1992 में मैंने अपने सुलतानपुर प्रवास में एक कविता लिखी थी, “तब तुम्हारी निष्ठा क्या होती?’ उसे मैंने ‘नवभारत टाइम्स’ को भेजा। उन दिनों वहाँ विष्णु खरे संपादक थे। उन्होंने उसे ‘नव भारत टाइम्स’ के 31 मार्च 1992 के रविवारीय अंक में प्रकाशित किया। उसे पढ़कर गिरीशचन्द्र श्रीवास्तव और शिवमूर्ति जी मुझसे मिलने आए, जो उन दिनों सुलतानपुर में ही रहते थे। दलित बुद्धिजीवियों में वह कविता इतनी लोकप्रिय हुई कि उसकी सैकड़ों प्रतियाँ फोटोस्टेट कराकर बांटी गईं। आज के दौर में उस कविता को कोई अख़बार नहीं छाप सकता। यह अनुभव मैंने इसलिए साझा किया, क्योंकि आज रामचरितमानस पर दलित बुद्धिजीवियों को कुपढ़ बताया जा रहा है। नवभारत टाइम्स में छपी उस लम्बी कविता की अंतिम पंक्तियाँ तुलसीदास की मानस पर हैं। ये पंक्तियाँ इस प्रकार हैं—
सवाल मानस में शूद्रों के अपमान का था, उसे राम से जोड़ दिया गया
- विचार
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- 6 Feb, 2023

तुलसीदास के रामचरितमानस पर आख़िर विवाद क्यों है? जानिए, हेमंत जोशी रामचरितमानस के पक्ष में जो तर्क रखते हैं, उसके विरोध में दलित चिंतक क्या कहते हैं।
तुलसीदास मानस में लिखतेपूजिए सूद्र सील गुन हीना।विप्र न गुन गन ग्यान प्रवीना।तब, तुम्हारी निष्ठा क्या होती?
मुख्य सवाल आज इसी निष्ठा का है, जिसे तुलसी-भक्तों में नज़रअंदाज़ किया जा रहा है। अगर रामचरितमानस को सिर्फ़ एक काव्य-कृति के रूप में स्वीकार किया जाता, और उसे धर्म-ग्रन्थ न बनाया गया होता, तो कोई विवाद ही नहीं होता। राम का जीवन चरित्र केवल तुलसीदास ने ही तो नहीं लिखा, और भी बहुत से कवियों ने लिखा है; वाल्मीकि, भवभूति, कालिदास, रसिक गोविन्द, केशव दास, मैथिलीशरण गुप्त आदि कितने ही कवियों ने राम की कथा लिखी है। उन्हें धर्म-ग्रन्थ की श्रेणी में क्यों नहीं रखा गया?