क्या भारत एक बड़े ख़तरे की तरफ़ बढ़ रहा है? क्या मोदी सरकार की नीतियाँ और सरकार चलाने का तरीक़ा संघीय ढाँचे में तनाव पैदा कर रहा है? क्या केंद्र और राज्यों के बीच दूरियाँ बढ़ती जा रही हैं? क्या ग़ैर बीजेपी शासित राज्यों को लग रहा है कि उनके साथ केंद्र सरकार पक्षपातपूर्ण बर्ताव कर रही है? और क्या ऐसे राज्यों को ये लग रहा है कि मोदी सरकार हिंदुत्व को उनके ऊपर थोपने की कोशिश कर रही है? ये वो सवाल हैं जो आज की ध्रुवीकृत राजनीति में मज़बूती से पूछे जा रहे हैं और ये विवेचना भी होनी चाहिये कि केंद्र और राज्यों के बीच बढ़ते तनावों का असर भविष्य में क्या पड़ सकता है।

भारत कई संस्कृतियों का एक संगम है। यहाँ भारत नाम का एक अखिल भारतीय विचार है तो तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मलयाली, बंगाली, उड़िया, असमिया, पंजाबी, गुजराती, मराठी, कश्मीरी अस्मिताएँ बेहद सशक्त और समृद्ध हैं। सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वो क्षेत्रीय अस्मिताओं का सम्मान करे, उनकी चेतना और वेदना को समझने का प्रयास करे।
पिछले दिनों तीन ऐसी घटनायें हुई हैं जो ख़तरनाक हैं और जिस पर गंभीर चिंतन की आवश्यकता है। ये तीनों घटनायें उन राज्यों से जुड़ी हैं जहां बीजेपी की सरकार नहीं है। पहली घटना तमिलनाडु की है। डीएमके नेता ए राजा ने एक सार्वजनिक मंच से कहा कि मोदी सरकार उनके राज्य को पेरियार के रास्ते पर जाने को मजबूर न करे, हमारे नेता (स्टालिन) अन्नादुरई के रास्ते पर चल रहे हैं। उन्होंने ये कहा कि राज्य को और स्वायत्तता दीजिये। हमें अलग देश के बारे में सोचने के लिये मजबूर न करें। राजा ने जब ये बात कही तब मंच पर मुख्यमंत्री स्टालिन मौजूद थे। इसलिये इस बयान को एक नेता का निजी बयान कह कर ख़ारिज नहीं किया जा सकता है। और न ही हल्के में लेने की ग़लती करनी चाहिये। तमिलनाडु की राजनीतिक पृष्ठभूमि उत्तर भारत की राजनीतिक ज़मीन से काफ़ी अलग है। सांस्कृतिक रूप से वो अपने को अलग देखते हैं। उत्तर और दक्षिण के बीच टकराव भी होता रहा है।
पत्रकारिता में एक लंबी पारी और राजनीति में 20-20 खेलने के बाद आशुतोष पिछले दिनों पत्रकारिता में लौट आए हैं। समाचार पत्रों में लिखी उनकी टिप्पणियाँ 'मुखौटे का राजधर्म' नामक संग्रह से प्रकाशित हो चुका है। उनकी अन्य प्रकाशित पुस्तकों में अन्ना आंदोलन पर भी लिखी एक किताब भी है।