क्या झारखंड में हार के बाद बीजेपी हिल गई है और पार्टी में मंथन शुरू हो गया है? क्या पार्टी को रणनीति बदलनी पड़ी है? क्या उसको अब सहयोगियों के एनडीए छोड़ने का एहसास हो गया है? कहा जा रहा है कि झारखंड में आजसू के अलग होने से बीजेपी को बड़ी हार हुई है। महाराष्ट्र में भी शिवसेना के अलग होने से बीजेपी सत्ता से दूर हो गई है। और अब नागरिकता क़ानून व एनआरसी जैसे विवादास्पद मुद्दों पर दूसरे सहयोगी दल नाराज़ हैं। इसी बीच रिपोर्टें हैं कि जिस जदयू को केंद्र सरकार में शामिल करने को बीजेपी राज़ी नहीं हुई थी वही अब उसे न केवल शामिल करने को तत्पर है, बल्कि दो मंत्रियों का पद देने को तैयार है।
ऐसे समय में जब बीजेपी के सहयोगी दल इससे दूर होते जा रहे हैं, पार्टी नीतीश कुमार की जदयू से घनिष्ठता बढ़ाने के प्रयास में जुट गई है। कहा जा रहा है कि बीजेपी चाहती है कि जदयू केंद्र सरकार में शामिल हो और इसके लिए जदयू तैयार भी हो गया है। वैसे, बिहार में जदयू बीजेपी का सहयोगी है, लेकिन केंद्र सरकार में शामिल नहीं है। हाल के दिनों में जदयू की तरफ़ से नागरिकता क़ानून और एनआरसी जैसे विवादास्पद मुद्दों पर मिलीजुली प्रतिक्रिया आई है। इस बीच जदयू नेता प्रशांत किशोर के बयान के बाद खटास और बढ़ गई थी। कहा जा रहा है कि बिहार में इसी साल होने वाले विधानसभा चुनाव को देखते हुए बीजेपी की चिंताएँ बढ़ गई हैं।
ऐसे ही माहौल के बीच रिपोर्टें हैं कि जदयू को बीजेपी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार में शामिल करने की बात कही गई है। 'द इंडियन एक्सप्रेस' ने सूत्रों के हवाले से लिखा है कि जदयू सांसद राजीव रंजन ऊर्फ ललन सिंह और रामचंद्र प्रसाद सिंह को केंद्र सरकार में मंत्री बनाया जा सकता है। कहा जाता है कि जब लोकसभा चुनाव के नतीजे आए थे तब भी जदयू ने इन दोनों को मंत्री बनाने की माँग की थी, लेकिन तब ऐसा नहीं किया गया था। तब रिपोर्टें आई थीं कि बीजेपी जदयू को सिर्फ़ एक मंत्री का पद देने को तैयार थी। इस बीच नीतीश कुमार ने केंद्र सरकार में शामिल होने से मना कर दिया था और उन्होंने कहा था कि हमें सांकेतिक प्रतिनिधित्व नहीं चाहिए। तब कुछ रिपोर्टों में यह भी कहा गया था कि बीजेपी ललन सिंह को मंत्री नहीं बनाना चाहती थी क्योंकि बिहार से ही भूमिहार नेता गिरिराज सिंह को पहले ही मंत्री बनाना तय कर लिया था और वह उसी समुदाय से दूसरे नेता को मंत्री बनाना नहीं चाहती थी। तब जदयू को उतनी तवज्जो नहीं दी गई थी।
अब रिपोर्ट में बीजेपी नेताओं के हवाले से कहा गया है कि वे ऐसा मानते हैं कि जदयू के केंद्र सरकार में शामिल होने से बीजेपी के साथ जदयू के गठबंधन को मज़बूती मिलेगी। उनका मनना है कि बीजेपी नहीं चाहती कि राज्य में कोई त्रिकोणीय मुक़ाबला हो क्योंकि इससे आरजेडी बहुत मज़बूती से उभरेगा।
इन्हीं आशंकाओं के बीच कुछ महीने पहले जब जदयू और बीजेपी नेताओं के बीच राज्य में 'बड़ा भाई' होने और मुख्यमंत्री के उम्मीदवार को लेकर रस्साकशी चल रही थी तो गृह मंत्री अमित शाह को सामने आना पड़ा था। उस दौरान गिरिराज सिंह और उनके खेमे के नेता बढ़चढ़ कर बोल रहे थे। वे यह भी कह रहे थे कि बीजेपी ज़्यादा सीटों पर चुनाव लड़ेगी और मुख्यमंत्री भी बीजेपी की तरफ़ से होगा। तब अमित शाह ने साफ़-साफ़ घोषणा की थी कि बिहार के मुख्यमंत्री और जदयू प्रमुख नीतीश कुमार ही विधानसभा चुनाव में एनडीए के मुख्यमंत्री के उम्मीदवार होंगे। हालाँकि इसके बाद भी विवाद पूरी तरह नहीं थमा था। जब तब उनके बीच बयानबाज़ी होती रही।
इसी बीच जदयू के उपाध्यक्ष प्रशांत किशोर पहले तो एनआरसी को लेकर बीजेपी पर हमलावर रहे और फिर उन्होंने कह दिया कि जदयू को बिहार में ज़्यादा सीटों पर चुनाव लड़ना चाहिए। इस पर भी विवाद बढ़ा। लेकिन अब जदयू को केंद्र सरकार में शामिल करने से क्या विवादों का निपटारा हो जाएगा?
झारखंड के नतीजों के बाद बदली रणनीति!
बीजेपी के लिए एक बड़ी मुसीबत यह भी है कि सहयोगी दलों का साथ नहीं मिलने के कारण कई राज्यों में उसकी सत्ता हाथ से फिसल गई। झारखंड में बीजेपी का गठबंधन आजसू के साथ टूट गया। दूसरा कोई दल साथ आया नहीं। बिहार में जो दल बीजेपी के सहयोगी हैं वे भी झारखंड चुनाव में बीजेपी के साथ नहीं आए। बीजेपी अकेली चुनाव लड़ी। इस उम्मीद में कि वह अपने दम पर चुनाव जीत जाएगी। लेकिन वह चुनाव हार गई। जेएमएम-कांग्रेस-आरजेडी गठबंधन चुनाव जीत गया। इससे बीजेपी को तगड़ा झटका लगा।
झटका तो महाराष्ट्र में भी लगा था, लेकिन बीजेपी ने वहाँ से सबक़ नहीं लिया। एक साथ चुनाव जीतने के बाद भी बीजेपी के खेमे से शिवसेना जैसी सबसे पुरानी सहयोगी अलग हो गई थी। उसके अलग होने से बीजेपी को महाराष्ट्र जैसे राज्य में सत्ता से बाहर होना पड़ा। शिवसेना ने एनसीपी और कांग्रेस के साथ सरकार बना ली। शिवसेना नेताओं ने आरोप लगाया था कि बीजेपी अपने सहयोगी दलों को सम्मान नहीं देती और अहंकार से पेश आती है। इसी दौरान हरियाणा में भी सरकार बनाने में बीजेपी को काफ़ी मशक्कत करनी पड़ी। उससे पहले बीजेपी को राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी हार का सामना करना पड़ा था।
इन राज्यों के चुनावों में हार के बाद लगता है कि बीजेपी को सहयोगी दलों की अहमियत समझ में आ रही है। यह तब साफ़-साफ़ दिखने लगा जब एनआरसी के मुद्दे पर बीजेपी के ही सहयोगी जदयू और एलजेपी जैसी पार्टियों ने विरोध किया। हालाँकि इन दोनों ही दलों ने नागरिकता क़ानून पर संसद में बीजेपी का साथ दिया था, लेकिन देश भर में विरोध-प्रदर्शन के बाद दोनों दलों के सुर बदले हुए से दिखने लगे हैं। अकाली दल का भी ऐसा ही रुख है। यही नहीं, बीजेपी के पक्ष में खड़े दिखने वाला उड़ीसा का बीजू जनता दल और आंध्र प्रदेश की वाईएसआर कांग्रेस जैसे दल भी एनआरसी के विरोध में हैं।
तो क्या इन दलों के इस रुख के कारण ही बीजेपी का सहयोगी दलों के प्रति रवैया बदल रहा है?
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