पिछले सात-आठ सालों के दौरान चुनाव प्रक्रिया को कई तरह से दूषित और संदेहास्पद बनाकर अपनी छवि और साख धूल में मिला देने वाले चुनाव आयोग पर इन दिनों अचानक चुनाव सुधार का भूत सवार है। लेकिन इस सिलसिले में वह जो भी पहल कर रहा है उससे उसकी सरकार के पिछलग्गू वाली छवि ही पुख्ता हो रही है।
अब तक चुनाव कार्यक्रमों की घोषणा और आचार संहिता के उल्लंघन के मामलों में विपक्षी नेताओं के प्रति दिखने वाले पूर्वाग्रह और सत्ताधारी पार्टी के प्रति उदारता से ही आयोग की निष्पक्षता पर सवाल उठते थे लेकिन अब बड़े नीतिगत मामले को लेकर आयोग ने ऐसी पहल की है, जिससे उसकी साख पर बड़ा सवाल खड़ा हो गया है।
चुनाव से पहले राजनीतिक दलों की ओर से किए जाने वाले वायदों को लेकर सुप्रीम कोर्ट मे चल रही सुनवाई से जब पिछले दिनों आयोग ने अपने को अलग किया था तो लगा था कि वह अपनी छवि सुधारने को लेकर गंभीर है। लेकिन अब उसने सभी राजनीतिक दलों को एक चिट्ठी लिख कर कहा है कि वे चुनाव के समय लोगों से वायदे करने के साथ ही यह भी बताएं कि उन वायदों को पूरा करने के लिए उनके पास क्या योजना है और पैसा कहां से आएगा।
सुप्रीम कोर्ट के इस सुझाव पर चुनाव आयोग ने एक हलफनामा देकर कहा था कि उसे इस मामले से अलग रखा जाए, क्योंकि वह एक संवैधानिक निकाय है और इस नाते वह राजनीतिक दलों और दूसरी सरकारी या गैर सरकारी संस्थाओं के साथ किसी समिति का हिस्सा नहीं बन सकता। उसने अपने हलफनामे में यह भी कहा था कि मुफ्त में वस्तुएं अथवा सेवाएं यानी रेवड़ी बाटने की राजनीतिक दलों की घोषणाएं एक सब्जेक्टिव मामला है और इसमें चुनाव आयोग कुछ नहीं कर सकता। लेकिन अब उसने अचानक अपने उस हलफनामे को भुला कर यू टर्न लेते हुए सभी राजनीतिक दलों से कहा है कि चुनावी वायदें करते वक्त उन्हें यह भी बताना होगा कि उन वायदों को वे कैसे पूरा करेंगे और उसके लिए पैसा कहां से लाएंगे।
अपने इस पत्र पर चुनाव आयोग ने सभी पार्टियों से 19अक्टूबर तक अपनी राय देने को कहा है। सवाल है कि आयोग को अचानक क्या सूझी, जो उसने इस तरह की चिट्ठी लिख दी? जब उसने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर खुद को इस मामले से अलग किया है तो अब चिट्ठी लिखने की क्या जरूरत आ पड़ी? चुनाव आयोग का काम स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करना है। उसकी जिम्मेदारी में यह कतई नहीं आता है कि वह राजनीतिक दलों के घोषणापत्र में लिखी बातों का विश्लेषण या चुनावी वायदों के लागू होने से होने वाले आर्थिक असर का आकलन करे।
केंद्र और राज्य सरकारों के पास वित्तीय अनुशासन लागू करने का अपना सिस्टम है। उन्हें मालूम रहता है कि उनके राजस्व का क्या स्रोत है और अपने राजस्व को किस तरह से खर्च करना है। अगर वित्तीय प्रबंधन या आर्थिक अनुशासन गड़बड़ाता है तब भी उसकी कोई जिम्मेदारी चुनाव आयोग पर आयद नहीं होती है। इसलिए चुनाव आयोग का इस बहस में पड़ना बेमतलब है।
रेवड़ी कल्चर
सवाल है कि चाहे सुप्रीम कोर्ट हो या भारतीय स्टेट बैंक या फिर चुनाव आयोग हो, ये सारी संस्थाएं अचानक क्यों सक्रिय हो गईं? क्यों सबको राजनीतिक दलों की ओर से की जाने वाली घोषणाओं यानी रेवड़ियों की चिंता सता रही है? क्या प्रधानमंत्री की ओर से जाहिर की गई राय की वजह से ये तमाम संस्थाएं सक्रिय हुई हैं? इस मामले में दखल देने को उत्सुक दिख रही तमाम संस्थाओं की नीयत पर इसलिए सवाल उठ रहा है, क्योंकि कोई भी संस्था इस मामले में वस्तुनिष्ठ तरीके से विचार नहीं कर रही है। चुनाव आयोग और भारतीय स्टेट बैंक को क्या इतनी बुनियादी समझ नहीं है कि भारत एक लोक कल्याणकारी राज्य है और इसमें राज्य की जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने नागरिकों का ख्याल रखे? भारत जैसे गरीब या अर्ध विकसित देश में करोड़ों नागरिक बुनियादी सुविधाओं से वंचित है। अगर कोई सरकार उन्हें उनकी रोजमर्रा की जरूरत की चीजें रियायती दरों पर या नि:शुल्क उपलब्ध कराती है तो उसे मुफ्त की सेवा कैसे कह सकते हैं?अगर किसी एजेंसी को ऐसा लगता है कि नागरिकों को मुफ्त या सस्ती बिजली देना या पीने का साफ पानी मुहैया कराना या बेरोजगारी भत्ता, वद्धावस्था पेंशन आदि देना रेवड़ी बांटना है और ऐसा नहीं किया जाना चाहिए तो उसकी समझदारी पर गंभीर सवाल खड़े होते हैं।
इसके अलावा सवाल यह भी है कि चुनाव आयोग सहित कोई भी एजेंसी केंद्र सरकार की ओर से दी जाने वाली किसान सम्मान निधि पर सवाल नहीं उठा रही है। उज्ज्वला योजना के तहत मिलने वाले मुफ्त गैस सिलिंडर का जिक्र नहीं किया जा रहा है। प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत आवास उपलब्ध कराने या शौचालय बनवाने के लिए पैसे देने पर सवाल नहीं किया जा रहा है। मुफ्त में पांच किलो अनाज बांटने की योजना का भी जिक्र नहीं किया जा रहा है। क्यों नहीं पूछा जा रहा है कि आखिर इन सारी योजनाओं के लिए कहां से पैसा आ रहा है?
क्या इन सारी योजनाओं से केंद्र सरकार के खजाने पर बोझ नहीं पड़ रहा है या इनसे केंद्र सरकार का वित्तीय अनुशासन नहीं बिगड़ रहा है? क्यों नहीं चुनाव आयोग या दूसरी कोई एजेंसी आगे बढ़ कर इनका विरोध कर रही है? सिर्फ विपक्षी पार्टियों की ओर से होने वाली घोषणाओं पर सवाल क्यों उठाए जा रहे हैं?
चुनाव आयोग को राज्यों की वित्तीय स्थिति की इतनी चिंता हो गई है लेकिन उसे यह दिखाई नहीं दे रहा है कि किस तरह से जिन दो राज्यों- गुजरात और हिमाचल प्रदेश में अगले महीने विधानसभा चुनाव होना है, वहां चुनाव से पहले हजारों करोड़ रुपए की परियोजनाओं का शिलान्यास हो रहा है। क्या आयोग को इसे भी रोकने की पहल नहीं करनी चाहिए?
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