29-30 अगस्त की रात को पूर्वी लद्दाख के पैंगोग झील इलाक़े के दक्षिणी छोर की काला टॉप और हेलमेट टॉप पर्वतीय चोटियों पर रातों-रात कब्जा जमाने वाले जांबाज तिब्बती और गोरखा जवान भारतीय सेना की स्पेशल फ़्रंटियर फ़ोर्स के हैं जिसे विकास बटालियन कहा जाता है। पैंगोंग झील के दक्षिणी छोर की चोटियों के इलाक़े में चीनी सेना को आगे बढ़ने से रोकने की साहसी कार्रवाई करने वाली इस बटालियन की स्थापना 1962 के युद्ध से पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने की थी।
नेहरू ने यह काम तब के ख़ुफ़िया ब्यूरो (आईबी) प्रमुख भोला नाथ मलिक की सलाह पर किया था। इस बटालियन में तिब्बती युवाओं को भर्ती करने की सिफारिश की गई थी ताकि वे तिब्बत के भीतर छापामार और ख़ुफ़िया गुप्तचर की भूमिका निभा सकें लेकिन बाद में इस बटालियन में गोरखा जवानों को भी भर्ती किया जाने लगा। शुरू में इस फ़ोर्स को ख़ुफ़िया ब्यूरो और बाद में रिसर्च एंड एनॉलिसिस विंग के अधीन रखा गया।
दुश्मन सेना पर बंदरों की तरह कूद कर हमला करने में माहिर इस बटालियन के जवान पर्वतीय और जंगल युद्ध के लिए प्रशिक्षित किए जाते हैं और इन्हें ऐसे ही इलाक़ों में तैनात किया जाता है।
बेहद घातक हैं कमांडो जवान
वर्तमान में इसका मुख्यालय उत्तराखंड के चकराता सैन्य अड्डे पर है जहां से इस बटालियन को पूर्वी लद्दाख में चीनी सैनिकों का मुक़ाबला करने के लिए भेजा गया है। इस बटालियन के जवान भारतीय सेना के सबसे घातक कमांडो के तौर पर जाने जाते हैं और इन्हें विशेष गोपनीय भूमिका में भी तैनात किया जाता है। इस बटालियन में महिला सैनिकों को भी भर्ती किया जाता है जिन्हें विशेष भूमिका दी जाती है।
शुरू में स्पेशल फ़्रंटियर फ़ोर्स की इस बटालियन का नाम इस्टैब्लिशमेंट-22 रखा गया था लेकिन बाद में इसे विकास बटालियन कहा जाने लगा। इस्टैब्लिशमेंट-22 का नाम इसलिए दिया गया था क्योंकि इसे खड़ा करने की जिम्मेदारी 22-माउंटेन रेजिमेंट के कमांडर मेजर जनरल सुजान सिंह उबन को सौंपी गई थी। इसलिए उन्होंने इस नई गुप्तचर लड़ाकू इकाई का नाम अपनी रेजीमेंट के नाम पर रखा था।
इस फ़ोर्स में वे तिब्बती जवान भर्ती किए गए जो तिब्बत में चीन के शासन के ख़िलाफ़ विद्रोह कर रहे थे। इन खम्पा विद्रोहियों को स्पेशल फ़ोर्स में भर्ती करने के लिए भारतीय ख़ुफ़िया ब्यूरो द्वारा तिब्बती विद्रोहियों के नेता चुशी गांगद्रुक से सम्पर्क किया गया था।
गौरतलब है कि पचास के दशक में तिब्बतियों को चीनियों के ख़िलाफ़ गुरिल्ला युद्ध में ट्रेनिंग देने के लिए अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए ने भारतीय इंटेलीजेंस ब्यूरो के साथ मिल कर नेपाल के मुस्तांग इलाक़े में अपना गोपनीय अड्डा बनाया था। मुस्तांग के विद्रोहियों ने ही ल्हासा में 1959 में तिब्बत विद्रोह के बाद 14वें दलाई लामा को भारत लाने में कामयाबी पाई थी। इसी सहयोग का नतीजा है कि बाद में तिब्बती विद्रोहियों को साथ लेकर स्पेशल फ़्रंटियर फ़ोर्स खड़ा करने की प्रेरणा तब के ख़ुफ़िया प्रमुख बीएन मलिक में पैदा हुई।
साजो-सामान से लैस हैं जवान
स्पेशल फ़्रंटियर फ़ोर्स को हालांकि थलसेना की ऑपरेशनल भूमिका में सेवारत रखा गया है लेकिन इसका प्रशासन कैबिनेट सचिवालय द्वारा किया जाता है। इसकी कमान इंस्पेक्टर जनरल रैंक के सैन्य अफ़सर को सौंपी जाती है। इस फ़ोर्स में करीब दस बटालियनें यानी करीब दस हजार सैनिक हैं। इस फ़ोर्स के जवानों को किसी भी घटनास्थल पर आपात स्थिति में तैनात करने के लिए अपना गल्फस्ट्रीम विमान, मालवाही हेलिकॉप्टर, टोही हेलिकॉप्टर और इसराइल से आयातित टोही विमान सर्चर और हेरोन के अलावा भारत में विकसित रुस्तम टोही विमान भी सौंपे गए हैं। इस कमांडो फ़ोर्स के जवानों को दुनिया के आधुनिकतम संहारक अमेरिकी सब मशीनगन एम-1, एम-2 और एम-3 से लैस किया गया है।
स्पेशल फ़्रंटियर फ़ोर्स को कई गोपनीय और खुली सैन्य कार्रवाइयों में तैनात किया जा चुका है। इसमें 1971 का भारत-पाक युद्ध, अमृतसर में स्वर्ण मंदिर में हुआ ऑपरेशन ब्लू स्टार, करगिल युद्ध और प्रतिविद्रोही कार्रवाई शामिल हैं।
1971 के युद्ध में इन्हें तब के पूर्वी पाकिस्तान के चटगांव में पाकिस्तानी सेना को तबाह करने के लिए भेजा गया था। इस युद्ध में स्पेशल फ़्रंटियर फ़ोर्स के तीन हजार जवान तैनात किए गए थे। 1971 के युद्ध में बांग्लादेश के इलाक़े में स्पेशल फ़ोर्स के जवानों की उल्लेखनीय भूमिका रही है।
तिब्बती युवा आधुनिक भारतीय सेना के हिस्सा रहे हैं और इसीलिए आजादी के बाद भी भारतीय सेना में इनकी भर्ती जारी रखी गई लेकिन बाद में तिब्बती युवकों की कमी होने की वजह से इनके साथ गोरखा युवाओं को भी भर्ती किया जाने लगा।
दी जाती है विशेष ट्रेनिंग
इस बटालियन की स्थापना चकराता में इसलिए की गई थी क्योंकि वहां भारी संख्या में तिब्बती शरणार्थी आबादी रहती है। चकराता एक पर्वतीय शहर है जहां के तिब्बती युवक बर्फीले पर्वतों की कठिनाई भरी जिंदगी के आदी होते हैं। इसीलिए इन तिब्बती युवकों को भारतीय थलसेना की सबसे खूंखार यूनिट के तौर पर खड़ा किया गया है। विकास बटालियन के जवानों को हवाई छाताधारी कमांडो की विशेष ट्रेनिंग दी जाती है और इन्हें ज़रूरत पड़ने पर किसी घटनास्थल पर विमानों से नीचे भी गिराया जाता है।
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