आगरा में साइकिल यात्रा को हरी झंडी दिखाते समय पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव रामजीलाल सुमन के चेहरे पर उभरे अभिभूत हो जाने के भावों को पढ़ना कोई मुश्किल बात नहीं थी। लाल टोपी और हाथ में झंडा थामे युवाओं के ऐसे महाकाय समूह को वह मुद्दत बाद देख रहे थे। वैसे भी आगरा समाजवादी पार्टी के बड़े आधार क्षेत्र वाला ठिकाना कभी नहीं रहा है फिर ऐसे विशाल जनसमूह के क्या मायने? पूछने पर वह कहते हैं, “प्रदेश की जनता के रोष की मात्रा की कल्पना नहीं की जा सकती है।"
कोविड 19 के सारे प्रोटोकॉल को धता बताते हुए सड़क पर लाल टोपी पहने समाजवादियों की साइकिल के 6.5 किमी लम्बे हुजूम को देखकर राजधानी लखनऊ के लोग तो हैरान थे ही, प्रदेश के शहरों से लेकर देहात तक, शायद ही कोई ज़िला बचा था जहाँ सड़कों को समाजवादियों ने अपनी साइकिलों से न रौंद डाला हो-पुलिस और प्रशासन के व्यवधानों और धमकियों के बावजूद!
अनेक शहरों में पुलिस द्वारा एसपी के कार्यकर्ताओं के विरुद्ध भाँति-भाँति की धाराओं में मुक़दमे भी क़ायम किये जाने की ख़बरें हैं। बीजेपी की योगी सरकार के विरुद्ध विपक्ष के एक बड़े मोर्चे के इस तरह खुल जाने पर बीजेपी ने तो कड़ी प्रतिक्रिया जताई ही है, मायावती ने भी एसपी अध्यक्ष अखिलेश यादव को जी भर के कोसा है।
क्या 'साइकिल यात्रा' को मिली ज़बरदस्त क़ामयाबी को अखिलेश यादव सचमुच ऐतिहासिक 'अगस्त क्रांति' से जोड़कर अपनी पार्टी और प्रदेश वासियों को याद दिला पाएंगे कि ''अगस्त क्रांति के शहीदों ने देश में किसान, मजदूर और युवाओं का राज स्थापित करने का जो सपना देखा था, उसे अमली जामा पहनाने की ज़िम्मेदारी एसपी की है?"
क्या समाजवादी सचमुच ''एकजुट होकर संवैधानिक मूल्यों को बचाने और उन्हें बहाल करने की भूमिका" निभाएंगे?
पंचायत चुनाव से बदली तसवीर
डेढ़ साल से ज़्यादा के कोरोना काल में जबकि प्रदेश की जनता अपने दुख दर्द और परिजनों की मौत से बिलख रही थी तब योगी सरकार का दूर-दूर तक पता नहीं था, तब उसके आंसू पोंछने के लिए विपक्ष भी गायब था। लेकिन मई में हुए पंचायत चुनावों के नतीजों ने प्रदेश में विपक्ष के हौसलों को आसमान तक उछाल दिया।
इन चुनावों ने प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी, रक्षामंत्री के लखनऊ और स्वयं मुख्यमंत्री के गोरखपुर में तो बीजेपी का सूपड़ा साफ़ कर ही दिया था, प्रदेश के बाकी ज़िलों में भी एसपी और 'राष्ट्रीय लोकदल' ने बीजेपी को बुरी तरह से पटखनी दी थी।
'योगी हटाओ' की मुहिम
इन चुनावों में कांग्रेस ने भी अपने प्रदर्शन को सुधारा था और बड़ी संख्या में वह दूसरे और तीसरे स्थानों पर रही थी। इन नतीजों ने यूपी के ग्रामीण अंचलों में बीजेपी को पानी देने वालों का संकट पैदा हो जाने का एलान कर दिया था। इन परिणामों ने बीजेपी के भीतर लम्बे समय से उमड़ती-घुमड़ती 'योगी हटाओ' मुहिम को भी बल दिया था और तब एक मोड़ ऐसा भी आया जब स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह भी इसी मुहिम के हिस्सेदार बनते दिखे थे।
एकबारगी लगने लगा कि योगी आदित्यनाथ अब गए कि तब। समय ने लेकिन तब पलटा खाया! यह उलटबांसी 'आरएसएस' के बीजगणित की उन गणनाओं से उपजी थी जिसमें यूपी जीतने की एकमात्र ज़रूरी शर्त प्रदेश को हिंदुत्व की आंधी में झोंक देना माना गया था।
योगी की तारीफ़
इन गणनाओं के आकलन में यह भी माना गया था कि इस शर्त को निभाने वाला योगी से बेहतर फिलहाल कोई नहीं। 'संघ' नेतृत्व के कीर्तन से उपजे 'राग प्रशंसा' को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बख़ूबी लपका। अपने संसदीय क्षेत्र वाराणसी की सार्वजानिक सभा में उन्होंने मुख्यमंत्री की पीठ ठोकते हुए कहा कि कोरोना के प्रबंधन में यूपी और उसके नेतृत्व शिखर पर बैठे योगी आदित्यनाथ अद्वितीय हैं।
आम लोगों की बात तो दरकिनार, पीएम के बयान से पार्टी के भीतर के छोटे-बड़े नेता भी हैरान रह गए जो अभी तक न तो गंगा में बहते शवों से उपजे अपने परिजनों और समर्थकों की आँखों के आंसुओं को ही पूरी तरह से पोंछ पाए थे और न ऑक्सीजन सिलेंडरों के अभाव में हुई समर्थकों की मौतों के ‘सच्चे' प्रमाणपत्र उनके घरवालों को दिलवा सके थे।
आये दिन अपने घर-परिवार को लूट-हत्या में तहस-नहस होने का दर्द अपने सीने में दबाये या फिर अपनी बहू-बेटियों को क्रूर दुराचारों का शिकार होता देख असहाय अवस्था में रोती बिलखती प्रदेश की जनता भी तब स्तब्ध रह गई जब पीएम के इसी ‘कांग’ के रिकॉर्ड को पलट कर बजाते हुए गृह मंत्री अमित शाह ने योगी के उस प्रदेश की क़ानून-व्यवस्था को देश का सर्वश्रेष्ठ होने का सर्टिफिकेट दे दिया जिसे उनके अपने मंत्रालय का 'राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो' (एनसीआरबी) बीते 3 सालों से 'सबसे ख़स्ताहाल' होने का ठप्पा लगाता आ रहा है।
कोविड संक्रमण काल में किस तरह योगी सरकार ने अपने कुशासन पर पर्दा डालने की कोशिश की है इसकी बानगी उसके एक कृत्य से ही दिख जाती है। कोरोना की पहली और दूसरी लहर के उत्ताप में जब समूचा उत्तर प्रदेश जल रहा था, सड़कें और हाईवे भूखे पेट प्रवासी मज़दूरों के नंगे पांवों से अटी पड़ी थीं, तब प्रदेश की सरकार ने उन्हें राहत देने की जगह उनकी मुश्किलों की जगज़ाहिरी पर पर्दा डालने में अपनी पूरी ऊर्जा लगा दी थीं।
एक आरटीआई के जरिये इस बात का खुलासा हुआ कि अप्रैल 2020 से लेकर मार्च 2021 के बीच उप्र सरकार ने राष्ट्रीय और क्षेत्रीय टीवी न्यूज़ चैनलों के दिये जाने वाले विज्ञापनों पर 160 करोड़ रुपये से ज़्यादा खर्च किए। अख़बारों, रेडियो और इंटरनेट को दिए जाने वाले विज्ञापन इससे अलहदा हैं।
ऐसी चर्चा थी कि मुख्यमंत्री अयोध्या से चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं। इस चक्कर में राममंदिर के निर्माण को 'उपलब्धियों' के बतौर गुणगान गाया जाता इससे पहले ही राम जन्मभूमि मंदिर ट्रस्ट की खरीद-फ़रोख़्त में हुए घोटालों से पूरा प्रदेश दहल गया।
मुख्यमंत्री ने अपने ट्रम्प के दूसरे पत्ते के रूप में जनसँख्या नियंत्रण क़ानून का शोशा छेड़ा। इसके पीछे इरादा मुसलिम जनसँख्या का नाम लेकर हिंदू कार्ड चलना था। अविवाहित मुख्यमंत्री को क्या पता था कि विधान मंडल में किस मुंह से वोट डालने की व्हिप जारी कर सकेंगे जहां आधे से ज़्यादा विधायकों के 3 या इससे अधिक बच्चे हैं?
राजनीतिक हलकों में यह भी चर्चा है कि सरकार जल्द ही एनपीआर का काम शुरू करने की फिराक़ में है। यह काम आगे बढ़ सका तो एनआरसी को भी इससे जोड़ दिया जाएगा और इस तरह धार्मिक ध्रुवीकरण का सिलसिला शुरू करवाया जा सकेगा।
बेरोज़गारी से बेहाल है प्रदेश
उत्तर प्रदेश में बेरोज़गारी की स्थिति बहुत सोचनीय है। 2 सालों से उत्तर प्रदेश में ‘लाखों’ और ‘करोड़ों’ रोज़गार मुहैया करने के दावे होते आये हैं। इन दावेदारों में एक तरफ मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ रहे हैं तो दूसरी ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। इन तमाम 'हाई प्रोफाइल' दावों के बावजूद सिर्फ़ जुलाई 2021 के आंकड़ों को लें तो प्रदेश में बेरोज़गारी की दर 4.95% है।(स्रोत:वर्ल्ड डेटा एटलस) यह कोई कम चिंता की बात नहीं। इस सब के बावजूद कुछ महीनों पहले तक माना जा रहा था कि यूपी में कोई मज़बूत विपक्ष नहीं है।
एसपी ने किया मुक़ाबला
बीएसपी की नेता मायावती बीजेपी की पक्षधरता की बात करके अपने वोट बैंक के आधार से निरंतर कटती चली जा रही थी। जहाँ तक कांग्रेस का सवाल है, इसकी महासचिव प्रियंका गाँधी की निरंतर भागदौड़ के बावजूद पार्टी के सांगठनिक ढाँचे के सुदृढ़ न हो पाने के चलते वह संघर्ष की मुख्यधारा का हिस्सा बन पाने में सक्षम नहीं। ऐसे में एसपी ही थी जो सीधे मुक़ाबले में खड़ी हो पाने में सक्षम दिखती थी।
बेशक़ 'देर आयद दुरुस्त आयद' की कहावत एसपी और उसके नेतृत्व पर फ़िट बैठती हो, उत्तर प्रदेश की जैसी हालत है उसमें मज़बूत विपक्ष का उभरना बीजेपी के लिए सचमुच मुश्किल भरे दिन साबित होगा।
सवाल यह है कि क्या एसपी की साइकिल रैली विपक्ष का स्थायी 'फीचर' बन सकेगी? क्या यह चुनाव तक असंतुष्ट मतदाता को आर्थिक-समाजिक सवालों पर भटकने से रोक पाने में सक्षम होगी? क्या बीच राह में साइकिल पंक्चर तो नहीं हो जायेगी?
एसपी का दावा
लम्बी सांस छोड़ते हुए रामजीलाल सुमन कहते हैं "लोग सचमुच परेशान और हैरान हैं। बीजेपी नेतृत्व यदि यह सोचता है कि उनके अखंड झूठ और अखबारों व मीडिया के उलट-पुलट प्रचार की मदद से महंगाई और बढ़ती हुई बेरोज़गारी से दुखती जनता की रगों पर मलहम लगा देंगे, यह नामुमकिन है। जनता हर दम सड़कों पर आने और बीजेपी सरकार को उखाड़ फेकने को आमादा हैं।"
सुमन लेकिन इस बात का संतोषजनक जवाब नहीं दे पाते कि जनता बीते 3 सालों से परेशान और हैरान थी, विपक्ष लेकिन तब उसे सड़कों पर क्यों नहीं मिला?
अपनी राय बतायें