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शहादत का यह कैसा सम्मान, सरकारी रिकॉर्ड में शहीद शब्द तक नहीं?

पुलवामा हमले में जान गँवाने वाले जवानों को ‘शहीद’ बताने की चुनावी रैलियों में होड़ मची है। चुनावी माहौल है तो इन ‘शहीदों’ के घर नेताओं का ताँता लगा है, चुनावी मंच पर इन जान गँवाने वालों की तसवीरें हैं और साथ में हैं इन्हें ‘शहीद’ बताने वाले शब्द। लेकिन वहाँ शहीदों के परिजनों की न तो व्यथा दिखती है और न ही उनकी समस्याओं का ज़िक्र होता है। शहादत पर सिर्फ़ बड़ी-बड़ी बातें हैं! लेकिन हैरानी की बात यह है कि सैनिकों की शहादत की बात करने वाले सरकारी रिकॉर्ड में शहीद का दर्जा तक नहीं दिला पाये हैं। सरकार का ही साफ़ तौर पर कहना है कि इसके रिकॉर्ड में ‘मार्टर’ या ‘शहीद’ नाम का कोई शब्द नहीं है। सरकार की यह सफ़ाई तब आई जब सीआरपीएफ़ जैसे अर्धसैनिक बलों में जान गँवाने वाले जवानों को शहीद का दर्जा देने की माँग की गयी।

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शहीद का दर्जा देने को लेकर कई बार आरटीआई से सरकार से जवाब माँगा गया। सरकार ने इसका हर बार जवाब भी दिया। 2017 में केंद्रीय सूचना आयोग को अपने जवाब में रक्षा और गृह मंत्रालय ने साफ़ तौर पर कहा कि  ‘मार्टर’ या ‘शहीद’ शब्द न तो सेना में और न ही अर्धसैनिक बलों या पुलिस में जान गँवाने वाले जवानों के लिए किया जाता है। दोनों मंत्रालयों ने कहा कि इसके लिए ‘बैटल कैजुअल्टी’ या ‘ऑपरेशन कैजुअल्टी’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। ‘बैटल कैजुअल्टी’ का शाब्दिक अर्थ ‘हमले में हताहत’ और ‘ऑपरेशन कैजुअल्टी’ का मतलब ‘अभियान में हताहत’ जैसा हो सकता है।

सरकार ने कोर्ट में भी कहा, शहीद का दर्जा नहीं

अर्धसैनिक बलों के जान गँवाने वाले जवानों को शहीद का दर्जा दिये जाने की माँग करने वाली एक याचिका पर सुनवाई के दौरान दिल्ली हाई कोर्ट में रक्षा और दूसरे मंत्रालयों ने भी कहा था कि शहीद शब्द इस्तेमाल में ही नहीं है।

रक्षा और गृह मंत्रालय ने कोर्ट में शपथ-पत्र देकर कहा था कि थलसेना, वायुसेना और नौसेना में 'शहीद' का प्रयोग नहीं किया जाता है। दोनों मंत्रालयों ने यह भी साफ़ किया था कि ऐसी कोई अधिसूचना भी जारी नहीं की गयी है।

इसका मतलब साफ़ है कि सरकार न तो सेना और न ही अर्धसैनिक बलों के जवानों के लिये रिकॉर्ड में ‘शहीद’ शब्द का इस्तेमाल नहीं करती है। अब यदि अर्धसैनिक बलों को शहीद का दर्जा दे भी दिया जाए तो क्या कुछ बदलेगा भी? यानी जान गँवाने वाले जवानों के परिजनों को क्या कोई विशेष फ़ायदा हो सकता है?

सेना और अर्धसैनिक बलों में जान गँवाने वाले जवानों के परिजनों को उनके अपने अलग-अलग सेवा नियमों के तहत आर्थिक सहायता दी जाती है। इसी संदर्भ में संसद में गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजू ने कहा था कि अर्धसैनकि बल और सेना की तुलना एक दूसरे से नहीं की जा सकती क्योंकि उनके सेवा नियमों में में बहुत फर्क़ होता है। इधर, हालाँकि सरकार से मिलने वाली सुविधाओं में बहुत बड़ा फ़र्क नहीं है लेकिन सेना का अपना सपोर्ट नेटवर्क इसे ख़ास बना देता है। भारत में सेना के पास अपने आश्रितों के लिए बहुत तगड़ा सपोर्ट नेटवर्क है। आर्मी सेंट्रल वेलफेयर फंड या फिर आर्मी वाइव्स वेलफेयर असोसिएशन। सेना का अपना ग्रुप इंश्योरेंस भी होता है।  

सेना में जान गँवाने वालों के लिये 

  • युद्ध या युद्ध जैसी स्थिति में कार्रवाई में जान जाने पर (विशेष अधिसूचित होने पर)  – 20 लाख
  • मुठभेड़ जैसे एक्शन यानी कार्रवाई में जान जाने पर – 15 लाख
  • सामान्य ड्यूटी में जान गँवाने पर – 10 लाख

दूसरी सुविधाएँ

  • जवान के आख़िरी वेतन के बराबर परिजनों को पेंशन
  • जवान के आख़िरी वेतन और सेवा काल के अनुसार ग्रेच्यूटी 
  • आर्मी ग्रुप इंश्योरेंस फ़ंड से अफ़सरों को 50 लाख और उससे नीचे के रैंक वालों को 25 लाख
  • आर्मी वाइव्स वेलफेयर एसोसिएशन फ़ंड अफ़सरों को 10 हज़ार और निचले रैंक वालों को 15 हज़ार रुपये
  • आर्मी ऑफ़सर्स बेनवलंट फ़ंड 50 हज़ार रुपये
  • आर्मी सेंट्रल वेलफेयर फ़ंड 30 हज़ार रुपये
  • शिक्षा, हवाई और ट्रेन यात्रा में छूट जैसी कुछ अन्य सुविधाएँ भी मिलती हैं
  • इसके अलावा राज्य सरकारें भी अलग-अलग सहायता की घोषणा करती हैं

अर्धसैनिक बलों में जान गँवाने वालों के लिए

जैसा कि गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजू ने लोकसभा में बयान दिया है।

  • मुठभेड़ जैसे एक्शन यानी कार्रवाई में जान जाने पर – 35 लाख
  • युद्ध या युद्ध जैसी स्थिति में कार्रवाई में जान जाने पर (विशेष अधिसूचित होने पर) – 45 लाख
  • सामान्य ड्यूटी में जान गँवाने पर – 25 लाख
  • जवान के आख़िरी वेतन के बराबर परिजनों को पेंशन
  • ग्रुप सी और डी की नौकरियों में 5 फ़ीसदी का आरक्षण
  • शहीद सैनिक की बेटी को 2250 रुपए और बेटे को 2000 रुपए महीने का वजीफ़ा
  • देश भर में केंद्रीय पुलिस कैंटीन की सुविधा
  • परिजनों के लिए कल्याण और पुनर्वास बोर्ड 
  • मेडिकल, इंजीनियरिंग कॉलेजों में दाख़िला जैसी कुछ अन्य सुविधाएँ भी मिलती हैं
  • इसके अलावा राज्य सरकारें भी अलग-अलग सहायता की घोषणा करती हैं
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शहीद के परिजनों की परेशानियाँ

शहीदों के परिजनों के लिए सरकारें आर्थिक सहायता की घोषणा तो कर देती हैं, लेकिन वह राशि मिलने में काफ़ी वक़्त लग जाता है। कई मामलों में तो बूढ़े माँ-बाप को वर्षों तक मशक्कत करनी पड़ती है। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, हेमराज के छोटे भाई जयवीर कहते हैं कि जवान के शहीद होने के कुछ दिन बाद ही सरकार और सिस्टम शहीद के परिवार वालों को भूल जाते हैं।

  • 22 फ़रवरी को प्रकाशित न्यूज़-18 की रिपोर्ट के अनुसार उरी हमले में शहीद हुए यूपी के जौनपुर के भकुरा गाँव के जवान राजेश सिंह के पिता राजेन्द्र सिंह को शहादत के ढाई साल बीत जाने के बाद भी पाँच लाख की सहायता राशि नहीं मिल सकी है। शहीद के पिता नेताओं और मंत्रियों के पास चक्कर लगा लगा कर थक हार चुके हैं। 25 लाख रुपए परिजनों को मिलने थे। इसमें से 20 लाख शहीद की पत्नी को तो दे दिए गए। लेकिन 5 लाख का जो चेक उनके पिता को नहीं मिला।
  • 2013 में पाकिस्तान एक्शन टीम (बैट) ने मथुरा निवासी लांस नायक हेमराज का सिर काट ले गए थे। 'वन इंडिया' वेबसाइट के अनुसार, हेमराज के छोटे भाई जयवीर ने बताया कि जवान के शहीद होने के कुछ दिन बाद ही सरकार और सिस्टम शहीद के परिवार वालों को भूल जाते हैं। उन्होंने कहा कि भाई के जाने के बाद सरकार ने न कोई शहीद स्मारक बनवाया और न ही पेट्रोल पम्प दिया। इसके लिए दिल्ली से लेकर लखनऊ तक चक्कर काटे लेकिन ऐसे वादे सब झूठे साबित हो जाते हैं, कोई सुनने वाला नहीं है। दिल्ली में मंत्रियों के पास कई बार चक्कर लगाता रहा लेकिन कुछ नहीं हुआ। 
  • 'ज़ी न्यूज़' की एक रिपोर्ट के अनुसार, झारखंड के पुरानी साहिबगंज के बीके यादव पिछले साल जुलाई में जम्मू-कश्मीर में ड्यूटी करते हुए आतंकवादियों के हमले में शहीद हो गए थे। शहीद सैनिक बीके यादव का परिवार एक साल बाद भी आर्थिक सहायता और नौकरी के लिए दर-दर भटक रहा है। सरकार ने शहीद के परिजन को दो लाख रुपये और एक आश्रित को नौकरी देने का वादा किया था।
  • ‘दैनिक भास्कर’ की रिपोर्ट के अनुसार, राजस्थान के श्याम नगर निवासी देवीसिंह बारामूला में आतंकवादियों से मुठभेड़ में 21 अगस्त 2000 को शहीद हो गए। घोषणा के बाद भी स्कूल का नामकरण नहीं हुआ है, प्रतिमा की स्थापना नहीं की गई है। राजस्थान के ही अज़ान निवासी शहीद वीरेंद्र सिंह 25 जून 1999 कारगिल युद्ध में शहीद हुए थे। लेकिन परिवार में किसी को नौकरी नहीं मिली है।

तो क्या चुनावी रैलियों में भाषण देने से ही जवानों की शहादत को याद किया जा सकता है? शहीद हुए जवानों के माता-पिता और उनके बच्चों के सामने आ रही दिक्कतों को दूर कौन करेगा? जवानों की शहादत पर चीख़-चीख़ कर दिये जा रहे भाषणों में क्या इनकी समस्यायों का भी ज़िक्र होगा?

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क़मर वहीद नक़वी
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