देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस में नेतृत्व को लेकर फिर से गांधी परिवार की शरण में जाते कांग्रेसी नेताओं को देखकर मुझे बचपन में हनुमान जी की पूजा के वक्त गाई जाने वाली यह लाईन बार बार याद आ रही है- ‘को नहीं जानत है जग में कपि संकट मोचन नाम तिहारो’।
कांग्रेस के ज़्यादातर नेताओं को भी यही लगता है कि कांग्रेस का संकटमोचक सिर्फ़ नेहरू-गांधी परिवार है और इसके मायने सोनिया गांधी-राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा हैं। शायद इसीलिए कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के बाद केसी वेणुगोपाल ने ज़ोर देकर कहा कि सोनिया गांधी ही हमारी नेता हैं, ‘फुल टाइम प्रेसिडेंट’ हैं और उनकी राय के बिना कोई भी, फिर ज़ोर देकर बोले -कोई भी फ़ैसला नहीं लिया जाता और राहुल गांधी पार्टी के सबसे ‘केपेबल लीडर’ हैं।
प्रियंका होंगी चेहरा
यूपी में कांग्रेस के चुनाव प्रचार प्रभारी बने पीएल पूनिया ने कहा कि प्रियंका गांधी यूपी चुनाव में कांग्रेस का चेहरा होंगी। प्रियंका गांधी पार्टी का मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं होंगी, क्योंकि पार्टी की सरकार तो वहां बनने वाली नहीं है, तो फिर यह बदनामी उनके सिर डालने का कोई मतलब नहीं, लेकिन ज्यादातर लोग इस बात सहमत हैं कि प्रियंका गांधी के मैदान में उतरने से पार्टी कार्यकर्ताओं का जोश और उत्साह बढ़ जाएगा।
पिछले आम चुनाव में तो राहुल गांधी परिवार की पारंपरिक सीट अमेठी से हार ही चुके हैं और आजकल वे खुद को मोटे तौर पर वायनाड का सांसद और नेता मानते हैं।
राहुल गांधी फिर बनेंगे अध्यक्ष?
खैर, मुद्दा यह है कि पिछले दो साल से लीडरशिप को लेकर जो तकरार चल रही थी, उसे सोनिया गांधी ने ख़त्म करने का आदेश मानो यह कहकर दे दिया है कि वो फिलहाल फुलटाईम अध्यक्ष हैं और पार्टी ने अगले अध्यक्ष के तौर पर राहुल गांधी के नाम पर मुहर लगा दी है।
साल 2013 में जनवरी की कड़कड़ाती सर्दी में जयपुर की वो शाम फिर से याद आने लगी, जब कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी को पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना कर नई जिम्मेदारी सौंपी गई थी, जिसका मतलब था कि अब अनौपचारिक तौर पर सिंहासन पर मां सोनिया गांधी के बजाय बेटे राहुल गांधी का हक होगा। इस फ़ैसले ने कांग्रेस की राजनीति, नेताओं और कार्यकर्ताओं में अचानक जोश भर दिया। माहौल में गर्मी महसूस की जा सकती थी। हालांकि उस दिन भी बहुत से लोग सोच रहे थे कि तब राहुल गांधी को अध्यक्ष बनाने का एलान होगा लेकिन नहीं हुआ।
एक सच यह भी है कि आज़ादी के बाद के 74 साल में करीब 39 साल नेहरू-गांधी परिवार का कब्जा कांग्रेस अध्यक्ष पद पर रहा है।
बाग़ी नेताओं को हिदायत
शनिवार को हुई कार्यसमिति की बैठक में उन्होंने साफ कर दिया कि वे फुल टाईम अध्यक्ष हैं, यानी फिलहाल किसी को इस पर बहस की ज़रूरत नहीं है और साथ ही बाग़ी नेताओं को हिदायत भी दे दी कि अनुशासनहीनता बर्दाश्त नहीं की जाएगी। कहा गया कि इसी बैठक में कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों ने राहुल गांधी को फिर से अध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव भी रखा और उस पर बाग़ी ग्रुप के नेता गुलाम नबी आज़ाद ने भी मौन सहमति दे दी यानी खुल कर कोई विरोध नहीं किया।
गांधी परिवार का जोड़
वैसे, कुछ दिन पहले जी-23 ग्रुप के ही नेता कपिल सिब्बल ने ज़ोर देकर कहा था कि यह जी हुजूर -23 ग्रुप नहीं है। हो सकता है कि अब फिर एक बार कांग्रेस के बाग़ी नेताओं समेत सब को यह समझ आया होगा कि गांधी परिवार का जोड़ ही ऐसा है जो टूटेगा नहीं। जो कांग्रेस को टूटने या बिखरने नहीं देगा, माने वो सबसे अच्छा एडहेसिव है।
राहुल की चिट्ठी
पिछले आम चुनाव में कांग्रेस की हार के बाद राहुल गांधी ने 10 अगस्त 2019 को पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दे दिया था। पहली बार वे 16 दिसम्बर 2017 को अध्यक्ष बने थे, तब सोनिया गांधी ने 1998 के बाद यह पद उनके लिए छोड़ा था। साल 2019 में कांग्रेस के चुनाव हारने के बाद तब के अध्यक्ष राहुल गांधी ने चार पेज की एक चिट्ठी लिखी थी।
इसमें राहुल ने कहा था कि कांग्रेस में शक्तिशाली लोग सत्ता से चिपके रहना चाहते हैं कोई सत्ता का त्याग करने का साहस नहीं दिखाता। हमें सत्ता की इच्छा के बिना त्याग और गहरी वैचारिक लड़ाई लड़ने की ज़रूरत है, उसके बिना हम अपने विरोधियों को नहीं हरा पाएंगे, लेकिन शायद किसी कांग्रेसी नेता ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया।
1998 से अब तक के 23 साल में सिर्फ सोनिया और राहुल गांधी अध्यक्ष रहे। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या के बाद हालांकि सोनिया गांधी ने कांग्रेस की ज़िम्मेदारी संभालने से इनकार कर दिया था, लेकिन 1998 में सीताराम केसरी को हटाकर वे अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठीं।
आज़ादी के बाद का यदि कांग्रेस का इतिहास देखें तो अब तक कुल 19 कांग्रेस अध्यक्ष बने हैं, पहले अध्यक्ष जेबी कृपलानी थे। कांग्रेस की चुनावी जीत का इतिहास देखा जाए तो इन 74 साल में हुए 17 आम चुनावों में 7 बार गैर नेहरू-गांधी नेता कांग्रेस अध्यक्ष रहा, उनमें 4 बार चुनाव जीते। जबकि नेहरू-गांधी परिवार के रहते हुए 10 चुनावों में से चार में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा।
आज़ादी के बाद से 14 गैर नेहरू-गांधी कांग्रेसी अध्यक्ष रहे हैं और उनकी सफलता की दर 57 फीसद रही है। राजीव गांधी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी तीनों के ही नेतृत्व में कांग्रेस ने चुनाव हारे हैं।
नेहरू-गांधी परिवार के नेता यानी सोनिया गांधी और राहुल गांधी के रहते हुए कांग्रेस लोकसभा में अपनी सबसे कम सीटों 2014 में 44 और 2019 में 52 पर पहुंच गई। चुनावी लोकतंत्र की लड़ाई लड़ने वाली कांग्रेस समेत ज़्यादातर राजनीतिक पार्टियां अंदरूनी लोकतंत्र पर भरोसा नहीं करतीं, इसलिए यह मान लेना कि कांग्रेस ने जो अगले साल तक का अपना चुनावी कैलेंडर घोषित किया है, उससे पार्टी को राष्ट्रीय स्तर पर नया चुना हुआ अध्यक्ष मिल जाएगा।
इस बात को मानने में भी कोई परहेज़ नहीं कि बाग़ी नेताओं में से ज्यादातर का कोई बड़ा जनाधार नहीं है और उनके भरोसे कांग्रेस ज़्यादा ताकतवर हो पाएगी या ज्यादा सीटें जीत जाएंगी, इसका दावा भी नहीं किया जा सकता।
बाग़ी से दिखने वाले नेताओं की कसमसाहट या बेचैनी आमतौर पर सत्ता से दूर होना है और फिर राज्यसभा की सीट नहीं मिलना भी है। ज़्यादातर नेता आज भी जनता की कोई लड़ाई सड़क पर उतर कर लड़ने को तैयार नहीं दिखते।
ज़रूरी है गांधी परिवार!
कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि सवाल इनकी योग्यता पर नहीं है, सवाल तो यह है कि इनमें से ज़्यादातर नेता नेहरू-गांधी परिवार की मेहरबानी की वजह से ही हमेशा टिकट और फिर मंत्री पद पाते रहे हैं, बल्कि उनकी वजह से पुराने कार्यकर्ताओं और नेताओं का नुकसान होता रहा है, इसलिए उनके आने-जाने से कोई नुकसान पार्टी को नहीं होगा। वरिष्ठ नेता ने कहा कि पार्टी बिना गांधी परिवार के नहीं चल सकती, कम से कम आज का सच यही है, और आपको इसमें कोई परेशानी है क्या?
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