कहा जाता है कि मुहब्बत और जंग में सब जायज़ है। किसने कहा, इसकी जानकारी तो नहीं, अलबत्ता इतिहास को देखें तो बात मुझे ठीक नहीं लगती। हमारे यहाँ युद्ध को धर्मयुद्ध कहा जाता रहा है और उस युद्ध में जीत से ज़्यादा युद्ध लड़ने के तरीक़ों पर ज़ोर दिया जाता रहा है। युद्ध में नियमों के पालन की बात हमेशा होती रही। और रही बात मुहब्बत की तो सच्ची मुहब्बत में जीतना कभी अहम रहा ही नहीं। न कभी कृष्ण और गोपियों के बीच, न हीर रांझा में और न ही सलीम-अनारकली में। लेकिन अब मुहब्बत और जंग के साथ-साथ चुनावों में भी कुछ भी करना जायज़ माना जाने लगा है क्योंकि चुनाव में अब सिर्फ़ जीत महत्वपूर्ण है।
योगी की जुबान से क्यों बरसती है साम्प्रदायिकता की आग?
- विचार
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- 4 Feb, 2020

गोरक्षनाथ पीठ में मकर संक्रांति पर होने वाले सालाना खिचड़ी मेले में मंदिर परिसर में दुकानें लगाने वाले ज़्यादातर व्यापारी मुसलिम होते हैं। यानी योगी आदित्यनाथ के क्या दो चेहरे हैं- एक चुनावी राजनीति का चेहरा और दूसरा महंत योगी आदित्यनाथ का चरित्र और चेहरा। तो सवाल यह भी है कि क्या चुनाव में जीतना ही सबसे महत्वपूर्ण है?
'जीत' का यह फ़ैक्टर चुनाव में टिकट मिलने के साथ शुरू होता है जहाँ सिर्फ़ 'विनेबिलिटी' यानी जीतने की संभावना ही टिकट की उम्मीदवारी तय करती है, इसलिए ऐन वक़्त पर दूसरी पार्टी से आए धनकुबेरों और अपराधियों को टिकट देने में पार्टियाँ नहीं हिचकिचातीं। और फिर शुरू होता है चुनाव प्रचार अभियान, जहाँ राजनेता सब सीमाएँ तोड़ देते हैं। दिल्ली विधानसभा के चुनाव अभियान में राजनेताओं ने मानो कसम खा ली है कि चुनाव जीतने के लिए कुछ भी बोलना पड़े, उससे वे पीछे नहीं हटेंगे।