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प्रतीकात्मक तसवीर।

'सामान्य राजनीति' के लिए हमारे तथाकथित बुद्धिजीवियों का विलाप

हमारे राजनेता जिन्हें जनता के हित का वास्तव में कोई ख्याल नहीं, सत्ता हासिल करने के लिए और धन अर्जित करने के लिए जाति और धर्म को आधार बनाकर नफरत फैलाने, हेरफेर करने और समाज में ध्रुवीकरण करने के विशेषज्ञ हैं। जातिवाद और सांप्रदायिकता सामंती ताकतें हैं, अगर भारत को प्रगति करनी है तो उसे इन्हें नष्ट करना होगा। लेकिन संसदीय लोकतंत्र उन्हें और मजबूत करता है। 
जस्टिस मार्कंडेय काटजू

‘सामान्य राजनीति’ के लिए पार्थो चटर्जी का विलाप भारत में तथाकथित बुद्धिजीवियों की मूर्खता और बुद्धिहीनता का प्रमाण है। अपने लेख 'किसी भी चीज़ से ज़्यादा मोदी यह जानते हैं कि मौके का  फायदा कैसे उठाया जाए' जो  'wire.in' में प्रकाशित हुआ था, चटर्जी मोदी के शासन में ‘सामान्य राजनीति’ के निलंबन की निंदा करते हुए लिखते हैं, “यह राजनीति ही है जो देश के सार्वजनिक जीवन में शालीनता और करुणा का स्तर सुनिश्चित करती है।’’

लेकिन क्या यह 'सामान्य राजनीति' थी, जिसे 1950 में संविधान लागू होने के बाद भारत में प्रचलित किया जा रहा था? जिसके कारण भयंकर ग़रीबी, रिकॉर्ड बेरोज़गारी, भयावह बाल कुपोषण का स्तर, 3 लाख से अधिक किसानों की आत्महत्यायें, स्वास्थ्य देखभाल और अच्छी शिक्षा का अभाव, भारत भर में व्यापक भ्रष्टाचार आदि हुआ। क्या चटर्जी का मानना है कि यह शालीनता और करुणा है?

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हर राजनीतिक प्रणाली का परीक्षण एक और केवल एक है। वह यह कि क्या यह जनता के जीवन स्तर को ऊपर उठाती है?, क्या यह जनता को बेहतर जीवन देती है?

तो यह सवाल पूछा जाना चाहिए (जिसे चटर्जी स्पष्ट पूछने में कतराते हैं) क्या मोदी के 2014 में सत्ता में आने से पहले जो ‘सामान्य राजनीति’ चल रही थी, क्या उसने ऐसा किया?

यह स्पष्ट है कि भारत में चटर्जी और अन्य तथाकथित ’बुद्धिजीवियों’ (शिक्षकों, मीडिया वाले, लेखक आदि) ने भारतीय संविधान में संसदीय लोकतंत्र के ढांचे के भीतर रहने को ही ‘सामान्य राजनीति’ समझा है। लेकिन हर कोई जानता है कि भारत में संसदीय लोकतंत्र काफी हद तक जातिगत और सांप्रदायिक वोट बैंक पर आधारित है। 

हमारे राजनेता जिन्हें जनता के हित का वास्तव में कोई ख्याल नहीं, सत्ता हासिल करने के लिए और धन अर्जित करने के लिए जाति और धर्म को आधार बनाकर नफरत फैलाने, हेरफेर करने और समाज में ध्रुवीकरण करने के विशेषज्ञ हैं। जातिवाद और सांप्रदायिकता सामंती ताकतें हैं, अगर भारत को प्रगति करनी है तो उसे इन्हें नष्ट करना होगा। लेकिन संसदीय लोकतंत्र उन्हें और मजबूत करता है। 

इसलिए, यह स्पष्ट है कि देश की उन्नति के लिए संसदीय लोकतंत्र प्रणाली का विकल्प ढूंढना होगा जो भारत को प्रगति के रास्ते पर तेज़ी से ले जा सके।

यह विकल्प सार्वजनिक क्रांति से आ सकता है। दूसरे शब्दों में, इसे केवल देशभक्त और आधुनिक दिमाग वाले नेताओं के नेतृत्व में एक क्रांति द्वारा किया जाना है, जिनका उद्देश्य भारत का तेजी से औद्योगिकीकरण करना हो। जैसे तुर्की में कमाल मुस्तफा और जापानी नेताओं ने 1868 के मीजी बहाली के बाद किया (मेरे यह सभी लेख ज़रूर पढ़ें - ‘India’s moment of turbulent revolution is here’ - firstpost.com पर , ‘India edges closer to its own French Revolution’ - theweek.in पर , ‘Eight steps to a revolution which can clean up the mess’  - daily.in , ‘A French Revolution is coming in India’ - indicanews.com पर , और  ‘Reforms will not do India any good—only a Revolution will’ - huffingtonpost.in पर प्रकाशित)

लेकिन ‘क्रांति’ शब्द ही हमारे तथाकथित ‘बुद्धिजीवियों’ को हिला देता है और वे इससे ऐसे दूर भागते हैं जैसे किसी प्लेग (महामारी) से। वे चाहते हैं कि भारत का एक महान ऐतिहासिक परिवर्तन शांतिपूर्ण ढंग से हो, उनके आरामदायक जीवन को किसी भी तरह हानि पहुंचाए बिना। 

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क्रांति शब्द फ़्रांसीसी क्रांति में सिर काटने वाला तंत्र गिलोटिन (guillotine) की छवि को उजागर करता है और वे इस संभावना से थरथराते हैं। वे इस बात से इनकार नहीं करते हैं कि भारत में सारी प्रणाली सड़ गयी है लेकिन वे इसे कानूनी और शान्तिपूर्वक तरीके से इसका सुधार करना चाहते हैं।

जब 1789 की फ्रांसीसी क्रांति के दौरान महान फ्रांसीसी नेता रॉबस्पीयर से पूछा गया कि उन्होंने लोगों के अवैध कृत्यों को क्यों उचित ठहराया तो उन्होंने कहा, “लेकिन मान्यवर यह क्रांति अवैध है, बैस्टिल किले का विनाश अवैध था, राजा की गर्दन काटना अवैध था। क्या आप बिना क्रांति के क्रांति चाहते हैं? -Voulez vous une revolucion sans revolucion (Do you want a revolution without a revolution?) "

हमारे तथाकथित भारतीय बुद्धिजीवी क्रांति के बिना क्रांति चाहते हैं।
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