पश्चिम बंगाल में भारतीय जनता पार्टी की बढ़ती लोकप्रियता राज्य की धर्मनिरपेक्ष, उदार और बौद्धिक राजनीति पर कई सवाल तो खड़े करती ही है, यह दूसरे राजनीतिक दलों की नीतियों और उनके कामकाज के तौर-तरीकों पर भी सवाल उठाती है। आख़िर क्या कारण है कि हाल फ़िलहाल तक राज्य की राजनीति के हाशिए पर खड़ी पार्टी सत्ताधारी दल को चुनौती दे रही है। बंगाली भद्रलोक और सांस्कृतिक-बौद्धिक रूप से संपन्न लोगों की भाषा अचानक उत्तेजक और आक्रामक क्यों हो गई है?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब बुधवार को कोलकाता के ब्रिगेड परेड ग्राउंड पर भारी भीड़ को संबोधित किया तो जो बात लोगों को चौंका रही थी, वह थी वहाँ मौजूद युवाओं की भीड़। ‘मोदी! मोदी!’ के नारे लगा रही युवाओं की टोली चर्चा के केंद्र में इसलिए है कि पश्चिम बंगाल की छात्र राजनीति में बीजेपी के संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का नामलेवा आज भी नहीं है। पश्चिम बंगाल की छात्र राजनीति पर आज भी वाम छात्र संगठनों, कांग्रेस के संगठन छात्र परिषद और उससे अलग हुए तृणमूल छात्र परिषद के लोगों का ही कब्जा है। तो क्या ये युवक तमाशबीन थे जो गाँवों से कोलकाता की मुफ़्त सैर करने आए थे या उन्हें मोदी का आकर्षण खींच लाया। इसका सही जवाब कुछ दिन बाद ही मिल पाएगा, जब लोकसभा चुनाव के नतीजे आ जाएँगे।
बीजेपी को मिला था ममता का समर्थन
एक बात जो बिल्कुल साफ़ है और जिससे इनकार करना किसी पार्टी के लिए आसान नहीं है, वह यह है कि राज्य में बीजेपी की लोकप्रियता बढ़ी है। नए-नए लोग बीजेपी से जुड़े हैं और अब यह ‘अछूत’ पार्टी नहीं रही। इसका श्रेय तृणमूल कांग्रेस और उसकी नेता ममता बनर्जी को ही है। अटल बिहारी वाजेपयी की सरकार में रेल मंत्री बनीं ममता बनर्जी ने तब बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का फ़ैसला किया था। हालाँकि बीजेपी को कोई कामयाबी तो नहीं मिली, पर उसकी मौजूदगी दर्ज हो गई थी। उस समय तक बीजेपी का पश्चिम बंगाल में कोई आधार नहीं था। उस समय वामपंथी दलों और कांग्रेस पार्टी ने ममता को यह कह कर आड़े हाथों लिया था कि उन्होंने बीजेपी जैसी पार्टी को राज्य में घुसने का मौका दिया। तृणमूल कांग्रेस ने जल्द ही बीजेपी से नाता तोड़ लिया और अलग हो गई।
आज बीजेपी उसी तृणमूल सरकार को ललकार रही है। पर्यवेक्षकों का कहना है कि इसके लिए ममता बनर्जी की नीतियाँ ज़िम्मेदार हैं। ममता बनर्जी को ऐसा लग रहा है कि वाम मोर्चा को उखाड़ फेंकने के लिए मुसलमानों का वोट ज़रूरी है क्योंकि राज्य की राजनीति में उनकी ख़ास मौजूदगी है। पश्चिम बंगाल में लगभग 30 प्रतिशत मुसलिम मतदाता हैं।
ममता बनर्जी पर यह आरोप है कि उन्होंने मुसलिम तुष्टीकरण की नीतियाँ अपनाईं। यह एकाएक नहीं था, बल्कि बनर्जी की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा था, जिसके तहत वह ध्रुवीकरण को बढ़ावा दे रही थीं।
तुष्टीकरण का आरोप
बीजेपी ने इसका भरपूर फ़ायदा उठाया। जिस तरह उसने 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पर तुष्टीकरण की राजनीति करने का आरोप लगाया था, उसी तरह तृणमूल पर वही आरोप लगाया। इसका नतीजा यह हुआ कि वोटों का ध्रुवीकरण होने लगा। यह समझा जाने लगा कि मुसलमान वाम मोर्चा से कट कर तृणमूल की ओर खिसकने लगे हैं तो हिन्दुओं के एक वर्ग को बीजेपी की बातें अच्छी लगने लगीं।
इसका नतीजा भी दिखने लगा। पश्चिम बंगाल में बीजेपी को पहले कभी भी 5 प्रतिशत से ज़्यादा वोट नहीं मिले थे। लेकिन 2009 के चुनाव में उसे तकरीबन 6.5 प्रतिशत वोट मिले। मामला यही नहीं रुका रहा। वाम मोर्चा के पराभव के बाद स्थिति थोड़ी और बिगड़ी, 2014 के चुनाव में बीजेपी को पश्चिम बंगाल में लगभग 16 प्रतिशत वोट मिले। यह चौंकाने वाली बात इसलिए थी कि बंगाल के गाँवों में बीजेपी को वोट मिले थे और कई जगहों पर उसके उम्मीदवारों ने अच्छा प्रदर्शन किया था। पर्यवेक्षकों का कहना है कि इसके लिए वाम मोर्चा का पतन ज़िम्मेदार है।
कृषि सुधारों की वजह से पश्चिम बंगाल में एक बड़ा ग्रामीण मध्यवर्ग बना था, जो वामपंथी दलों से जुड़ा हुआ था। ग्रामीण अर्थव्यवस्था के मज़बूत होने का फ़ायदा इसी वर्ग को मिला था। लेकिन जब वाम मोर्चा सरकार नहीं रही तो वह मध्यवर्ग टूटा, जिसका बड़ा हिस्सा तृणमूल के पास गया तो एक बहुत ही छोटा हिस्सा बीजेपी की झोली में भी जा गिरा।
इसके बाद 2016 में हुए विधानसभा चुनावों में वाम मोर्चा की स्थिति बदतर हुई, लेकिन बीजेपी का वोट शेयर गिर कर 10 प्रतिशत पर आ गया। पर्यवेक्षकों का कहना है कि इसकी वजह यह थी कि लोगों को ऐसा लगा था कि राज्य की राजनीति में बीजेपी नहीं है तो उसे वोट क्यों दिया जाए। फिर भी उसके तीन विधायक चुने गए।
नंबर दो बनी बीजेपी
उसके बाद 2018 में हुए पंचायत चुनाव में बीजेपी ने अपनी धमाकेदार मौजूदगी का अहसास कराया। उसने लगभग 5,500 पंचायत सीटों पर जीत दर्ज की, दूसरी सैकड़ों सीटों पर वह दूसरे नंबर पर आई। वाम मोर्चा को लगभग 1400 सीटों पर ही जीत मिली। कांग्रेस उससे भी नीचे गई। नतीजा यह हुआ कि बीजेपी पंचायत चुनावों में राज्य की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बन गई, सीपीएम से ऊपर। पर्यवेक्षकों का कहना है कि इसके पीछे मुख्य कारण ख़ुद को मुसलमानों का हितैषी दिखाने की ममता बनर्जी की होड़ है, जिसमें वह वाम मोर्चा की ज़मीन छीनने की रणनीति पर काम कर रही थीं। लेकिन एक तरह से वह बीजेपी के उस आरोप को भी हवा दे रही थीं कि वह हिन्दुओं की परवाह नहीं करतीं।
बीते 5 साल में राज्य में कई छोटे-मोटे दंगे हुए, कुछ झड़पें हुईं, कई लोग मारे गए। इनमें हिन्दू और मुसलमान दोनों ही शामिल थे, लेकिन बीजेपी ने मीडिया के एक हिस्से की मदद से यह स्थापित कर दिया कि पश्चिम बंगाल में हिन्दू हिंसा के शिकार हो रहे हैं।
साल 2018 के मुहर्रम के दिन ही विजयदशमी थी, जिस दिन दुर्गा प्रतिमा का विसर्जन होता है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने प्रतिमा विसर्जन पर रोक लगा कर मुर्हरम का जुलूस निकालने की अनुमति दे दी। हालाँकि उसके तुरंत बाद पश्चिम बंगाल सरकार ने प्रतिमा विसर्जन रंगारंग कार्यक्रम के दौरान कराया और उसमें ख़ुद मुख्यमंत्री मौजूद थीं, पर वह बीजेपी के प्रचार को रोक नहीं सकीं।
अमित शाह की रणनीति
बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने पश्चिम बंगाल को काफ़ी पहले ही निशाने पर लिया था और उसी हिसाब से शतरंज की गोटियाँ बिठा रहे थे। सारदा चिटफंड घोटाले में फँसे ममता बनर्जी के क़रीबी मुकुल राय पर पहले सीबीआई की जाँच शुरू कराई गई। अमित शाह ने बाद में मुकुल राय को अपनी ओर खींचा। मुकुल राय के बीजेपी में शामिल होने के बाद सारदा घोटाले में उनकी भूमिका की जाँच ठंडे बस्ते में डाल दी गई। उनके शामिल होने के बाद से अब तक एक बार भी सीबीआई ने उनसे पूछताछ नहीं की है, न ही कोई सम्मन भेजा है।ममता बनर्जी को लपेटे में लेने के लिए सीबीआई ने उनके विश्वस्त पुलिस अफ़सर और कोलकाता पुलिस के प्रमुख राजीव कुमार को गिरफ़्तार करने की योजना बनाई। ममता बनर्जी ने इस पर इतना बड़ा हंगामा खड़ा कर दिया कि केंद्र सरकार को पैर वापस खींचने पड़े।
आज पूरे देश में उग्रवाद का दौर है, अंध राष्ट्रभक्ति का जूनून है, पुलवामा आतंकवादी हमले और बालाकोट हवाई हमले के बल पर चुनाव लड़ा जा रहा है। पश्चिम बंगाल इससे अछूता नहीं रह सकता। नरेंद्र मोदी ने बुधवार को कोलकाता के ब्रिगेड परेड ग्राउंड में भी ये ही मुद्दे उठाए। उन्होंने वहाँ भी कहा कि लोग बालाकोट हमले पर सवाल कर रहे हैं और सूबत माँग रहे हैं। मोदी ने पश्चिम बंगाल के विकास की कोई बात नहीं की, वहां के बंद पड़े कारखानों की कोई चर्चा नहीं की, बेरोज़गार युवाओं को नौकरी देने की कोई बात नहीं की। इसके बावजूद युवा यदि ‘मोदी! मोदी!’ के नारे लगा रहे थे तो बीजेपी की मौजूदगी बिल्कुल साफ़ है।
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