साल 2020 के अंत में जब टीम इंडिया ने बॉक्सिंग डे टेस्ट मैच में ऑस्ट्रेलिया को मात दी तो मुझे ये कहने में बिलकुल हिचकिचाहट नहीं हुई कि लाल गेंद की क्रिकेट में विदेशी ज़मीं पर भारत की ये सबसे उम्दा जीत थी। उन्हीं तर्कों का सहारा लेते हुए मैंने साल की शुरुआत में सिडनी टेस्ट को अंसभव प्रयास से ड्रॉ होते देखा तो इसे विदेशी ज़मीं पर सबसे शानदार ड्रॉ नतीजा कहने में मुझे ज़रा भी संकोच नहीं हुआ।
इन दोनों आकलन के पीछे मूल तर्क था कि आखिर इतने अहम खिलाड़ियों के बग़ैर टीम इंडिया तो टेस्ट क्रिकेट में कभी अपने घर पर भी नहीं उतरी है, विदेश में खेलना और वो भी ऑस्ट्रेलिया में जीतना और ड्रॉ कराने तक का ख़्याल भी ज़ेहन में आना मुश्किल था।
ऐसे में ब्रिसबेन एक चमत्कार के बजाय ऐसा लग रहा था कि ये मैच एंटी-क्लाइमैक्स ना साबित हो जाए। मतलब ब्रिसबेन में तो चमत्कार की गुंजाइश ना के ही बराबर थी क्योंकि जो पिछले 33 सालों में एक से बढ़कर एक दिग्गज टीम ना कर पाई तो इस टीम की क्या बिसात थी? लेकिन, यहीं पर अंजिक्य रहाणे और उनके साथियों ने कंगारुओं को और सभी आलोचकों को हतप्रभ किया।
ऑस्ट्रेलिया में लगातार दो सीरीज़ जीतने का कमाल सिर्फ इंग्लैंड, वेस्टइंडीज़ और साउथ अफ्रीका ने किया था। अगर पिछली बार यानी कि 2017 में घर में टेस्ट सीरीज़ को भी जोड़ दिया जाए तो लगातार तीन सीरीज़ में ऑस्ट्रेलिया को हराने का कमाल इतिहास में पहली बार हुआ है। सिर्फ 3 मौके इससे पहले रहे जब किसी विदेशी टीम ने पहला टेस्ट ऑस्ट्रेलिया में गंवाने के बाद सीरीज़ जीती थी। ये काम रहाणे और उनके साथियों ने किया।
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किसी भी लिहाज़ से इस टीम को कमज़ोर टीम नहीं कहा जा सकता है। कंगारु टीम में दो बल्लेबाज़ ऐसे हैं जिनका टेस्ट औसत सिर्फ डॉन ब्रैडमैन से कम है। अगर मार्नस लाबुशेन फिलहाल सर्वकालीन बेहतरीन औसत के मामले में नंबर 2 (62 का औसत 18 टेस्ट में) और स्टीव स्मिथ (61.85 का औसत 77 मैच), जवाब में भारतीय आक्रमण पर नज़र दौड़ायें तो इसके पास इतने टेस्ट विकेट भी नहीं थे जितने कि पार्ट-टाइमर लाबुशेन के पास थे। कहने का मतलब है कि दोनों टीमों के बीच फासला कितना गहरा था।
ऐसे में कोई ये कहता कि रहाणे की टीम गाबा में ऑस्ट्रेलियाई अश्वमेघ (31 टेस्ट से अपराजित जिसमें 24 जीत और 7 ड्रॉ थे) को रोकेगी तो हर कोई हंस पड़ता। ठीक 1 महीने पहले एडिलेड में 36 रन पर सिमटने वाली टीम अगर चौथी पारी में अपने इतिहास का तीसरा सबसे लंबा चेज़ (328) हासिल करेगी तो उससे बड़ा आशावादी दुनिया में भला कौन हो सकता था?
पिछले 90 साल में सिर्फ 1 टीम को छोड़ दिया जाए (414 रनों के लक्ष्य का पीछा 2008/09 में) साउथ अफ्रीका ने किया था तो आपको महसूस होगा कि आखिर वाकई में ब्रिसबेन में हुआ तो क्या हुआ है।
बहरहाल, अब बहस होगी तो सिर्फ इस बात पर कि क्या मौजूदा सीरीज़ की जीत पिछली बार ऑस्ट्रेलिया में 2-1 की जीत से ज़्यादा बढ़ी है। मेरे ख्याल से ज़रूर है। तुलना होगी तो 2001 में भारतीय ज़मीं पर कंगारुओं के लगातार 16 टेस्ट जीत के रथ को कोलकाता के इडेन गार्डेन्स में रोकने से।
अगर उस सीरीज़ ने द्रविड़-लक्ष्मण को भारतीय क्रिकेट में सचिन तेंदुलकर के बराबरी वाला सम्मान दिलाया तो इस सीरीज़ ने दिखाया है कि रहाणे-पुजारा को भी कोहली जैसा ही सम्मान मिलना चाहिए। अगर उस सीरीज़ में अनिल कुंबले की भरपाई युवा हरभजन सिंह ने पूरी की थी तो यहां ईशांत शर्मा-मोहम्मद शमी के अनुभव को युवा मोहम्मद सिराज के जोश ने पूरा कर दिया। इस जीत का स्वाद भारतीय क्रिकेट की महानतम जीतों में से किसी के भी स्वाद से कम नहीं है।
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