कहा जाता है कि मुहब्बत और जंग में सब जायज़ है। किसने कहा, इसकी जानकारी तो नहीं, अलबत्ता इतिहास को देखें तो बात मुझे ठीक नहीं लगती। हमारे यहाँ युद्ध को धर्मयुद्ध कहा जाता रहा है और उस युद्ध में जीत से ज़्यादा युद्ध लड़ने के तरीक़ों पर ज़ोर दिया जाता रहा है। युद्ध में नियमों के पालन की बात हमेशा होती रही। और रही बात मुहब्बत की तो सच्ची मुहब्बत में जीतना कभी अहम रहा ही नहीं। न कभी कृष्ण और गोपियों के बीच, न हीर रांझा में और न ही सलीम-अनारकली में। लेकिन अब मुहब्बत और जंग के साथ-साथ चुनावों में भी कुछ भी करना जायज़ माना जाने लगा है क्योंकि चुनाव में अब सिर्फ़ जीत महत्वपूर्ण है।