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फोटो साभार: अमेरिकन साइकोलॉजिकल एसोसिएशन

ऐसे यूएनओ का क्या मतलब जो टूल की तरह इस्तेमाल हो

वर्तमान स्थितियों के मद्देनज़र यह ज़रूरी हो गया है कि या तो एक नयी ऐसी वैश्विक संस्था बने जो दक्षिणी दुनिया (गरीब देशों) को केंद्र में रखे या फिर यूएन में ही अमूल-चूल सुधार किया जाये। लेकिन क्या इतनी ईमानदारी से ऐसा संगठन बनाने को दुनिया के बड़े मुल्क आगे आयेंगे? 
एन.के. सिंह

इसराइल-अरब संघर्ष और उसके पहले से चल रही रूस –यूक्रेन जंग के मद्देनज़र यूएनओ की ख़त्म या नगण्य होती भूमिका दुनिया के लिए चिंता का सबब है। यह वही दुनिया है जो अभूतपूर्व संकट –कोविड महामारी से निकल कर आ रही है और अब धीरे-धीरे आर्थिक अवसान से भी उबारना संभव हो पा रहा है। आख़िर क्यों ढाई साल से चल रहे रूस-यूक्रेन युद्ध या वर्तमान में इसराइल-फिलस्तीन जंग का ख़तरनाक पश्चिम एशियाई विस्तार के बावजूद यह संगठन मूकदर्शक बना रहा? कोविड के संकट के दौरान इसकी भूमिका मात्र महामारी से मरने वालों के आँकड़े देने से ज़्यादा नहीं थी। वैक्सीन की खोज भी देशों ने अपने दम पर किया। यहाँ तक कि महामारी के लिए चीन प्रयोगशाला को दोषी ठहराने में भी यह आनाकानी करता रहा। 

रूस-यूक्रेन युद्ध में यह पश्चिमी दुनिया के इशारे पर काम करता रहा। इसराइल-फिलस्तीन युद्ध में तो संगठन प्रमुख को इसराइली सरकार ने अपने देश में प्रवेश पर पाबन्दी लगा दी और उन्हें ‘आतंकवादियों’ का समर्थक करार दिया। किसी ने सोचा भी न था कि इसराइली हिमाकत इस कदर निडर होगी कि लेबनान में यूएन की शांति बहाली सेना पर ही हमला कर देगी। भारत के विदेश मंत्री ने ठीक ही कहा कि वीटो-शक्ति संपन्न पांच देशों ने इस संगठन को अपने हित-साधन का टूल मान लिया है। उनका मानना था कि यह स्थिति बदलनी होगी ताकि संगठन को उपादेय बनाया जा सके। 

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लेकिन यहाँ यह भी सोचना होगा कि आज इस संगठन को मूकदर्शक किसने बनाया। यह संगठन तो दूसरे विश्व युद्ध की विभीषिका से उपजी सामूहिक सकारात्मक सोच की उपज थी। इसे दुनिया के सभी देशों ने अपना “पंच” माना था। फिर आखिर क्यों इसे बड़े मुल्कों ने अपने हित-साधन का टूल बनाया? इसकी सबसे ताक़तवर इकाई –सुरक्षा परिषद्—हर बार क्यों पांच देशों की वीटो शक्ति पक्षपाती प्रयोग से बाँझ होती गयी? 

फिर संगठन के लगभग आठ दशक के अस्तित्व में दुनिया में जबरदस्त आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक बदलाव आये। ऐसे में केवल पांच देशों का चौधरापन कोई ऐसा देश कैसे बर्दाश्त करेगा जो अपने बूते पर उभरा। दक्षिण कोरिया 25 साल में कहाँ से कहाँ पहुंचा जबकि तानाशाह उत्तरी कोरिया उसे धमकाता रहा। भारत पांचवीं अर्थ-व्यवस्था बना जबकि कभी अमेरिका, तो कभी चीन पाकिस्तान को भारत के खिलाफ उकसा कर युद्ध करवाते रहे। यूएन को पुनर्जीवित करना है तो नए “ग्लोबल प्लेयर्स” को भी सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य बनाना होगा। 

अन्य संस्थाएं भी खोखली

ब्रेटन वुड्स संस्थाएं- अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ़) और वर्ल्ड बैंक- भी अपने मूल उद्देश्यों की जगह अमेरिका और पश्चिमी देशों के हाथों की कठपुतली बनते गये। भारत की वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने अमेरिका में एक पैनल डिस्कशन में बदलती मार्केट इकॉनमी के मद्देनज़र दोनों संस्थाओं से अपनी कार्यप्रणाली में सुधार लाने को कहा। इन दोनों संस्थाओं का जन्म 80 वर्ष पहले अमेरिका के ब्रेटन वुड्स शहर में 44 देशों की सहमति से बहुपक्षीय आर्थिक संस्थाओं के रूप में हुआ था। 

आखिर क्यों रीजनल ग्रुप्स बन रहे हैं, क्यों ब्रिक्स या तमाम क्षेत्रीय संगठन द्वि-पक्षीय, त्रि-पक्षीय या बहु-पक्षीय आर्थिक ही नहीं, सामरिक समझौते कर रहे हैं? अगर यूएन समान भाव से सब को देखते हुए समस्याओं के निपटारे का फोरम बनाता तो परस्पर द्वंद्वात्मक संगठन क्यों खड़े होते?
यूएन के पास तो दुनिया में शिक्षा, स्वास्थ्य, ट्रेड, श्रम और शांति के लिए अलग-अलग उप-संगठन हैं। विकास के लिए समर्पित यूएनडीपी क्या वास्तव में अविकसित देशों को उठाने में कोई भूमिका अदा कर पा रहा है? आईएमएफ़ क्या आज के दौर में सही समय पर सही देश को बिना अमेरिकी हितों को संरक्षित किये उचित मदद दे पा रहा है? 
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लगभग 80 साल पहले यह संगठन तब बना था जब जंग की विभीषिका ने विश्व को दो भागों में बाँट दिया था –सोवियत संघ और अमेरिका। तब से आज तक परमाणु बम इफरात में आ चुके हैं और वो भी उन देशों में जिनके शासक असामान्य मानसिक स्थिति के लिए जाने जाते हैं। दुनिया में बढ़ते अशांत माहौल को देखते हुए इनका कब, कैसे और किस हद तक इस्तेमाल हो जाये, यह पहले से नहीं समझा जा सकता। 

वर्तमान स्थितियों के मद्देनज़र यह ज़रूरी हो गया है कि या तो एक नयी ऐसी वैश्विक संस्था बने जो दक्षिणी दुनिया (गरीब देशों) को केंद्र में रखे या फिर यूएन में ही अमूल-चूल सुधार किया जाये। लेकिन क्या इतनी ईमानदारी से ऐसा संगठन बनाने को दुनिया के बड़े मुल्क आगे आयेंगे? शायद शुरुआत छोटे और मंझोले देश करें जिनकी संख्या ज्यादा है। चूँकि ये बड़े उपभोक्ता भी हैं लिहाज़ा बड़े देश इन्हें नियंत्रित न कर सकें बशर्ते ये एक साथ रहें।

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एन.के. सिंह
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