पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी अपने औचक पैसलों के लिए अक्सर सुर्खियाँ बटोरती रही हैं। लेकिन पूर्वोत्तर के तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों और पश्चिम बंगाल में एक उपचुनाव का नतीजा सामने आने के बाद उन्होंने 2024 के लोकसभा चुनाव में अकेले लड़ने की बात कह कर विपक्षी एकता की तमाम कवायद को करारा झटका दिया है। राजनीतिक हलकों में माना जा रहा है कि इन चुनावों में तृणमूल के प्रदर्शन से नाराज होकर ही ममता ने यह फैसला किया है। लेकिन इसके नतीजे दूरगामी हो सकते हैं। यहां इस बात का ज़िक्र प्रासंगिक होगा कि बीते दो साल के दौरान अकेली ममता ही 2024 के चुनाव से पहले भाजपा के खिलाफ विपक्षी एकता की सबसे बड़ी पैरोकार के तौर पर उभरी थीं।
राज्य में वर्ष 2021 के चुनावी नतीजों के ठीक बाद और अब उनकी स्थिति की तुलना करें तो दोनों में जमीन-आसमान का फर्क है। उस चुनाव में भाजपा को करारी पटखनी देने के बाद ममता ने एक ओर जहां 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले विपक्षी एकता की कवायद शुरू कर दी थी, वहीं पूर्वोत्तर में खासकर त्रिपुरा में बड़े पैमाने पर अभियान शुरू किया था। बाद में कांग्रेस के साथ मतभेद बढ़ने पर उन्होंने उससे भी दूरी बना कर चलने का फ़ैसला किया और मेघालय में उसके ज़्यादातर विधायकों को तोड़ कर रातोंरात प्रमुख विपक्षी पार्टी बन गई थी। लेकिन तमाम कवायद के बाद त्रिपुरा में पार्टी का खाता नहीं खुलना, मेघालय में महज पांच सीटें मिलना और वर्ष 2011 में सत्ता में आने के बाद पहली बार किसी उपचुनाव में पराजय जैसी वजहों ने ही शायद ममता को बैकफुट पर आने पर मजबूर कर दिया है।
खासकर मुर्शिदाबाद जिले की सागरदीघी सीट पर हुए उपचुनाव में कांग्रेस के हाथों हार को तृणमूल पचा नहीं पा रही है। पार्टी लगातार तीन बार वह सीट जीत चुकी थी। अल्पसंख्यक बहुल इस सीट पर कांग्रेस उम्मीदवार की भारी अंतर से जीत ने तृणमूल खेमे में खतरे की घंटी बजा दी है। तृणमूल कांग्रेस को मेघालय में 14 फ़ीसदी वोट मिले जबकि त्रिपुरा में यह आंकड़ा एक फीसदी से भी कम रहा। पार्टी ने वर्ष 2012 में पहली बार मेघालय में क़दम रखा था लेकिन उसने पहला चुनाव लड़ा था वर्ष 2018 में।
तब तृणमूल ने आठ सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे। लेकिन उसका खाता नहीं खुल सका था। वर्ष 2021 में कांग्रेस के 12 विधायकों के पाला बदलने से वह सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी बन गई थी। उसके बाद वह राज्य में सत्ता हासिल करने या फिर कम से कम किंगमेकर बनने के मंसूबे सजाने लगी थी। लेकिन उसे महज पांच सीटों से ही संतोष करना पड़ा है।
लेकिन आखिर उन्होंने अगले साल के लोकसभा चुनाव में एकला चलो की नीति अपनाने का फैसला क्यों किया है?
ममता कहती हैं, "उपचुनाव में भाजपा, कांग्रेस और सीपीएम के बीच अपवित्र गठबंधन हो गया था। तृणमूल अकेले इन तीनों से मुकाबला कर सकती है।" उनका सवाल था कि अगर कांग्रेस और सीपीएम ममता से लड़ने के लिए भाजपा की मदद लेती हैं तो वे दोनों खुद को भाजपा-विरोधी कैसे कह सकती हैं? ये तीनों सांप्रदायिक कार्ड खेल रहे हैं। यह हमारे लिए सबक है कि हम कांग्रेस या सीपीएम पर भरोसा नहीं कर सकते। ममता कहती हैं, ‘कांग्रेस ने उपचुनाव भले जीत लिया है, यह उसकी नैतिक हार है।"
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि ममता को मुर्शिदाबाद में हुए उपचुनाव और मेघालय व त्रिपुरा के चुनावी नतीजों से भारी झटका लगा है। खासकर तृणमूल के मज़बूत गढ़ रहे मुर्शिदाबाद में पराजय उनके लिए गंभीर चिंता का विषय है। वह भी उस कांग्रेस से जिसका वर्ष 2021 के चुनाव में खाता तक नहीं खुला था। इसी से बेचैन होकर उन्होंने अकेले लड़ने का फ़ैसला किया है। वह चुनाव में इसी बात को अपना प्रमुख मुद्दा बना सकती हैं कि भाजपा-कांग्रेस और सीपीएम एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। लेकिन हो सकता है कि आगे वे अपना फ़ैसला बदल भी लें।
दूसरी ओर, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी कहते हैं, ‘उपचुनाव के नतीजे ने बता दिया है कि ममता बनर्जी अजेय नहीं हैं।’
अब यह देखना दिलचस्प होगा कि विपक्षी एकता की कवायद क्या रूप लेती है? लेकिन ममता ने अकेले लड़ने का फ़ैसला कर विपक्ष के खेमे में हलचल तो मचा ही दी है।
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