हम सबको विवेक अग्निहोत्री का आभार व्यक्त करना चाहिए कि जो सच और घटनाएँ, पूरे देश और दुनियाभर के मीडिया को 1990 के बाद, अब तक पता थीं, उससे सरकार को भी उन्होंने अवगत करा दिया।
प्रधानमंत्री जी हैरान हैं कि इतना बड़ा सच उनसे छुपा रहा। 1998 से 2004 तक बीजेपी की अटल सरकार थी और 2014 से अब तक खुद ही सरकार में होते हुये, वे देश की सबसे पुरानी और उलझी हुयी ज्वलंत समस्या के बारे में, सच क्या था और क्या है, वे अब तक नहीं जान पाए थे। विवेक अग्निहोत्री को शुक्रिया कि उन्होंने कम से कम सरकार को तंद्रा से जगा दिया। मैं फ़िल्म की समीक्षा नहीं कर रहा हूँ। क्योंकि यह मेरा न तो कभी कार्यक्षेत्र रहा है, और न ही आज है। फ़िल्म की समीक्षा फ़िल्म समीक्षक और वे पत्रकार मित्र कर ही रहे हैं, जो फिल्मों में रुचि रखते हैं। अतः फ़िल्म के शिल्प, कथ्य, दृश्य संयोजन, अभिनय, आदि पर कुछ नहीं कह रहा हूँ। अभिनय पर बस यह कहना है कि अनुपम खेर, एक समर्थ और प्रतिभाशाली अभिनेता हैं, और मैं 'सारांश' फ़िल्म के समय से ही, उस फिल्म में किये गए उनके अभिनय का प्रशंसक रहा हूँ।
फिल्में इतिहास नहीं होती हैं। न ही ऐतिहासिक उपन्यास, इतिहास होते हैं। इतिहास के आधार पर दुनिया भर में बहुत सी फिल्में बनी हैं। पर यदि उनमें इतिहास ढूंढने की कोशिश की जाएगी तो निराशा ही हाथ लगेगी। कथा वस्तु भले ही इतिहास से लिया गया हो, पर उसे पर्दे पर या उपन्यास या कहानी के रूप में जब ढाला जाता है तो उसमें कल्पना का समावेश हो ही जाता है। द कश्मीर फाइल्स कोई दस्तावेजी या डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म नहीं है, वह एक फीचर फ़िल्म है। एक कहानी पर आधारित है। एक बेहद त्रासद घटना पर आधारित है। एक ऐसी दुःखद और व्यथित कर देने वाली घटना या घटनाओं पर आधारित है, जिसने संविधान के मूल ढांचे के मूल्यों पर ही कई सवाल खड़े कर दिए हैं। घटनाएं सच हैं। यह सब घटा है। और जब यह सब घट रहा था तो देश और दुनिया के सारे अखबार इन्हें कवर कर रहे थे। ख़ुफ़िया एजेंसियां इनकी सूचना दे रही थीं। पर जिनपर इन्हें रोकने की ज़िम्मेदारी थी, वे क्या कर रहे थे, यह सवाल बार बार हम सबके मन मे कौंधना चाहिए।
यह कहना कि इस घटना के दोषी वीपी सिंह, उन्हें समर्थन देने वाली पार्टियां और तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन ही थे, तो यह दोष का सामान्यीकरण करना होगा। यह बात बिल्कुल सही है कि उस समय बीपी सिंह की सरकार थी, और उन्हें बीजेपी और वाम मोर्चा दोनों का बाहर से समर्थन था, और जगमोहन राज्यपाल थे। पर क्या इतनी बड़ी त्रासदी के लिये केवल यही सब ज़िम्मेदार माने जाने चाहिए? यदि तात्कालिक कारण देखें तो, निश्चय ही ये उस कलंक से मुक्त नहीं हो सकते, पर इस घटना की भूमिका जो पाक प्रायोजित आतंकवाद और एक क्षद्म युद्ध की जो स्थिति लंबे समय से बन रही थी, तब से ही है। पर इसका क्लाइमेक्स जब सामने आया तो यही सेट ऑफ़ गवर्नेंस था।
1989 से 91 तक अस्थिर कालखंड रहा है। इस अल्प अवधि में देश ने दो प्रधानमंत्री देखे और दोनों ही किसी न किसी अन्य दल के बाहरी समर्थन से चल रहे थे। 1991 से 1996 तक, देश में कांग्रेस की नरसिम्हा राव सरकार थी। 1996 से 1998 तक पुनः एक अस्थिरता का दौर आया। यह तीसरे मोर्च की सरकार का दौर था। इस अल्प अवधि में भी दो प्रधानमंत्री सत्ता में रहे। 1998 से 2004 तक एनडीए की सरकार प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में रही। 2004 से 2014 तक मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार थी। और अब 2014 से नरेन्द्र मोदी की बीजेपी सरकार है।
अगर संख्याबल की दृष्टि से देखें तो यह 1990 के बाद की सबसे मज़बूत सरकार है। यह सब लिखने का आशय यह है कि 1990 से आज विवेक अग्निहोत्री की इस फ़िल्म के रिलीज होने तक, देश की हर पार्टी किसी न किसी तरह से और किसी न किसी समय सत्ता में रही है।
इस फ़िल्म में दिखाई गयी घटनाओं को मैं एक बेहद संगठित और क्रूर अपराध की तरह देखता हूँ। यह भी मानता हूँ कि, हो सकता है जो त्रासदी फ़िल्म में दिखाई जा रही है, उससे भी बड़ी घटना वहां घटी हो। अपराध के बारे में जानकारी होने के बाद, उक्त अपराध के बारे में क्या जांच हुयी, दोषी कौन थे और जब अपराध हो रहा था तो, उस समय सरकारी मशीनरी क्या कर रही थी और सरकार क्या कर रही थी, यह सब सवाल एक पुलिस अफसर रहे होने के कारण मेरे दिमाग में कुलबुलाते रहते हैं। 1990 के बाद सरकार ने क्या कोई ऐसा आयोग बनाया जिसने इस त्रासद विस्थापन के बारे में, परिस्थितियों, तत्कालीन घटनाओं और उसमें केंद्र और राज्य सरकार के अधिकारियों की क्या भूमिका रही है, की कोई जांच हुयी है, और इस त्रासद कांड के जिम्मेदार लोगों का दायित्व निर्धारण कर के उनको या उनमें से कुछ को ही, दंडित किया गया है? ऐसी सामान्य और स्वत:स्फूर्त जिज्ञासाओं का उत्तर भी सरकार से अपेक्षित है।
अब सरकार जाग चुकी है। अब देखना है कि 32 साल से विस्थापित कैम्पों में रह गए कश्मीरी पंडितों की घर वापसी के लिए सरकार क्या प्रयास करती है और इस घटना के लिये जिम्मेदार लोगों की पहचान कर, उन्हें सामने लाती है या नहीं। फ़िल्म देख कर गुस्सा आना और उत्तेजित होना स्वाभाविक है। यह एक सामान्य भाव है। पर यह फ़िल्म कुछ सवाल भी उठाती है कि,
- 1990 में किन परिस्थितियों में कश्मीर से पंडितों का पलायन हुआ।
- जब पलायन हो रहा था, तब क्या इस पलायन को रोकने की कोई कोशिश की गयी थी?
- उस समय जो भी केंद्र और राज्य सरकार सत्ता में थी, उसकी भूमिका उस पलायन में क्या थी?
- क्या पलायन को लेकर कोई गोपनीय योजना थी, जिसे पलायन के बाद लागू किया जाना था?
- क्या ऐसी कोई योजना किन्हीं कारणों से लागू नहीं की जा सकी?
- लम्बे समय तक 1990 के बाद घाटी में अशांति फैली रही, और जब कुछ हालत सुधरने लगी तब क्या सरकार ने कोई ऐसी योजना बनाई कि, कश्मीरी पंडितों की वतन वापसी की जा सके?
- 1991 से 96 तक देश में पीवी नरसिम्हा राव की सरकार थी। उनके कार्यकाल में कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास पर क्या किया गया?
- 1996 से 98 तक अस्थिर सरकारें थीं। 1998 में एनडीए सरकार आई। जब जगमोहन मंत्री बने और फारुख अब्दुल्ला भी एनडीए में थे। जगमोहन के समय में यह विस्थापन हुआ। हालाँकि कश्मीर की स्थिति पहले से ही अशान्त थी। वे लंबे समय तक वहाँ राज्यपाल रहे हैं। उस समय पुनर्वास के लिये क्या किया गया?
- खुद को कश्मीरी पंडितों के पुनर्वापसी की सबसे बड़ी पैरोकार घोषित करने वाली, भाजपा, 1998 से 2004 तक सत्ता में रही। उस दौरान कश्मीर के पंडितों के लिये सरकार ने क्या-क्या उपाय किये?
- वापसी मुश्किल थी तो, विस्थापित पंडितों के लिये सरकार ने क्या क्या योजना लाई?
- 2004 से 2014 तक यूपीए सरकार सत्ता में आयी। इन दस सालों में कोई योजना इन पंडितों के पुनर्वास के लिए बनी कि नहीं?
- बनी तो क्या उन्हें लागू किया गया या नहीं?
- क्या कभी ऐसा अध्ययन या सर्वेक्षण किया गया है, जिससे यह पता चले कि, कश्मीर के पंडित समाज की वापसी कैसे होगी?
- 2014 से अब तक देश में बीजेपी की सरकार है। यह सरकार कश्मीर के पंडितों के पक्ष में अक्सर खड़ी दिखती है। कश्मीर में बीजेपी ने पीडीपी के साथ सरकार भी चलाई है और अब तो, वहां की सरकार सीधे केन्द्राधीन है। तब 2014 से अब तक कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास के लिये क्या कदम उठाए गए?
- अनुच्छेद 370 को कश्मीर के एकीकरण में एक बड़ी बाधा के रूप में प्रचारित किया जाता है। अब वह अनुच्छेद संशोधित हो गया है। जम्मू कश्मीर अब पूर्ण राज्य भी नहीं रहा। अब वह सीधे केंद्र शासित है। फिर अनुच्छेद 370 के हटने के बाद क्या कोई योजना सरकार ने उनके पुनर्वास की बनाई?
राहत और पुनर्वास
इससे पहले 2008 में मनमोहन सिंह सरकार द्वारा प्रवासियों के लिए इसी तरह के रोजगार पैकेज की घोषणा की गई थी। जिसके तहत 3,000 नौकरियां देने की बात कही गई थी। जिसमें से 2,905 नौकरियों के पद भरे जा चुके हैं। मंत्रालय ने एक संसदीय पैनल को यह भी बताया कि पंजीकृत कश्मीरी प्रवासियों को प्रति परिवार 13,000 रुपये और साथ में 3,250 रुपये प्रति व्यक्ति प्रति महीने मिलता है। साथ ही हर महीने उन्हें राशन भी दिया जाता है। साल 2020 की संसदीय पैनल की रिपोर्ट के मुताबिक, जम्मू-कश्मीर में 64,827 पंजीकृत प्रवासी परिवार हैं। जिनमें से 60,489 हिंदू परिवार, 2,609 मुसलिम परिवार और 1,729 सिख परिवार हैं। 64,827 परिवारों में से 43,494 परिवार जम्मू में पंजीकृत हैं, 19,338 दिल्ली में और 1,995 परिवार देश के दूसरे राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में बसे हुए हैं। वहीं 43,494 प्रवासी परिवारों में से 5,248 परिवार प्रवासी शिविरों में रह रहे हैं।
कश्मीर घाटी में अलगाववादी गुटों के आंदोलन के इतिहास में चुन चुन कर की गयी कश्मीरी पंडितों की लक्षित और क्रूर हत्याएं निश्चित रूप से एक भयानक त्रासदी थीं। पर एक महत्वपूर्ण और अनुत्तरित प्रश्न यह है कि क्या ये हत्याएं कश्मीरियत के भ्रम को खत्म करने के लिए पाक एजेंसियों द्वारा किए गए 'प्रॉक्सी वॉर' का हिस्सा थीं या सामान्य तौर पर घटने वाली आतंकवादी गतिविधियां? क्या इन घटनाओं का उद्देश्य, कश्मीर घाटी में कश्मीरी मुसलमानों और कश्मीरी पंडितों के बीच एक अपूरणीय विभाजन पैदा करना था? या अधिकांश हत्याओं का उद्देश्य केवल कश्मीरी पंडितों की संपत्ति पर कब्जा करना था? या यह सब पिछली रंजिश का परिणाम था?
जब तक एक वस्तुपरक जाँच इन सब बिन्दुओं को समेटते हुए शुरू नहीं की जाती है और केंद्र तथा राज्य सरकार के सभी संबंधित अभिलेखों की पड़ताल नहीं हो पाती, तब तक इस त्रासदी के तह तक नहीं पहुंचा जा सकता है।
इस घटना और कश्मीर की वर्तमान स्थिति पर बहुत सी किताबें लिखी जा चुकी हैं। लोगों के संस्मरण हैं। वे घटना का खुलासा करती हैं। दोषियों को बेनकाब भी करती हैं। पर वे कोई क़ानूनी दस्तावेज नहीं हैं। उनके आधार पर कोई अदालत, किसी पर मुक़दमा नहीं चला सकती है। क़ानून की नज़र में वे साक्ष्य नहीं हैं। क्यों वे किसी वैधानिक रूप से गठित जाँच एजेंसी के निष्कर्ष नहीं हैं। 1989- 90 - 91 में, केंद्र में काफी अस्थिरता थी और जम्मू-कश्मीर की राजनीति में पाकिस्तान की रुचि बेहद बढ़ गयी थी। अलगाववादियों के नेतृत्व में तथाकथित 'आज़ादी' आंदोलन अपने चरम पर था। रोज़मर्रा के बड़े पैमाने पर प्रदर्शन होते थे, और सशस्त्र आतंकवादी अनंतनाग और कुछ अन्य शहरों की सड़कों पर खुलेआम घूमते थे। स्थानीय प्रशासनिक तंत्र लकवा की स्थिति में था और केंद्रीय बल जो अक्सर स्थानीय नब्ज को पढ़ने में असमर्थ होते थे, बस मौजूद भर थे। नेतृत्व का संकट राजनीतिक भी था और प्रशासनिक तो था ही। ऐसी संघर्ष भरी स्थितियों में किसी भी प्रकार का विश्वसनीय आकलन करना हमेशा एक चुनौती के समान होता है। जो सूचनाएँ मिल रही थीं वे अधूरी और अक्सर विरोधाभासी थीं। निर्णय लेने वालों को सलाह देने वाली एजेंसियों और अधिकारियों की धारणा भी अलग-अलग होती है। ‘युद्ध के कोहरे’ के समान वह वातावरण था।
प्रशासनिक/पुलिस व्यवस्था के दृष्टिकोण से 2 मुद्दे उन लोगों के लिए विशेष रूप से प्रासंगिक हैं जिन्हें इन स्थितियों का सामना, समाधान करना पड़ सकता है-
- क्या कभी इस बात पर प्रकाश डाला जाएगा कि काश्मीरी पंडित के बड़े पैमाने पर पलायन का फ़ैसला किसने लिए, किस आकलन पर आधारित था, और किन उद्देश्यों के साथ यह लिया गया?
- क्या उन कश्मीरी पंडितों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के अन्य तरीक़े थे जो इस सामूहिक पलायन के बजाय लागू किये जा सकते थे?
‘द कश्मीर फाइल्स’ फ़िल्म यदि आपको केवल गुस्सा दिला कर प्रतिशोध के लिये मानसिक रूप से तैयार कर रही है तो आप निश्चित ही एक ख़तरनाक षड्यंत्र के लिये गढ़े जा रहे हैं। आप की प्रोग्रामिंग की जा रही है। यह प्रयोग पहले भी दुनिया में हो चुका है। उस परिणाम का भयावह अंत भी आपको पता है। सरकार को कश्मीर के पंडितों के पलायन और उनकी वतन वापसी के लिये किये गए प्रयासों पर एक श्वेत पत्र लाना चाहिए। ‘द कश्मीर फाइल्स’ फ़िल्म ज़रूर देखिए। पर ग़ुस्से और दुःख पर नियंत्रण रखते हुए सरकार से यह मांग कीजिए कि 1990 से अब तक जिन जिन सरकारों ने जो भी योजनाएँ, कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास और वहां शांति बहाली के लिये बनाई हैं, उनपर एक श्वेत पत्र लाये और लोग यह जानें कि अब तक क्या क्या हुआ है?
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