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राहुल को ‘ग़द्दार’ कहने के पीछे स्वतंत्रता आंदोलन से ‘ग़द्दारी’ की हीनभावना!

संबित पात्रा का बयान बेशर्मी की इंतेहा है जो अडानी के कारोबार में हुई धाँधलियों पर सवाल उठाने को भारत के हित पर चोट बताता है। यह एक शातिर चाल भी है, जिसके तहत राहुल गाँधी को ‘ग़द्दार’ बताकर उनके ख़िलाफ़ एक नयी मुहिम का आग़ाज़ किया जा रहा है।
पंकज श्रीवास्तव

लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गाँधी को बीज़ेपी नेताओं की ओर से संसद के अंदर और बाहर ‘ग़द्दार’ कहा जाना बताता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिकी अदालतों से जारी वारंट का सामना कर रहे उद्योगपति गौतम अडानी की निकटता को लेकर बढ़ते सवालों से सत्ताधारी पार्टी किस क़दर बेचैन हो रही है। विडंबना यह है कि पाँच पीढ़ियों से देश के लिए अद्वितीय क़ुर्बानियाँ देने वाले परिवार के प्रतिनिधि को उस राजनीतिक धारा की ओर से ग़द्दार कहा जा रहा है, जिसकी ग़द्दारी के दस्तावेज़ी प्रमाण मौजूद हैं। 

गौतम अडानी को कई देशों में सौदा दिलाने में प्रधानमंत्री मोदी ने अपने पद का प्रभाव डाला, यह बात छिपी हुई नहीं है। ऑस्ट्रेलिया, बांग्लादेश, इंडोनेशिया, केन्या, श्रीलंका सहित कई देशों में अडानी समूह को मिली कई परियोजनाओं के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने स्पष्ट भूमिका अदा की जिनमें कई विवादों के घेरे में हैं या रद्द हो चुकी हैं। अडानी के कारोबार में नियम-क़ानून के उल्लंघन का सवाल हिंडनबर्ग रिपोर्ट से भी उठा था और अब अमेरिकी अदालत ने वारंट जारी करके इस पर मुहर ही लगा दी है। स्वाभाविक है कि विपक्ष के नेता बतौर राहुल गाँधी देश के हित पर ‘अडानी के हित’ को तरजीह देने की नीति पर सवाल उठायें। लेकिन जिस तरह से बीजेपी की ओर से उन पर पलटवार होता है, वह बताता है कि पार्टी गौतम अडानी को कोई सामान्य उद्योगपति नहीं, उनको अपना आदमी मानती है।

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आधुनिक भारतीय ‘राष्ट्र-राज्य’ के उदय के पीछे जिस उपनिवेश-विरोधी स्वतंत्रता संग्राम का आधार है, उसमें कई विचारधाराएँ शामिल थीं। गांधीवादी अहिंसक आंदोलन के साथ-साथ समाजवादियों और वामपंथियों का भी इस संघर्ष में भरपूर योगदान रहा। इन सबके सपनों में एक बात साझा थी कि ये सभी एक आधुनिक, सेक्युलर और प्रगतिशील भारत का निर्माण करना चाहते थे। जहाँ धर्म, जाति, क्षेत्र, लिंग, भाषा के भेद के पार जाकर सभी को ‘नागरिक’ की गरिमा हासिल हो और शोषण के तमाम स्वरूपों का अंत हो। भारतीय संविधान इसी साझा सपनों का मंच बना।

लेकिन एक और धारा थी जो इस संघर्ष में अंग्रेज़ों के साथ खड़ी नज़र आयी। यह धारा है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और सावरकर के नेतृत्व में चली हिंदू महासभा की। इन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अंग्रेज़ों के ज़ुल्म के ख़िलाफ़ या आज़ादी की माँग के समर्थन में एक लाइन का भी प्रस्ताव पारित नहीं किया। इसने महात्मा गाँधी का ही विरोध नहीं किया, भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों की खिल्ली उड़ाई और सुभाषचंद्र बोस की आज़ाद हिंद फ़ौज का सामना करने के लिए अंग्रेज़ी फ़ौज में भर्ती के कैंप लगवाये। अगर ‘देश’ बनाने की लड़ाई में किसी को ग़द्दार कहा जा सकता है तो इस धारा को ही कहा जा सकता है। लेकिन यह स्वतंत्रता आंदोलन के नायकों की उदारता ही थी कि किसी को ग़द्दार नहीं कहा गया।

1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के समय जब पूरा देश उबल रहा था तब अंग्रेज़ों का साथ देने वाले आरएसएस को अगर महात्मा गाँधी ‘ग़द्दार’ कह देते तो यह स्वयंभू देशभक्त संगठन किसी को मुँह दिखाने के लायक़ नहीं रह जाता। ग़द्दार तो सावरकर को भी नहीं कहा गया जिन्होंने छह बार अंग्रेज़ों से माफ़ी माँगने का रिकॉर्ड बनाकर आज़ादी की लड़ाई से तौबा कर ली थी। न महात्मा गाँधी की हत्या के षड्यंत्र में शामिल होने की वजह से उन्हें ग़द्दार कहा गया जबकि अदालत से संदेह का लाभ पाकर छूटने के बाद जस्टिस जीवनलाल कपूर कमीशन ने उनकी संलिप्तता प्रमाणित कर दी थी। न ही श्यामाप्रसाद मुखर्जी को ग़द्दार कहा गया जो बंगाल में मुस्लिम लीग के साथ मिलकर बनायी गयी सरकार में मंत्री थे और ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दमन के लिए गवर्नर के सामने कार्ययोजना पेश कर रहे थे। उल्टा उन्हें नेहरू सरकार में मंत्री बनाया गया। 
सच तो ये है कि संघ परिवार के जितने ‘प्रात:स्मरणीय’ हैं उनमें किसी ने भी आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा नहीं लिया। संघ शिविर के गाँधी कहलाने वाले दीनदयाल उपाध्याय की उम्र 1947 में 31 साल की थी लेकिन कभी सड़क पर निकलकर वंदे मातरम या अंग्रेजों भारत छोड़ो नारा लगाने की हिम्मत नहीं पड़ी।

अटल बिहारी वाजपेयी 1942 में एक आंदोलन की वजह से थाने तक पहुँचे थे लेकिन केवल ‘दर्शक होने’ का हवाला देकर और आंदोलनकारियों की पहचान कराके वे छूट गये। स्वतंत्रता सेनानी लीलाधर वाजपेयी जीवन भर, उनके चुनाव-क्षेत्र में एक पर्चा बाँटते थे कि कैसे अटल बिहारी वाजपेयी की गवाही की वजह से उन्हें जेल जाना पड़ा था।

आज़ादी के बाद इनमें से किसी नेता को ग़द्दार नहीं कहा गया। इन्हें विपक्ष की राजनीति करते हुए सरकार के ख़िलाफ़ किसी भी स्तर का आंदोलन चलाने की छूट थी। इन्हें बोट-क्लब में रैली करने से लेकर संसद का घेराव करने तक का मौक़ा दिया गया। ये लोग देश-विदेश में छपने वाले प्रकाशनों के हवाले से सरकार पर हमला बोलते रहे। जिस बोफ़ोर्स कांड की वजह से मि.क्लीन की छवि वाले राजीव गाँधी को सत्ता से बाहर होना पड़ा, वह भी स्वीडिश रेडियो के ज़रिए सामने आया था, पर किसी ने इसे विदेशी षड्यंत्र नहीं बताया था। राजीव गाँधी को अदालत ने क्लीनचिट दे दी है लेकिन बीजेपी के तमाम नेता आज भी इसका हवाला देते रहते हैं।

विचार से और

पर बीजेपी सांसद संबित पात्रा फ़्रेंच मैगज़ीन ‘मीडिया पार्ट’ में छपी एक रिपोर्ट के आधार पर राहुल गाँधी को ‘उच्च दर्जे का ग़द्दार’ बता रहे हैं जबकि इस रिपोर्ट में राहुल गांधी या कांग्रेस पार्टी का कोई ज़िक्र तक नहीं है। 'द हिडन लिंक्स बिटवीन अ जाइंट ऑफ इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म एंड द यूएस गवर्नमेंट’ शीर्षक से छपी इस रिपोर्ट में आरोप लगाया गया कि अमेरिकी अरबपति जॉर्ज सोरोस ने OCCRP (ऑर्गेनाइज़्ड क्राइम एंड करप्शन रिपोर्टिंग प्रोजेक्ट) नाम के एक न्यूज़ पोर्टल को फंड किया था। चूँकि इस पोर्टल ने अडानी के कारोबार पर सवाल उठाते हुए रिपोर्ट छापी थी और कहा था कि अडानी ग्रुप ने गुपचुप तरीके से खुद अपने शेयर खरीदकर लाखों डॉलर का निवेश किया तो संबित पात्रा की नज़र में इस पोर्टल ने भारत को अस्थिर करने की कोशिश की है। उनकी देशभक्ति की समझ ये है कि जो लोग भी अडानी के कारोबार पर सवाल उठाते हैं वे भारत को अस्थिर करना चाहते हैं। इस लिहाज़ से जॉर्ज सोरोस और राहुल गाँधी एक साथ खड़े हैं।

यह तर्क-प्रक्रिया पर न हँसा जा सकता है, न रोया। OCCRP को केवल जॉर्ज सोरोस को ‘ओपन सोसायटी फ़ाउंडेशन’ ने ही फंड नहीं दिया, अमेरिका की कई एजेंसियों ने भी साधन मुहैया कराये हैं।  इनमें कुछ सरकारी एजेंसियाँ भी हैं। तो क्या संबित पात्रा कह सकते हैं कि अमेरिकी सरकार भारत विरोधी षड्यंत्र में शामिल है। अगर ऐसा हो तो अमेरिकी सरकार को दुश्मन देश घोषित करना चाहिए। क्या मोदी सरकार यह हिम्मत करेगी? 94 वर्षीय जॉर्ज सोरोस एक अमेरिकी अरबपति हैं जिन्होंने अपनी संपत्ति तमाम ऐसे प्रकल्पों के लिए दान दी है जो दुनिया के तमाम देशों में लोकतंत्र के लिए काम करते हैं। वे डोनाल्ड ट्रंप से लेकर नरेंद्र मोदी तक के आलोचक हैं क्योंकि उनकी नज़र में ये नेता लोकतांत्रिक नहीं हैं। बीजेपी की नज़र में चूँकि राहुल गाँधी भी नरेंद्र मोदी पर अलोकतांत्रिक होने का आरोप लगाते हैं लिहाज़ा दोनों एक हैं। 

संबित पात्रा का दावा है कि जो फंड करता है, मीडिया को उसके हित में ही बात करनी पड़ती है। यह मोदी के दौर के भारत का सच है। दुनिया भर में बहुत सी समाचार एजेंसी और संस्थान हैं जो विभिन्न स्रोतों से आर्थिक सहयोग लेते हैं लेकिन 'स्वतंत्र पत्रकारिता’ करते हैं।

भारत में भी 2014 के पहले न्यूज़ चैनलों और अख़बारों को ख़ूब सरकारी विज्ञापन मिलते थे चाहे वे सरकार का विरोध ही क्यों न करते रहे हों। विरोध में रिपोर्ट छापने वालों को आर्थिक रूप से तबाह करने की मुहिम तो नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद शुरू हुई। यहाँ तक कि एनडीटीवी जैसे प्रतिष्ठित न्यूज़ चैनल के प्रमोटर डॉ. प्रणय रॉय पर तमाम आरोप लगाकर इसे अडानी को बेचने के लिए मजबूर कर दिया गया। कुछ दिन पहले सीबीआई ने अपनी फ़ाइनल रिपोर्ट में बताया है कि डॉ. रॉय पर लगाये गये आरोप झूठे थे। बीजेपी सोचती है कि जिस तरह से भारत में उसने मीडिया को अपने पाँव तले दबा लिया है, वैसे ही पूरी दुनिया में हो।

वैसे संबित पात्रा ने जिस ‘मीडिया पार्ट’ अख़बार का हवाला दिया है उसने ही राफ़ेल डील में रिश्वतख़ोरी की ख़बर भी छापी थी। रिपोर्ट में कहा गया था कि राफ़ेल विमान बनाने वाली कंपनी ने डील के लिए 65 करोड़ की घूस दी थी। रिपोर्ट में इस बात का भी दावा किया गया था कि रिश्वत के इस खेल की जानकारी भारतीय एजेंसी सीबीआई और ईडी को भी थी लेकिन दोनों खामोश रहीं। मीडिया पार्ट ने दावा किया था कि उसके पास घूस के लेन-देन के सारे सबूत हैं लेकिन भारत सरकार इसमें रुचि नहीं दिखा रही है। क्या बीजेपी इस रिपोर्ट पर भी ध्यान देगी?

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संबित पात्रा का बयान बेशर्मी की इंतेहा है जो अडानी के कारोबार में हुई धाँधलियों पर सवाल उठाने को भारत के हित पर चोट बताता है। यह एक शातिर चाल भी है, जिसके तहत राहुल गाँधी को ‘ग़द्दार’ बताकर उनके ख़िलाफ़ एक नयी मुहिम का आग़ाज़ किया जा रहा है। राहुल गाँधी को एक बार उन्हें संसद सदस्यता से वंचित किया जा चुका है, उनकी राष्ट्रीयता पर सवाल उठाया जा रहा है और अब उन्हें ग़द्दार भी कहा जा रहा है। यह सब बताता है कि जिन राहुल गाँधी को कभी ‘पप्पू’ बताया जाता था, वे असल में इस सरकार के लिए कितना बड़ा ख़तरा बन गये हैं।

राहुल गाँधी का गुनाह ये है कि वे आरएसएस के मनुवादी इरादों और क्रोनी कैपिटलिज़्म की राह में बड़ा रोड़ा बन गये हैं। एक तरफ़ वे जाति जनगणना के ज़रिए शासन-प्रशासन में दलितों, आदिवासियों और पिछड़े वर्ग की भागीदारी का सवाल उठा रहे हैं तो दूसरी तरफ़ बीजेपी सरकार के समर्थन से उद्योगजगत में एक-दो पूँजीपतियों के एकाधिकार को भारत की तरक़्क़ी की राह में रोड़ा बता रहे हैं। जो सरकार देश की तमाम संपदा को पार्टी का कोष भरने वाले पूँजीपतियों के हवाले करने में जुटी है, उसकी नज़र में राहुल गाँधी ‘ग़द्दार’ ही हो सकते हैं। राहुल ‘अडानी के देश के नागरिक’ हो भी नहीं सकते।

राहुल गाँधी उस परिवार के वारिस हैं जिसके घर का हर व्यक्ति स्वतंत्रता संग्राम में जेल गया। जिनके पिता और दादी देश के लिए शहीद हुए। ऐसे ‘शहीदज़ादे’ को ‘ग़द्दार’ कहना आरएसएस से वैचारिक प्रेरणा लेने वालों की हीनभावना की उपज है जिसने स्वतंत्रता संग्राम से खुले तौर पर ग़द्दारी की थी। 

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