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काश, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जैसा साहस दिखाते हुए सांसदों और पूर्व सांसदों को मिल रहे अनाप-शनाप भत्ते बंद कर दें या इनमें तर्कसंगत कटौती करने का साहस दिखाएं। योगी आदित्यनाथ अगर उप्र सरकार के मुख्यमंत्री और मंत्रियों के आय कर का भुगतान सरकारी खजाने से करने की 38 साल पुरानी व्यवस्था यदि एक झटके में ख़त्म कर सकते हैं तो ऐसी कोई वजह नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी सांसदों और पूर्व सांसदों को मिलने वाले तमाम भत्तों में कटौती करने का निर्णय नहीं ले सकते।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और मंत्रियों को ग़रीब बताते हुए उनके आयकर का भुगतान सरकारी खजाने से करने के लिए विश्वनाथ प्रताप सिंह के कार्यकाल में की गयी यह व्यवस्था बहुत ही हास्यास्पद थी। अगर यह मान लिया जाये कि 1981 में मुख्यमंत्री और मंत्री ग़रीब थे, तो सवाल उठता है कि तब ग़रीबी का पैमाना क्या था और अब क्या है?
विश्वनाथ प्रताप सिंह के कार्यकाल में किये गये इस प्रावधान के बाद अब बेहतर यह होगा कि अरबपति हो चुके इन मान्यवरों की संपत्ति का पूरा हिसाब मांगा जाये। आख़िर वह कौन सा जादुई चिराग था जिसने इन मान्यवरों को उनके कार्यकाल के दौरान ही अकूत संपत्ति का मालिक बना दिया।
प्रधानमत्री भी अगर सांसदों और पूर्व सांसदों को मिलने वाले भत्तों और सुविधाओं को कम करने का निणर्य लेते हैं तो इससे न सिर्फ़ सरकारी खजाने पर पड़ रहा आर्थिक बोझ कम होगा बल्कि भत्तों के नाम पर सुविधाओं का दुरुपयोग भी रुकेगा। दूसरी ओर, मंदी की मार झेल रही सरकार को इस तरह की कटौती से आर्थिक मोर्चे पर कुछ राहत मिल सकेगी।
इसमें संदेह नहीं है कि हमारे देश में निर्वाचित प्रतिनिधियों को बहुत ही ज़्यादा सुविधायें मिल रहीं हैं। इन सुविधाओं में इन प्रतिनिधियों के संसद या विधान मंडल का सदस्य नहीं रहने पर पेंशन के रूप में अच्छी-ख़ासी रकम देने की व्यवस्था शुरू से ही आलोचना का केन्द्र रही है।
पूर्व सांसदों और उनके परिजनों को मिल रही पेंशन सुविधा का मामला पहले भी उच्चतम न्यायालय पहुंचा था लेकिन इसे चुनौती देने वाले ग़ैर सरकारी संगठन लोक प्रहरी को इसमें सफलता नहीं मिली थी। शीर्ष अदालत के न्यायमूर्ति जे. चेलामेश्वर और न्यायमूर्ति संजय किशन कौल ने अप्रैल, 2018 में इस याचिका को खारिज कर दिया था।
केन्द्र सरकार ने पूर्व सांसदों को मिलने वाली पेंशन और अन्य सुविधाओं को न्यायोचित ठहराया था। पूर्व सांसदों को आजीवन पेंशन, यात्रा सुविधायें, टेलीफ़ोन सुविधा, मुफ़्त बिजली और पानी, देश में कहीं भी अपने जीवन साथी के साथ जाने के लिये ट्रेन से असीमित यात्रा की सुविधा शामिल है।
तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की कार्यशैली के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करने वाले चार न्यायाधीशो में शामिल न्यायमूर्ति चेलामेश्वर की अध्यक्षता वाली पीठ ने अपने फ़ैसले में कहा था कि हमारा मानना है कि कुछ सांसदों के आर्थिक रूप से सम्पन्न होने या करोड़ों की आबादी ग़रीब होने के संदर्भ में तर्क संगत प्रावधान करना या विधायी नीति में बदलाव करना संसद के दायरे में आता है। इस मामले में न्यायालय हस्तक्षेप नहीं कर सकती है।
हालाँकि यह परंपरा विश्वनाथ प्रताप सिंह के कार्यकाल में शुरू हुई लेकिन आगे चलकर वह राज्य की राजनीति से केन्द्र की राजनीति में आये और समाज के वंचित तबके़े के मसीहा बने। उन्होंने ही भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ बिगुल बजाया और अन्य पिछड़े वर्गो के लिये सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश के मामले में आरक्षण व्यवस्था लागू की।
1981 से आज तक मुख्यमंत्री और मंत्री बनने वाले सभी नेताओं ने इस सुविधा का भरपूर लाभ उठाया और चूं तक नहीं की।
सरकारी खजाने से मुख्यमंत्री और मंत्रियों के आयकर का 1981 से ही भुगतान होने का अगर मीडिया ने ख़ुलासा नहीं किया होता तो यह व्यवस्था अनवरत जारी रहती। मौजूदा सरकार के मुख्यमंत्री और मंत्रियों ने भी दो साल तक इस सुविधा का लाभ उठाया ही है। लेकिन यह मामला सामने आने के बाद मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने जिस साहसपूर्ण तरीके़ से यह सुविधा बंद करने का निर्णय लिया वह निश्चित ही सराहनीय है।
उप्र सरकार के इस निर्णय के बाद अब राज्य के प्रत्येक मुख्यमंत्री और मंत्रियों को अपने पास से आयकर का भुगतान करना होगा। निश्चित ही इस निर्णय से सरकारी खजाने पर पड़ रहा आर्थिक बोझ कम होगा। मुख्यमंत्री और मंत्रियों का इस साल का आयकर क़रीब 86 लाख रुपये था।
उम्मीद की जानी चाहिए कि उप्र के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने यह परपरा बंद करने का जो निर्णय लिया है उससे प्रेरित होकर प्रधानमंत्री ही नहीं बल्कि दूसरे राज्यों के मुख्यमंत्री भी ऐसे कदम उठायेंगे जिससे निर्वाचित प्रतिनिधियों को मिलने वाले भत्तों और अन्य सुविधाओं पर पुनर्विचार करके उन्हें तर्कसंगत बनाने का साहस दिखायेंगे।
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