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क्या ज़ायरा वसीम और नुसरत जहाँ सही मायने में हैं आज़ाद?

हाल ही में दो बड़ी दिलचस्प घटनाएँ घटीं। इनमें से पहली घटना थी- माननीय सांसद का टेलीविजन सीरियल की ‘आदर्श बहू’ के यूनीफ़ॉर्म में संसद में पदार्पण और उनकी ट्रोलिंग। दूसरी, घटना थी -अठारह साल की ज़ायरा वसीम का अपने ‘ईमान’ की रक्षा में अर्ली रिटायरमेंट। 

यहाँ सवाल अठारह साल की एक युवा से नहीं है, जो पिछले पाँच सालों से रूढ़िवादियों का दबाव सहते-सहते आख़िर हार गयी। उससे हम किसी आंदोलन या विद्रोह की उम्मीद क्यों करें? एक समाज के रूप में उसे सहारा देने में हम कितना सफल रहे हैं? यहाँ कठघरे में उस समाज को रखे जाने की ज़रूरत है जो कभी धर्म, तो कभी नैतिकता की आड़ में लैंगिक-वर्चस्व की यथास्थिति को बनाए रखना चाहता है। उन उदारवादी बुद्धिजीवियों पर भी बात किए जाने की ज़रूरत है जो औरतों के साथ हो रहे ज़ुल्मों पर महज़ इस डर से चुप्पी साधे रहते हैं कि कहीं ‘धर्मनिरपेक्ष’ होने की उनकी साख पर ख़तरा न आ जाए।

विचार से ख़ास

यहाँ सवाल लैंगिक शोषण, पितृसत्तात्मक ढाँचे और रीति-रिवाज़ों तथा धर्म के नाम पर सुरक्षित किए जा रहे लैंगिक-यथास्थितिवाद का था। यह स्त्रियों में लैंगिक-चेतना तथा एक स्त्री के रूप में अपनी धार्मिक हैसियत सम्बंधी समझ का भी सवाल था। क्या यह समाज के पितृसत्तात्मक ढाँचे का ही एक हिस्सा नहीं है, जिसमें ‘अच्छी स्त्री’ के लिए निर्धारित नियमों, संहिताओं और आदेशों का एक कठोर जाल है। परिवार नाम के एक ‘सुरक्षित’ क़रार दिए गए इस कोकून के भीतर वापस लौट जाने में कहाँ पर ‘चयन’ है और कहाँ ‘स्वतंत्रता’? यहाँ चुनने के लिए है ही क्या? क्या स्त्रियों के लिए ‘चयन’ और ‘स्वतंत्रता’ शब्दों के कुछ अलग मायने हैं? क्या आदेशों का पालन करना ही एक स्त्री के लिए ‘स्वतंत्रता’ है?

पितृसत्ता को चुनौती देने का परिणाम

महिलाओं के किस तरह के ‘चयन’ को पसंद किया जाता है इसका कुछ अंदाज़ा ज़ायरा वसीम और 'नुसरत जहाँ रूही जैन' के प्रसंगों में हुई पक्ष और विपक्ष की बहसों से लग जाता है। नुसरत जहाँ के ‘हिन्दू शृंगार’ को स्वतंत्र चुनाव कहने वाले लोगों को विवाहिता हिन्दू स्त्री के लिए अनिवार्य बनाए गए ‘सिंदूर-चूड़ी’ का ‘चयन’ तो रुचिकर लग रहा था लेकिन इन्हें ही ज़ायरा की ‘ईमान’ बचाने की कोशिश पिछड़ी हुई लग रही थी। वहीं दूसरी ओर की पितृसत्ता को आदर्श बेटी ज़ायरा का घर में बंद होने का फ़ैसला तो 'चयन का अधिकार' लगा लेकिन नुसरत का शृंगार ग़ैर वाजिब। यहाँ तक कि उनके विवाह को भी अवैध क़रार दिया गया। कितनी समानता है न इन दोनों में! दोनों एक ही सिक्के - पितृसत्ता के दो पहलू जो हैं- हिन्दू तथा इसलामिक पितृसत्ताएँ। दोनों ओर अपने धार्मिक नियम-क़ायदों के अधीन रहने वाली महिलाओं के लिए ही जगह है। लेकिन अगर किसी महिला ने तस्लीमा नसरीन या गौरी लंकेश बनकर अपने-अपने धर्म की पितृसत्ताओं को चुनौती देने की कोशिश की, तब यह कितने ‘चयन की स्वतंत्रता’ और ‘स्त्री के अधिकार’ के हामी हैं, पता लगते देर नहीं लगती।

एक स्त्री के 'चयन का अधिकार' तभी तक बड़ाई के क़ाबिल है, जब तक वह किसी न किसी धर्म की रूढ़ियों के पैरों तले है और उसके पीछे समर्थन-अनुमोदन करती उन्मादी धार्मिकों की एक भीड़ खड़ी है।

ज़ायरा का राजनीतिक स्टैंड

पिछले हफ़्ते जो एक तर्क सबसे अधिक दिया गया, वह था - निजता का तर्क। कहा गया कि यह इन महिलाओं का निजी मामला है। यह भी कहा गया कि हम होते कौन हैं उनके निजी फ़ैसले पर बोलने वाले। ऐसा कहने वालों को ध्यान देना चाहिए कि ज़ायरा द्वारा किसी धर्मग्रंथ की आयतों को उद्धृत करके सार्वजनिक पोस्ट लिखना कहीं से भी एक निजी क़दम नहीं था। वह चुपचाप कहीं अंधेरे में गुम नहीं हो गयी। उसने एक राजनीतिक स्टैंड लिया- स्त्री-विरोधी स्टैंड। यह स्टैंड अक्सर पितृसत्ता से समझौता करने वाली स्त्रियाँ लिया करती हैं। यह लैंगिक संरचना और आक्रामक पितृसत्ता के हर दिन पड़ते दबाव के सामने आत्मरक्षा के लिए घुटने टेक देने वाली स्त्री का फ़ैसला होता है। तस्लीमा ने ठीक ही ज़ायरा के इस क़दम को निजी इसलाम के बजाय ‘राजनीतिक इसलाम’ कहा है। इस राजनीतिक इसलाम पर बात न करके इसे किसी का व्यक्तिगत चयन कहना स्त्रियों को मूर्ख बनाना है।

जिस तरह कार्ल मार्क्स ने धर्म को सर्वहारा के शोषण का उपकरण कहा था, उसी तरह सिमोन द बोउआ ने धर्म को औरतों के शोषण के उपकरण के रूप में पहचाना था। वह लिखती हैं,‘अन्य (धर्मों) के अलावा यहूदियों, मुसलमानों तथा ईसाइयों में (भी) पुरुष को स्वामित्व का दैवीय अधिकार प्राप्त है और यहाँ ईश्वर का डर पददलित महिलाओं में विद्रोह के किसी भी आवेग का दमन करने के लिए काफ़ी है।’

औरतों के शोषण के प्रति तल्ख़ क्यों नहीं?

जब हम औरतों की ज़िंदगी से रूबरू होते हैं तो उनके शोषण के प्रति उतने तल्ख़ नहीं रह जाते जितने धर्म, जाति या वर्ग से जुड़े शोषण को लेकर होते हैं। एक समाज के रूप में अपनी विफलता से भी हम मुँह छिपाना चाहते हैं- जो औरतों को उनकी अपनी कामयाबी पर नाज़ करने का आत्मविश्वास देने के बजाय, उन्हें अपनी क़ाबिलियत पर आत्मग्लानि और लज्ज़ा से भरकर अवसाद में जाने के लिए छोड़ देता है। हम इसे एक महिला का ‘निजी मामला’ कहकर हाथ झाड़ लेना चाहते हैं। उमर अब्दुल्ला जैसे राजनेता का ज़ायरा का ‘निजी मामला’ बताना और उसके पीछे के कट्टरपंथी दबाव की उपेक्षा करना वैसा ही है जैसे मध्यवर्गीय मुहल्लों में पड़ोस में पिटती महिला का रुदन हमें ‘उनके घर का निजी मामला’ लगता है। वह हमें उद्वेलित नहीं करता।

दरअसल ज़ायरा और नुसरत जहाँ दोनों ने ही जो कहा और किया वह न तो 'निजी' था और न ही 'स्वतंत्र'। इन दोनों ही चुनावों के पीछे धर्मशास्त्र है, जिसके कुछ निर्धारित नियम हैं और जिनका पालन अधिकांश औरतों से गले पर चढ़कर करवाया जाता है।

किसी मध्यवर्गीय हिन्दू परिवार में नवविवाहिता वधू अगर सिंदूर लगाने या लहठी-चूड़ी पहनने से इनकार कर दे और सफ़ेद साड़ी पहनकर घूमने लगे तो क्या उसके इस ‘चयन के अधिकार’ का समर्थन करने वे लोग आयेंगे जो नुसरत के शृंगार की क्रिया को ‘21वीं सदी की आधुनिक महिला के उभार’ के रूप में देख रहे हैं?

दरअसल, शोषितों को भी समुदाय की ज़रूरत होती है, नहीं तो 'क्रांति' कब की हो गयी होती। वे भी ख़ुद को एक 'सामूहिक मनुष्य' के रूप में स्वीकृत कराना चाहते हैं और एक सुरक्षा-जाल की चाह में शोषण की संरचना से समझौता कर लेते हैं। सामूहिक मनुष्य बनने की कोशिश नुसरत की भी दिखती है। उनका यह शृंगार किसी अल्हड़ किशोरी का शृंगार नहीं है। यह एक राजनीतिक क्रिया है, जिसे एक सांसद-राजनेता ने एक राजनीतिक क़दम के तौर पर संसद में पेश किया है। यह एक दोतरफ़ा बारगेन है- इसमें स्त्री पराधीनता के प्रतीकों की पुष्टि एक महिला (वह भी एक दूसरे धर्म की महिला) द्वारा की गयी है, तो बदले में एक अल्पसंख्यक राजनेता को बहुसंख्यक पितृसत्ता का अथाह समर्थन मिला है।

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छली जा रही है सामान्य स्त्री

इन सबके बीच छली जा रही है एक सामान्य स्त्री। उनमें भी ख़ासकर वे जो युवा हैं, जिसके पास न तो लैंगिक-शोषण को समझने का अवकाश है, न ही विचारधारात्मक परिपक्वता। इस सेलिब्रिटी कूढ़मगजता की शिकार ये आम स्त्रियाँ होंगी जो मेहनत से अपनी जीविका अर्जित करती हैं। युवा, जो बेधड़क सेलिब्रिटी तबक़े से ही जीवन दर्शन लिया करते हैं, उन पर इसका असर न हो यह सम्भव नहीं है। ऐसे में वे लोग जो लिबरल होने का दावा करते हैं अगर इन दोनों ही घटनाओं को स्त्री की ‘स्वतंत्रता’ के उदाहरण कहना चाह रहे हैं, तो यह भोली मासूमियत काफ़ी ख़तरनाक साबित होगी।

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चारू सिंह
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