हर देश-काल में ऐसी विभूतियां हुई हैं, जिन्हें बहुत छोटा जीवन मिला, लेकिन छोटे से जीवनकाल में ही उन्होंने अपने समय के समाज में हलचल पैदा करने का काम किया। सुदूर अतीत में ईसा मसीह और आदि शंकर, ज्ञानेश्वर, चैतन्य आदि हुए तो आधुनिक इतिहास में शहीद भगत सिंह, मार्टिन लूथर किंग जूनियर और स्वामी विवेकानंद जैसे नाम सामने आते हैं।

विवेकानंद ने महज 30 साल की उम्र में शिकागो (अमेरिका) में हुए विश्व धर्म सम्मेलन में अपने ऐतिहासिक वक्तव्य के माध्यम से भारत की एक वैश्विक सोच को सामने रखते हुए हिंदू धर्म का उदारवादी चेहरा दुनिया के सामने रखा था। पूरी दुनिया ने उनके भाषण को सराहा था।
स्वाभाविक है कि यदि छोटे से जीवन में उन्होंने बड़े काम किए हैं, तो उनका जीवन भी नाटकीय घटनाओं से भरा रहा होगा। उनके व्यक्तित्व का कोई ऐसा अनोखा पहलू रहा होगा, जो उन्हें अपने समकालीनों से अलग करता होगा और यह सब कुछ मिलकर उनके जीवन को किंवदंती बनाता होगा। बाद की पीढ़ियों में ऐसे लोगों की 'लार्जर दैन लाइफ’ छवियां लोकमन में बनने लगती हैं। उनकी वैचारिक विरासतों को समझने, सहेजने और आगे बढ़ाने का सिलसिला भी चल पड़ता है।
ऐसे मनीषियों के सूत्र वाक्यों को उद्धरणों के तौर पर बार-बार पेश किया जाता है। समाज को इसका थोड़ा फायदा भी मिल जाता है, लेकिन जब उनका दोहन सियासी प्रतीकों के रूप में होने लगता है, तो उनके जीवन का तटस्थ मूल्यांकन नहीं हो पाता। इससे नए अध्येताओं के लिए भी भटकाव की पूरी संभावना बन जाती है। स्वामी विवेकानंद के साथ भी ऐसा ही होता दिख रहा है।