ठरों को अपने कब्जे में क्यों नहीं लिया गया? और क्यों ऐसे साजिशकर्ताओं के ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं की गई?
उपद्रव के बाद ऐसे कई वीडियो वायरल हो रहे हैं, जिनमें पुलिसकर्मी तोड़फोड़ करते नज़र आ रहे हैं। एक वीडियो मेरठ के एसपी सिटी अखिलेश नारायण सिंह का भी वायरल हुआ है, जिसमें वह विरोध में काली पट्टियां लगाए लोगों पर आग-बबूला हो रहे हैं। एसपी को साफ-साफ अभद्र भाषा का प्रयोग करते हुए, लोगों को धमकाते हुए सुना जा सकता है। यहां तक कि एसपी लोगों से ‘पाकिस्तान चले जाने’ जैसी बातें भी कह रहे हैं। एसपी का यह वीडियो 20 दिसम्बर, 2019 का है। एसपी उपद्रव वाले इलाके में नियंत्रण के लिए पुलिस फोर्स के साथ गए थे। जाहिर तौर पर इस तरह के कृत्य अशोभनीय भी हैं और भड़काऊ भी।
यह सही है कि भीड़ को नियंत्रित करना काफी मुश्किल काम है और यह भी सही है कि शिक्षा से दूर कुछ अन्य भारतीयों की तरह मुसलिम युवाओं की संख्या भी अच्छी-खासी है। किसी भी भीड़ में यदि ऐसे कुछ उपद्रवी तत्व घुसे हों तो बवाल होना निश्चित होता है। यह भी सही है कि अगर किसी आंदोलन में हिंसा हो जाए तो उसके दमन का रास्ता आसान हो जाता है। भले ही उपद्रव प्रायोजित हो।
पुलिस द्वारा जारी की गई एक सीसीटीवी फुटेज में कई प्रदर्शनकारी अपना मुंह ढके हुए हैं। उनके हाथों में तमंचे भी दिखाई दिए लेकिन पुलिस ने वह सीसीटीवी फुटेज क्यों नहीं जारी की, जिसमें खाकी वर्दी पहने लोग तोड़फोड़ कर रहे हैं। यह भी संभव है कि कुछ शरारती तत्व या साजिशकर्ता खाकी पहनकर तोड़फोड़ कर रहे हों लेकिन पुलिस को पारदर्शी तरीके से यह भी बताना चाहिए था। और यदि क़ानून के रखवालों ने कहीं क़ानून को तोड़ा है तो उनके ख़िलाफ़ भी नियमानुसार कार्रवाई करनी चाहिए थी लेकिन इसके उलट कई जगह से यह बात सामने आई है या लोग दबी जुबान यह कह रहे हैं कि जितने भी सीसीटीवी कैमरे उन इलाकों में लगे हुए थे, बाद में पुलिस ने उनकी फुटेज चेक की और बहुत सारी फुटेज को डिलीट कर दिया।
अब मेरठ फिर से अपनी रफ्तार पकड़ रहा है। उपद्रव के लिए करीब 2500 अज्ञात लोगों के ख़िलाफ़ मुक़दमे दर्ज कराए गए हैं और 180 लोग नामजद हैं। वीडियो फुटेज और पुलिस सूत्रों से मिल रही जानकारी के मुताबिक़ नामजदों की संख्या और बढ़ सकती है। 31 उपद्रवियों को जेल भेजा जा चुका है। बड़ी संख्या में फोर्स तैनात कर दी गई है। फ्लैग मार्च निकाले जा रहे हैं।
27 दिसम्बर, 2019 को भी लोग नमाज़ के लिए जुटे और नमाज़ अदा कर शांति से अपने घर चले गए। नागरिकता संशोधन क़ानून और नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर (एनपीआर) को लेकर आशंकाएं और खुसर-फुसर जारी है और लोगों के मन में डर है। राजनीति के गिद्ध मंडरा रहे हैं। उनकी अपनी-अपनी आग और चूल्हे हैं जिस पर अपने-अपने लाभ की रोटियां सेकी जा रही हैं।
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