पुलवामा हमले में जान गँवाने वाले जवानों को ‘शहीद’ बताने की चुनावी रैलियों में होड़ मची है। चुनावी माहौल है तो इन ‘शहीदों’ के घर नेताओं का ताँता लगा है, चुनावी मंच पर इन जान गँवाने वालों की तसवीरें हैं और साथ में हैं इन्हें ‘शहीद’ बताने वाले शब्द। लेकिन वहाँ शहीदों के परिजनों की न तो व्यथा दिखती है और न ही उनकी समस्याओं का ज़िक्र होता है। शहादत पर सिर्फ़ बड़ी-बड़ी बातें हैं! लेकिन हैरानी की बात यह है कि सैनिकों की शहादत की बात करने वाले सरकारी रिकॉर्ड में शहीद का दर्जा तक नहीं दिला पाये हैं। सरकार का ही साफ़ तौर पर कहना है कि इसके रिकॉर्ड में ‘मार्टर’ या ‘शहीद’ नाम का कोई शब्द नहीं है। सरकार की यह सफ़ाई तब आई जब सीआरपीएफ़ जैसे अर्धसैनिक बलों में जान गँवाने वाले जवानों को शहीद का दर्जा देने की माँग की गयी।