पूर्वोत्तर के दो राज्यों मेघालय और नागालैंड में विधानसभा चुनाव के लिए प्रचार शनिवार शाम को तम गया. इन राज्यों के गठन के बाद यह पहला मौका है जब यहां होने वाले विधानसभा चुनाव मुख्यधारा की मीडिया में भी सुर्खियां बटोर रहे हैं. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि अब तक यहां क्षेत्रीय दलों की सहयोगी की भूमिका में रही भाजपा अबकी अपने बूते सत्ता पाने या कम से कम किंगमेकर बनने की भूमिका में आने की कवायद में जुटी है. इन राज्यों के चुनाव अभियान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत भाजपा के दिग्गज नेताओं ने जिस जोर-शोर से चुनाव प्रचार किया है उसकी पहले कोई मिसाल नहीं मिलती. आंकड़ों के लिहाज से देखें तो पिछली बार बीजेपी ने मेघालय में दो और नागालैंड में महज 12 सीटें जीती थी. लेकिन वह दोनों जगह गठबंधन सरकार में शामिल थी.
इन दोनों राज्यों में कई समानताएं हैं. पहली यह कि दोनों में विधानसभा की 60-60 सीटें हैं. दूसरी यह कि दोनों ईसाई बहुल राज्य हैं और तीसरी यह कि कांग्रेस का दौर खत्म होने के बाद यहां क्षेत्रीय दलों या गठबंधन की सरकार ही सत्ता में रही है. यह कहना ज्यादा सही होगा कि इन राज्यों में सरकार के गठन में क्षेत्रीय दलों और निर्दलीयों की भूमिका बेहद अहम होती है.
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पूरब का स्कॉटलैंड कहे जाने वाले मेघालय में मौजूदा समय में कोनराड संगमा के नेतृत्व में एनपीपी, भाजपा और अन्य क्षेत्रीय पार्टियों की गठबंधन सरकार है. वर्ष 2018 में भाजपा ने मेघालय में 47 सीटों पर चुनाव लड़ने के बाद महज दो सीटों पर जीत हासिल की थी. लेकिन गठबंधन सरकार में शामिल रहने वाली भाजपा ने इस बार एनपीपी से नाता तोड़ कर तमाम सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं. पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अर्नेस्ट मावरी के एक बयान के बाद राज्य में इस बात पर बहस छिड़ गई है कि क्या इस राज्य के लिए पार्टी ने अपने पैमाना बदल लिया है. यहां इस बात का जिक्र जरूरी है कि ईसाई-बहुल होने की वजह से राज्य में बीफ की खपत बहुत ज्यादा है. भाजपा नेता ने कहा है कि मेघालय में बीफ संस्कृति और समाज का हिस्सा है और वे खुद भी इसका सेवन करते हैं. इसी वजह से यहां इस पर पाबंदी लगाने का कोई सवाल ही नहीं उठता.
आखिर प्रदेश अध्यक्ष को ऐसी सफाई देने की जरूरत क्यों पड़ी? दरअसल, तमाम क्षेत्रीय पार्टियां उस पर ईसाई-विरोधी होने का आरोप लगाती रही हैं. इसके साथ ही यह कहा जा रहा है कि सत्ता में आने की स्थिति में पार्टी बीफ पर पाबंदी लगा देगी. राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि इस राज्य में बीफ का सेवन लोगों के लिए भावनात्मक मुद्दा है. इसी वजह से अबकी इलाके के बाकी राज्यों की तरह यहां भी सरकार बनाने का सपना देख रही पार्टी इस मुद्दे पर कोई खतरा नहीं उठाना चाहती.
कभी अपने गढ़ रहे इस राज्य में दोबारा कदम जमाने का प्रयास करती कांग्रेस दल-बदल की शिकार है. उसके पास कोई असरदार नेता ही नहीं बचा है. उसे ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने खोखला कर दिया है. वर्ष 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 21 सीटों के साथ राज्य में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी थी. लेकिन नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) ने अपनी 20 सीटों को साथ भाजपा व दूसरे सहयोगियों के समर्थन से सरकार बना ली थी. बीते साल नवंबर में पूर्व मुख्यमंत्री मुकुल संगमा के नेतृत्व में कांग्रेस के 12 विधायक तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए थे. इससे तृणमूल रातोंरात राज्य की प्रमुख विपक्ष पार्टी बन गई थी. फिलहाल राज्य में शिलांग के सांसद विंसेंट एच. पाला ही पार्टी का प्रमुख चेहरा हैं.
उधर, नागालैंड में पिछली बार नेफ्यू रियो के नेतृत्व वाली नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (एनडीपीपी) गठबंधन सरकार में शामिल भाजपा ने इस बार भी अपनी जमीनी ताकत के लिहाज से गठबंधन को बरकरार रखा है. तालमेल के तहत वह महज 20 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. उसका एक उम्मीदवार निर्विरोध चुना जा चुका है. लेकिन पार्टी ने यहां भी अपनी पूरी ताकत झोंक दी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इसी सप्ताह मेघालय के अलावा राज्य के दीमापुर में चुनावी रैली कर चुके हैं. पार्टी के दूसरे नेता भी राज्य में चुनाव प्रचार कर चुके हैं.
एनडीपीपी का गठन वर्ष 2017 में हुआ था. वर्ष 2018 के चुनाव में उसने 18 और भाजपा ने 12 सीटें जीती थीं. दोनों दलों ने चुनाव से पहले गठबंधन किया था. एनडीपीपी, बीजेपी और नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) यहां सरकार में शामिल हैं. राज्य में कांग्रेस 23 और नागालैंड पीपुल्स फ्रंट ( एनपीएफ) 22 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. उनके अलावा लोक जन शक्ति (लोजपा-रामविलास) 15,, एनपीपी और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी 12-12, और भाकपा नौ, जनता दल (यूनाइटेड) सात और राष्ट्रीय जनता दल तीन सीटों पर अपनी किस्मत आजमा रहे हैं.
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भाजपा का फोकस यहां हिंदुत्व की जगह स्थानीय मुद्दों पर है. नागालैंड और मेघालय में पार्टी की रणनीति काफी हद तक समान ही है. इन दोनों राज्यों में कुल 80 में से 75 उम्मीदवार ईसाई हैं. कांग्रेस ने भी दोनों राज्यों में बड़ी संख्या ईसाइयों को टिकट दिया है.
नागालैंड में चुनाव के दौरान वोटरों को लुभाने के लिए पैसों के इस्तेमाल का मुद्दा बहुत पुराना है. लेकिन अबकी कई संगठन इस तस्वीर को बदलने की कवायद में जुटे हैं. खासकर बैपटिस्ट चर्च ने चुनाव को भ्रष्टाचार मुक्त बनाने के अभियान का नेतृत्व संभाल रखा है.
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