कुछ चीजें कभी नहीं बदलतीं, जैसे वैक्सीन को लेकर पैदा होने वाले भय और उस पर उठने वाली आशंकाएं। बेशक इन दिनों वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों और कई देशों की सरकारों की हड़बड़ियां भी इसमें भूमिका निभा रही हैं, लेकिन यह सिलसिला बहुत पुराना है।

नार्वे में जिस तरह फाइज़र की वैक्सीन लगने के बाद 29 बुजुर्गों का निधन हुआ, उसे हमें समझना होगा। भारत में भी वैक्सीन के विपरीत असर की खबरें आ रही हैं। चिकित्सा की भाषा में इस विपरीत असर को वैक्सीन इंजरी कहा जाता है और पिछले कुछ दशक में इस पर दुनिया भर में काफी काम भी हुआ है।
प्लेग की वैक्सीन
बात को अगर बहुत पहले ले जाएं तो तकरीबन सवा सौ साल पहले मुंबई के ग्रांट अस्पताल में वाल्डेमर मर्केडेई हाॅफकिन ने प्लेग की वैक्सीन तैयार की थी। उस समय प्लेग मुंबई से होता हुआ पूरे देश में फैल चुका था और किसी के पास इसका कोई इलाज नहीं था। ऐसे में वैक्सीन ही एकमात्र उम्मीद थी। वैसे ही जैसे इस समय हम कोविड-19 की अकेली उम्मीद वैक्सीन में ही देख रहे हैं। हालांकि प्लेग का जो खौफ था उसके सामने आज की महामारी कुछ भी नहीं है। प्लेग से संक्रमित होने वाले 90 फीसदी से ज्यादा लोगों की जान चली जाती थी।