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मुसलमानों का भरोसा क्यों नहीं जीत पा रही है मोदी सरकार?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रमज़ान के पवित्र माह के पहले दिन की गई 'मन की बात' में मुसलिम समाज के प्रति एक सद्भाव व्यक्त किया है। उन्होंने कहा कि मुसलिम समाज के लोग घर में रहकर इबादत करें और अल्लाह से दुआ करें कि कोरोना संकट जल्द से जल्द दूर हो जाए। निश्चित तौर पर यह एक स्वागत योग्य कथन है। 

हालांकि नरेन्द्र मोदी ने यह बयान, घरेलू मुसलमानों का विश्वास जीतने की कवायद से ज्यादा मध्य-पूर्व के देशों के दबाव के चलते दिया, ऐसा लगता है। यूएई में करीब 34 लाख भारतीय हैं। जबकि अरब देशों में रहने वाले भारतीयों की संख्या करीब 93 लाख है। इनमें बड़े पदों पर काम करने वाले लोगों से लेकर छोटे कामगार, सभी शामिल हैं। 

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अरब के अन्य देशों ने भी तब्लीग़ी जमात प्रकरण के बाद सोशल मीडिया पर वायरल हुई इसलाम विरोधी पोस्ट्स को शेयर करने वाले ऐसे सांप्रदायिक भारतीयों की पहचान करने और उन्हें वापस भारत भेजने की बात कही है। इसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संभवत: पहली बार ट्वीट करते हुए कहा था कि कोरोना का संबंध किसी धर्म और समाज से नहीं है।

तब्लीग़ी जमात प्रकरण के बाद गोदी मीडिया से लेकर आईटी सेल और कुछ बीजेपी नेताओं तथा हिंदुत्ववादी संगठनों द्वारा मुसलमानों का दानवीकरण किया गया। पूरे देश में बाकायदा एक कैंपेन चलाया गया कि भारत में कोरोना फैलने का कारण मुसलमान हैं।

चुप रहे पीएम और गृह मंत्री 

यह अफवाह फैलाई गई कि मुसलिम आतंकवादियों के द्वारा कोरोना फैल रहा है। इसके  गंभीर और विध्वंसक परिणाम भी हुए हैं। कई निर्दोष मुसलमानों की लिंचिंग हुई है। रेहड़ी लगाने वाले मुसलमानों को गलियों से खदेड़ा गया है। उन पर हमले हुए। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि उस समय प्रधानमंत्री और गृह मंत्री हमेशा की तरह चुप्पी साधे रहे।

हमेशा निशाने पर रहे मुसलमान

सच तो यह है कि हिन्दुत्ववादी राजनीति के निशाने पर मुसलमान हमेशा से रहा है। आज़ादी के बाद निरंतर मुसलमानों को हाशिए पर धकेलने की कोशिश होती रही। पाकिस्तान का वजूद उनके लिए स्थाई जख्म साबित हुआ। बिना किसी आधार के उन पर देशद्रोही होने के इल्जाम लगते रहे। 

वस्तुतः भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। भारतीय संदर्भ में सेक्युलरिज्म का मतलब सभी धर्मों को समान महत्ता और प्रोत्साहन देना है। धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों के संरक्षण और उनका विश्वास जीतने के लिए संविधान में विशेष प्रावधान किए गए। सरकारों ने संसदीय-लोकतांत्रिक तरीकों से सभी धार्मिक समुदायों के विश्वास और उनकी संस्कृति की रक्षा की है। 

धार्मिक यात्राओं पर सब्सिडी प्रदान की गई। अगर हज के लिए सब्सिडी दी गई तो कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिए भी आर्थिक मदद दी गई। लेकिन संघ-बीजेपी ने केवल मुसलमानों के लिए सरकारी सहूलियतों को लेकर सवाल खड़े किए। इसके मार्फत कांग्रेस पार्टी और उसकी सरकारों की छवि मुसलिमपरस्त बनाई गई।

शाहबानो प्रकरण के आधार पर राजीव गांधी सरकार पर मुसलिम तुष्टिकरण के आरोप लगाए गए। लेकिन राजीव गांधी सरकार ने जब दूरदर्शन पर रामायण सीरियल का प्रसारण किया तब इस पहल को हिन्दू तुष्टिकरण नहीं कहा गया।

हिन्दू कोड बिल को लिया वापस 

जब करपात्री जैसे कट्टरपंथी हिन्दुओं के विरोध के कारण जवाहरलाल नेहरू सरकार द्वारा हिन्दू कोड बिल को वापस लिया गया तब इस कदम को हिन्दू तुष्टिकरण नहीं कहा गया। हिन्दू महिलाओं के अधिकारों को सुनिश्चित करने वाले इस बिल को वापस लेने के कारण क़ानून मंत्री डॉक्टर बाबासाहेब आंबेडकर ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। 

आज सेक्युलर नेहरू की मुसलिमपरस्त छवि बना दी गई है। इतना ही नहीं, महात्मा गाँधी जैसे सनातनी हिन्दू को मुसलिमपरस्त कहकर गोली मार दी गई थी। आज सड़क से लेकर संसद तक गाँधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को देशभक्त बताया जा रहा है।

यूपीए सरकार में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मुसलमानों के हालातों का जायजा लेने के लिए जस्टिस राजेंद्र सच्चर कमेटी बनाई। कमेटी की सिफारिशों के मद्देनजर मनमोहन सिंह ने बयान दिया कि देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का है। इसके पीछे कोई मुसलिमपरस्ती नहीं थी बल्कि मुसलमानों के आर्थिक हालातों को सुधारने का एक संकल्प था। लगातार पिछड़ते जा रहे मुसलमानों का विश्वास जीतने का यह एक तरीका था। यह किसी राष्ट्र की एकता-अखंडता और उसकी समृद्धि के लिए ज़रूरी होता है। 

सभी समुदायों का हो विकास

राष्ट्र के विकास में सभी समुदायों की भागीदारी होनी ज़रूरी है। यह भी जरूरी है कि सभी समुदायों को देश के संसाधनों में समान प्रतिनिधित्व मिले। अगर कोई समुदाय पिछड़ रहा है तो उसे विशेष सहूलियतों द्वारा मुख्य धारा में शामिल करना जरूरी होता है। जब सभी समुदायों का विकास होगा तो उनका विश्वास भी सरकार में रहेगा। लेकिन मनमोहन सिंह के बयान को मुसलिम तुष्टिकरण के रूप में प्रचारित किया गया।

अगर मनमोहन सिंह के बयान और नरेंद्र मोदी के ‘मन की बात’ की तुलना की जाए तो कई बातें सामने आती हैं। पहली, क्या मोदी के ‘मन की बात’ मुसलिम तुष्टिकरण है? लेकिन किसी भी दल या व्यक्ति द्वारा ऐसा कोई बयान नहीं आया। जाहिर है कि दूसरे राजनीतिक दल ऐसी भाषा नहीं बोलते हैं। यह राजनीतिक भाषा केवल दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादी संगठनों द्वारा प्रयोग की जाती है। 

दूसरी बात यह है कि नरेंद्र मोदी ने मुसलमानों के केवल धार्मिक विश्वास के प्रति सद्भाव व्यक्त किया है। इसमें न तो उनके विकास की बात है और न ही  उनके ख़िलाफ़ हो रहे हमलों का कोई जिक्र है। क्या यह ज़रूरी नहीं था कि मोदी तब्लीग़ी जमात के बहाने किए गए मुसलमानों के दानवीकरण की आलोचना करते। सांप्रदायिकता फैलाने वालों पर कड़ी कार्यवाही की बात कहते। 

जो लोग या संगठन मुसलमानों की निष्ठा पर सवाल उठाते हैं या उन पर हमले करते हैं, प्रधानमंत्री ने ऐसे लोगों के ख़िलाफ़ कभी कोई कार्रवाई नहीं की।

गिरिराज सिंह, साक्षी महाराज और प्रज्ञा ठाकुर जैसे लोग लगातार आपत्तिजनक बयान देने के लिए ही जाने जाते हैं। सब-इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह के हत्यारों और शंभूलाल रैगर जैसों का महिमामंडन किया गया। अख़लाक़, तबरेज़ अंसारी की लिंचिंग करने वालों का स्वागत किया गया। लेकिन नरेन्द्र मोदी ने इन घटनाओं की निंदा करना भी ज़रूरी नहीं समझा। कुछ दूसरे कमजोर समुदायों को लेकर भी प्रधानमंत्री मोदी का यही रवैया रहता है।

दलित उत्पीड़न की घटनाएं बढ़ीं

पिछले कई सालों से दलितों पर लगातार हमले हो रहे हैं। गुजरात के ऊना से लेकर पूरे उत्तर भारत में दलित उत्पीड़न की हजारों घटनाएं दर्ज हुई हैं। लेकिन मोदी चुप्पी साधे रहे। इन हमलों के ख़िलाफ़ जब स्वयं दलित आंदोलनरत हुए तब प्रधानमंत्री मोदी ने लखनऊ में अपनी नाटकीय मुद्रा में बस इतना कहा, 'मेरे दलित भाइयों को मत मारिए, चाहे मुझे गोली मार दीजिए।' इस बयान के मायने क्या हैं? यही कारण है कि दलित समाज का प्रबुद्ध तबका हमेशा नरेंद्र मोदी और बीजेपी के ख़िलाफ़ रहता है।

दरअसल, हिन्दुत्व की राजनीति मुसलिम और दलित समुदायों को आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर करने की नीति पर टिकी है। इन्हीं नीतियों और विचारों के कारण डॉक्टर आंबेडकर हिन्दू राष्ट्रवाद को खतरनाक मानते थे। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि हिन्दुत्व इस देश की डिफॉल्ट सेटिंग है।

संविधान में दलितों और आदिवासियों को आरक्षण दिया गया था ताकि उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति बहाल हो। इसका उद्देश्य समाज में समता और न्याय को स्थापित करना है। ग्रेनविले ऑस्टिन इसीलिए भारतीय संविधान को सामाजिक दस्तावेज कहते हैं। सामाजिक न्याय संविधान का प्रस्थान बिंदु है।

आरक्षण समाप्त करने की कोशिश!

असमानता और भेदभावपरक वर्ण व्यवस्था और ब्राह्मणवादी कर्मकांड पर आधारित हिन्दुत्व के सिद्धांत में विश्वास रखने वाले आरएसएस ने हमेशा संविधान का विरोध किया है। मोदी सरकार अघोषित तौर पर आरक्षण को समाप्त करने की रणनीति पर काम कर रही है। दो साल पहले सरकार निजी क्षेत्र के लोगों को बिना किसी संवैधानिक प्रक्रिया के संयुक्त सचिव जैसे महत्वपूर्ण पद पर नियुक्ति कर चुकी है। इनमें सभी सवर्ण हैं। 

संयुक्त सचिव स्तर पर नीतिगत निर्णय लिए जाते हैं। इसलिए जाहिर है कि अब नीतिगत निर्णय कॉरपोरेट क्षेत्र और हिन्दुत्ववादी ताकतों के हित में होंगे। पिछले कुछ सालों से सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कई ऐसे फ़ैसले दिए गए हैं जो आरक्षण की व्यवस्था को कमजोर करते हैं। बिना किसी प्रमाण और सर्वेक्षण के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय में आरक्षण को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं।

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दरअसल, दलितों-आदिवासियों को आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर करके उन्हें शोषण और भेदभाव की पुरानी व्यवस्था की ओर धकेलने की यह साज़िश है। एक बात ज़रूर है कि दलित सोशल मीडिया से लेकर कई संगठनों के माध्यम से आंदोलनरत हैं। 

दलित और आदिवासी अपने अधिकारों के लिए आवाज बुलंद करते हैं। एकजुट होकर आंदोलन भी करते हैं। लेकिन मुसलमानों की स्थिति बहुत गंभीर है। उनके ख़िलाफ़ कई स्तरों पर हमले जारी हैं। सरकारी भेदभाव ने समूची व्यवस्था के प्रति उनके विश्वास को छलनी किया है।

एनआरसी पर देशव्यापी आंदोलन 

पिछले एक दशक में मुसलमानों की ओर से कोई बड़ा आंदोलन नहीं हुआ था। मुसलिम समुदाय लगातार अपनी देशभक्ति का इम्तिहान दे रहा है। इस इम्तिहान के दौर में अपने ख़िलाफ़ होने वाले अन्याय और अपने अधिकारों को हासिल करने के लिए उन्होंने संगठित होकर कोई आंदोलन नहीं किया। लेकिन एनआरसी के मुद्दे पर लंबे अरसे के बाद देशव्यापी आंदोलन हुआ। 

सुखद यह है कि इस आंदोलन में तमाम प्रगतिशील लोगों, जन संगठनों और अन्य समुदाय के लोगों ने भी मुसलमानों का साथ दिया। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस आंदोलन के ख़िलाफ़ सरकार बड़ी बेरहमी से पेश आई। कई महीनों तक शाहीन बाग़ में चले आंदोलन को सांप्रदायिक दंगों के षड्यंत्र से समाप्त कर दिया गया। 

पूरे देश में चल रहे इस तरह के तमाम आंदोलनों के प्रति सरकार का दुर्भावनापूर्ण और हठधर्मी रवैया न सिर्फ लोकतंत्र की भावना को कमजोर करता है बल्कि मुसलमानों के भीतर बेगानेपन और अविश्वास को भी पैदा करता है। अविश्वास और भय के बीच हिन्दुत्ववादी संगठनों के हमलों ने मुसलमानों के विवेक को भी छलनी कर दिया है। 

ज्यादातर मुसलमान ग़रीब और अशिक्षित हैं। ऊपर से सरकारी रवैया और सांप्रदायिक जुल्मो-सितम ने उन्हें धर्म के अंधे कुएं में छलांग लगाने के लिए भी मजबूर किया है। यही कारण है कि वे मुल्ला-मौलवियों की धार्मिक चालों के भी शिकार हुए हैं।

कोरोना संकट में भी सरकार ने मुसलमानों का विश्वास जीतने का काम नहीं किया। कई जगहों से ऐसी ख़बरें आई हैं जिससे मुसलिम समाज का अविश्वास और बढ़ा है। अहमदाबाद के एक अस्पताल में हिन्दू और मुसलिम कोरोना मरीजों को अलग-अलग वार्ड में शिफ्ट किया गया है। कुछ अस्पतालों में मुसलिम मरीजों के साथ दुर्व्यवहार किया गया। सामान्य बीमार मुसलमानों को भी कोरोना संक्रमित कहकर भगा दिया गया। 

एक अस्पताल में प्रसव पीड़ा से व्यथित महिला को केवल मुसलिम होने के कारण भर्ती नहीं किया गया। पुलिस प्रशासन का रवैया भी कई जगह मुसलमानों के ख़िलाफ़ बेहद हिंसक रहा है। इन तमाम कारणों से मुसलमानों ने खुद को अपने मुहल्लों और दड़बों में समेट लिया है। 

अफवाहों के शिकार हो रहे मुसलमान 

तमाम मुसलिम बस्तियों में यह अफवाह पसर गई है कि डॉक्टर मुसलमानों को ले जाकर कोरोना से संक्रमित कर रहे हैं। जहर का इंजेक्शन लगाने की अफवाह है। मुसलमानों को लगता है कि संघ- बीजेपी सरकार उन्हें ख़त्म करना चाहती है। इस वजह से कई स्थानों पर डॉक्टरों पर हमले हुए। कुछ हॉट स्पाट इलाकों की ड्रोन से निगरानी की जा रही है। अफवाह के शिकार मुसलमान ड्रोनों पर पत्थर मार रहे हैं। गहरे अविश्वास के कारण इस तरह के हमले हो रहे हैं। ये गरीब और अनपढ़ मुसलमान इस बात को नहीं समझ रहे हैं कि ऐसे सरकारी कदम उनकी भलाई के लिए ही हैं।

एक अलग उदाहरण इलाहाबाद का है। डॉ. शाहिद इलाहाबाद विश्वविद्यालय के राजनीतिशास्त्र विभाग में प्रोफेसर हैं। तब्लीग़ी जमात के कार्यक्रम में शामिल होकर वह इलाहाबाद पहुंचे। शाहिद ने स्थानीय प्रशासन को जमात के कार्यक्रम में शामिल होने की कोई सूचना नहीं दी। साथ ही कुछ इंडोनेशियाई नागरिकों को उनके कहने पर इलाहाबाद की एक मसजिद में ठहराया गया। इस घटना के खुलासे के बाद डॉक्टर शाहिद को जेल भेज दिया गया और विश्वविद्यालय ने उन्हें निलंबित कर दिया। 

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अब लगातार यह प्रचारित किया जा रहा है कि डॉक्टर शाहिद जैसे पढ़े-लिखे मुसलमान भी अपने आपको छुपा रहे हैं। निश्चित तौर पर यह उनकी बड़ी चूक है। लेकिन वस्तुतः यह सवाल तो सरकार से होना चाहिए कि एक पढ़े-लिखे मुसलिम में भी यह विश्वास क्यों नहीं पनप रहा है कि वह सामने आकर अपनी टेस्टिंग करवाए।
आखिर कब सरकार मुसलमानों के भरोसे को जीतेगी? ऐसा नहीं लगता कि रमज़ान में मुबारकबाद देने भर से मुसलिम समाज का अविश्वास दूर हो जाएगा। दूसरे कार्यकाल में नरेंद्र मोदी की ओर से दिए गए नारे- 'सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास' का तब तक कोई मतलब नहीं है, जब तक सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय को इसका मुकम्मल एहसास ना हो।
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रविकान्त
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