एनडीए सरकार ने फ्रांस के साथ 36 रफ़ाल लड़ाकू विमान ख़रीदने का सौदा किया है। इसके बाद की सच्चाई यह है कि आगे की तस्वीर धुंधली है और आधिकारिक आंकड़े नहीं हैं। यहीं पर विवाद शुरू होता है। विवाद के तीन मुद्दे हैं। एक, क़ीमतों का। दूसरा, अनिल अंबानी की रिलायंस को ऑफसेट पार्टनर बनाने का। और तीसरा, सरकारी कंपनी एचएएल को सौदे से हटाने का। इसी को लेकर तूफ़ान मचा है। वैसे, फ्रेंच भाषा में रफ़ाल के दो शाब्दिक अर्थ हैं। एक तो, ‘ताबड़तोड़ फायरिंग’  और दूसरा, ‘हवा का तेज़ झोंका’। यानी इसे तूफान भी कह सकते हैं।
सरकार का कहना है कि वह गोपनीयता क़रार के नियमों की वजह से रफ़ाल सौदे के आंकड़े जारी नहीं कर सकती है। कांग्रेस का कहना है कि क़ीमतों को लेकर कोई गोपनीयता क़रार नहीं था। हालांकि, फ्रांस की सरकार भी कह चुकी है कि क़ीमतों को लेकर गोपनीयता क़रार नहीं है, बल्कि तकनीक को लेकर है। सरकार का दावा है कि एक तो फ़्रान्स के साथ हुए रक्षा क़रार के तहत इसे सार्वजनिक नहीं किया जा सकता है और दूसरे, देश हित में भी यह सही नहीं होगा, क्योंकि इससे रफ़ाल की तकनीक और रक्षा उपकरणों की जानकारी दुश्मन देशों को मिल जाएगी। सरकार को डर है या मज़बूरी? जो भी हो, 'गोपनीयता क़रार' से लोगों में संदेह पैदा हो रहे हैं। आइए, देखते हैं कि रफ़ाल सौदे में क्या है वास्तविक स्थिति।
रफ़ाल सौदे पर कई दौर की वार्ता और सुरक्षा मामलों की कैबिनेट से मंजूरी मिलने के बाद दोनों देशों के बीच 2016 में एक अंतर-सरकारी समझौता (IGA) हुआ। इसमें 36 लड़ाकू विमान खरीदने की बात कही गई। समझौते के अनुसार विमानों की आपूर्ति विमान के साथ जुड़े तमाम सिस्टम और हथियारों की आपूर्ति भी भारतीय वायुसेना द्वारा तय मानकों के अनुरूप होनी है। लंबे समय तक विमानों के रखरखाव की ज़िम्मेदारी फ़्रान्स की होगी। समझौते पर दस्तख़त होने के करीब 18 महीने के भीतर विमानों की आपूर्ति शुरू करने की बात है। हालांकि, प्रारंभिक मसौदे में 136 विमान ख़रीदने का प्रावधान था।