इस समय जब पूरी दुनिया महात्मा गांधी की ओर उम्मीद भरी नजरों से देख रही है और उनके विचारों की प्रासंगिकता पहले से कहीं ज्यादा महसूस की जा रही है, तब भारत में सत्ताधारी जमात से जुड़ा वर्ग गांधी को नकारने में लगा हुआ है। इस समय देश में सांप्रदायिक और जातीय विद्वेष का माहौल भी लगभग उसी तरह का बना दिया गया है, जैसा कि देश की आजादी के समय और उसके बाद के कुछ वर्षों तक बना हुआ था। उसी जहरीले माहौल से दुखी होकर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अपनी मृत्यु की कामना करते हुए कहा था कि वे अब और जीना नहीं चाहते। उसी माहौल के चलते उनकी हत्या हुई थी।
दरअसल महात्मा गांधी 125 वर्ष जीना चाहते थे। उन्होंने जब यह इच्छा जताई थी तब न तो देश का बंटवारा हुआ था और न ही देश को आजादी मिली थी, लेकिन उनकी हत्या के प्रयास जारी थे। गौरतलब है कि 30 जनवरी 1948 को उनकी हत्या से पहले भी कई मर्तबा उनको मारने की कोशिश की जा चुकी थी। दिलचस्प तथ्य यह भी है कि हत्या की पांच में से शुरू की चार कोशिशें तो महाराष्ट्र में ही हुई थीं, जो कि उन दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आरएसएस और हिंदू महासभा की गतिविधियों का केंद्र हुआ करता था।
गांधीजी ने 125 वर्ष जीने की इच्छा अपनी हत्या के चौथे प्रयास के बाद फिर दोहराई थी। उनकी हत्या का चौथा प्रयास 29 जून, 1946 को किया गया था, जब वे विशेष ट्रेन से बंबई से पूना जा रहे थे। उनकी उस यात्रा के दौरान नेरल और कर्जत स्टेशनों के बीच रेल पटरी पर बड़ा पत्थर रख दिया गया था, लेकिन उस रात ट्रेन के ड्राइवर की सूझ-बूझ से गांधी जी बच गए थे।
दूसरे दिन, 30 जून को पूना में प्रार्थना-सभा के दौरान गांधीजी ने पिछले दिन की घटना का जिक्र करते हुए कहा, ''परमेश्वर की कृपा से मैं सात बार अक्षरश: मृत्यु के मुंह से सकुशल वापस आया हूं। मैंने कभी किसी को दुख नहीं पहुंचाया। मेरी किसी के साथ दुश्मनी नहीं है। फिर भी मेरे प्राण लेने का प्रयास इतनी बार क्यों किया गया, यह बात मेरी समझ में नहीं आती। मेरी जान लेने का कल का प्रयास भी निष्फल गया।’’
इस प्रार्थना सभा में भी गांधीजी ने 125 वर्ष जीने की अपनी इच्छा दोहरायी थी, जिस पर नाथूराम गोडसे ने 'अग्रणी’ पत्रिका में लिखा था: 'पर जीने कौन देगा?’ यानि कि 125 वर्ष आपको जीने ही कौन देगा? यह पत्रिका गोडसे अपने सहयोगी नारायण आप्टे के साथ मिल कर निकालता था। महात्मा गांधी की हत्या से डेढ़ वर्ष पहले नाथूराम का लिखा यह वाक्य भी साबित करता है कि गांधीजी की हत्या के लिए बहुत पहले से ही कुछ लोग प्रयासरत थे।
बहरहाल गांधी जी की 125 वर्ष तक जीने की इच्छा लंबे समय जीवित नहीं रह सकी। देश की आजादी और भारत के बंटवारे के बाद देश के कई हिस्सों में हो रहे सांप्रदायिक दंगों से गांधीजी बेहद दुखी और हताश थे। वे 9 सितम्बर 1947 को अपना नोआखाली, बिहार और कलकत्ता मिशन पूरा करके दिल्ली लौटे थे।
रेलवे स्टेशन पर उन्हें लेने के लिए सरदार पटेल और राजकुमारी अमृत कौर पहुंचे थे। गांधीजी ने सरदार पटेल का बुझा हुआ चेहरा देखकर पूछा, ''सरदार क्या बात है? तुम गर्दन झुकाकर क्यों बात कर रहे हो मुझसे?’’ सरदार पटेल ने कहा, ''बापू दिल्ली शरणार्थियों से भरी पड़ी है और आपके रुकने के लिए इस बार बिड़ला हाउस में व्यवस्था की गई है।’’
गांधीजी बिड़ला हाउस में रुके, लेकिन अगले ही दिन से दिल्ली के दंगाग्रस्त क्षेत्रों का पैदल दौरा शुरू कर दिया। वे किंग्सवे कैम्प, कनॉट प्लेस, लेडी हार्डिंग कॉलेज, जामा मस्जिद, शाहदरा और पटपड़गंज सहित हर उस जगह गए जहां शरणार्थी कैंपों में लोग रह रहे थे। वे धैर्यपूर्वक लोगों की बात सुनते और बातचीत के दौरान उनका गुस्सा भी झेलते।
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गांधीजी उन लोगों में से नहीं थे जो दूसरों के मन में उत्पन्न होने वाली भावनाओं के कारण अपनी आस्थाओं से समझौता कर लें। वे अपनी नियमित प्रार्थना-सभा में गीता के श्लोकों के साथ ही बाइबिल और कुरान की आयतें भी नियमित रूप से पढ़वाते थे। एक दिन शाम को प्रार्थना-सभा में अचानक किसी ने गुस्से भरी आवाज में जोर से नारा लगाया- गांधी मुर्दाबाद! वहां मौजूद कुछ अन्य लोगों ने भी इस नारे को दोहराया। गांधीजी अवाक रह गए। जो काम 20 साल में दक्षिण अफ्रीका के गोरे लोग और 40 साल में अंग्रेज नहीं कर पाए वह काम उन लोगों ने कर दिखाया, जिनकी मुक्ति के लिए गांधीजी ने अपना जीवन होम दिया। वह उनके जीवन की पहली प्रार्थना-सभा थी जो उन्हें बीच में ही खत्म करनी पड़ी।
आजादी के बाद दिल्ली में बड़े पैमाने पर हो रही हिंसा से गांधीजी को आश्चर्य भी हो रहा था, लेकिन वे भली भांति समझ रहे थे कि इन दंगाइयों को कौन शह दे रहा है और क्यों दे रहा है। उन्हें अहसास हो गया था कि आजाद भारत किस दिशा में जाने वाला है। देश को हिंसा के रास्ते पर जाते हुए देख वे अपने उन सिद्धांतों से और मजबूती से चिपक गए जिनसे उन्हें दक्षिण अफ्रीका में शक्ति मिली थी। सत्य, अहिंसा, प्रेम और समस्त मानवता के प्रति उनकी आस्था में कोई बदलाव नहीं आया। अगर कुछ बदल गया था तो वह था हिंदुस्तान।
दिल्ली में हो रही हिंसा को रोकने के लिए गांधी की अपील का लोगों पर कोई असर नहीं हुआ था। दरअसल जो लोग हिंसा में लगे हुए थे और जो उन्हें उकसा रहे थे वे इस मानसिकता के थे ही नहीं जो गांधी के संदेश का मर्म समझ सकते। फिर भी गांधी को अपने संदेश की सार्थकता पर पूरा विश्वास था।
इस बीच 2 अक्टूबर 1947 आया। यह दिन आजाद भारत में महात्मा गांधी का पहला जन्मदिन था। जन्मदिन पर उन्हें बधाई देने और गुलदस्ते भेंट करने का सिलसिला शुरू हो गया। लॉर्ड माउंटबेटन भी अपनी पत्नी के साथ गांधीजी को जन्मदिन की बधाई देने पहुंचे। लेकिन शाम को प्रार्थना-सभा में उदास मन से गांधीजी ने पूछा, ''आज मुझे बधाइयां क्यों दी जा रही हैं? क्या इससे बेहतर यह नहीं होता कि मुझे शोक संदेश भेजा जाता?’’
उन्होंने कहा, आज मैंने 125 वर्ष जीने की इच्छा छोड़ दी और अब मैं अधिक नहीं जीना चाहता। 100 वर्ष भी नहीं, 80 वर्ष भी नहीं। आप सभी आज की प्रार्थना सभा में ईश्वर से मेरे मरने की दुआ कीजिए। ईश्वर की इच्छा या फैसले में किसी को दखल देने का अधिकार नहीं है। मैंने एक धृष्टता करते हुए 125 वर्ष जीने की बात कही थी। लेकिन आज हालात बिल्कुल बदल गए हैं, इसलिए मैं विनम्रतापूर्वक 125वर्ष तक जीने की इच्छा का त्याग करता हूं।
उनकी इस घोषणा के कुछ ही समय बाद 20 जनवरी 1948 को दिल्ली में ही उनकी हत्या का प्रयास किया गया। उस दिन नई दिल्ली के बिड़ला भवन पर बम फेंका गया था, जहां गांधीजी दैनिक प्रार्थना-सभा कर रहे थे। बम का निशाना चूक गया था और नाथूराम और उसके सहयोगी भागने में सफल रहे। लेकिन महज दस दिन बाद ही 30 जनवरी को गोडसे और उसके सहयोगी अपने पैशाचिक इरादे को पूरा करने में कामयाब हो गये।
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