(...गतांक से आगे)जहाँ तक केरल का सवाल है, 2018 में लेफ़्ट सरकार द्वारा जबरन भूमि अधिग्रहण का विरोध करने वाले किसानों के टेंट माकपा कार्यकर्ताओं ने जला दिए जिसके विरुद्ध व्यापक विरोध हुआ और जिसके नतीजे 2019 के लोकसभा चुनावों में देखने को मिल गए। लंबे समय से लेफ़्ट केरल में अपना कोई स्थाई आधार नहीं बना सके और अब एंटी इनकम्बेंसी साफ़ दिखायी पड़ रहा है।
क्यों लेफ़्ट पिछड़ता चला गया, बीजेपी आगे निकल गयी?
- राजनीति
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- 14 Dec, 2020

आज़ादी के बाद के दशकों में हुए देश के सबसे बड़े किसान आंदोलन को घूम फिर कर लेफ़्ट के साथ जोड़कर क्यों देखा जा रहा है? क्या लेफ़्ट वाक़ई नए सिरे से प्रभावशाली शक्ति के रूप में उभर रहा है? या भारत में लेफ़्ट का सूरज अस्त हो गया? सत्य हिंदी इस पर एक शृंखला प्रकाशित कर रहा है। आज दूसरी कड़ी में पढ़िए क्यों आख़िर वामपंथ पिछड़ता गया और बीजेपी आगे आ गई...
(2) ताक़तवर हो जाने के बावजूद लेफ़्ट ने न जाने क्यों कभी अपने दम पर ताल ठोंकने की हिम्मत नहीं जुटाई? क्यों वे अन्य 'बुर्ज़ुआ' पार्टियों के पिछलग्गू बने अपने कार्यकर्ता और प्रकारांतर से आम जनता को अपने 'शत्रु नंबर 1 और शत्रु नंबर 2 की परिभाषाएँ देने में ही उलझे रहे। आज़ादी के बाद से लेकर आज तक वे कभी नेहरू और पटेल में तो कभी कांग्रेस (आई) और कांग्रेस (ओ) में, कभी इंदिरा गाँधी और जयप्रकाश में तो कभी जनता पार्टी और कांग्रेस (आर) में, कभी राजीव गाँधी और विश्वनाथ प्रताप में तो कभी पीवी नरसिंहराव के नेतृत्व वाली कांग्रेस और अटलबिहारी वाजपेयी वाली बीजेपी में और अब नरेंद्र मोदी और सोनिया गाँधी में 'मुख्य शत्रु' और 'प्रधान अंतर्विरोध' की तलाश करते रहे। उनके उलझाव पूर्ण क़दमों के नतीजों ने न सिर्फ़ उनके काडर को भ्रमित किया बल्कि आम जनता में भी उसका दिग्भ्रमित सन्देश गया जिसका खामियाज़ा उन्हीं को उठाना पड़ा।