मेरी एक परिचिता अपने पिता के साथ इसी तरह की एक घनी आबादी और पतली गलियों वाले इलाके में रहती थीं। हिंदी की इस महत्वपूर्ण कथा लेखिका के पिता वामपंथी राजनीति से जुडे़ थे और उनका जीवट देखने लायक था। इस झंझावात में भी, जब उनके कई करीबी मारे जा चुके थे और उन्हें भी तरह-तरह की धमकियां मिल रही थीं, उन्होंने हब्बा कदल का अपना घर न छोड़ने की जिद-सी ठान रखी थी। उन्होंने कश्मीर की साझा संस्कृति, चुनाव में राज्य द्वारा की गई धांधलियों और कश्मीरी राजनीति में घुन की तरह लगे भ्रष्टाचार पर विस्तार से मुझे समझाया था। मुझसे मिलने आने में जोखिम था, इसलिए वे छिपकर मेरे पास आते, बेटी बुर्के में होती और दोनों एक लंबा रास्ता लेकर मुझ तक पहुंचते।
पिछले दिनों जब द कश्मीर फाइल्स देख रहा था, तब मुझे उस बहादुर और सचेत बुजुर्ग कश्मीरी पंडित द्वारा साझा की गई जानकारियां याद आईं। ऊपरी तौर से तो सब कुछ वैसा ही लगा, जैसा उन्होंने बताया था, लेकिन दिमाग पर थोड़ा जोर देते ही लगता कि कहीं कुछ गड़बड़ हो रही है। मसलन, वे सब सूचनाएं गायब थीं, जिनमें मोहल्ले के पड़ोसी मुसलमानों ने पंडित को झूठ बोलकर भी बचाया था। वे अनगिनत कथाएं भी इस फिल्म की पटकथा का हिस्सा नहीं बन पाईं, जिनमें घर छोड़कर भाग चुके पंडित परिवार का कोई सदस्य अगर कभी अपनी संपत्ति की खोज-खबर लेने आता, तो उसका मुसलमान पड़ोसी उसे होटल से जबर्दस्ती लाकर अपने घर ठहराता।
उन्होंने एक दर्जन से अधिक किस्से सुनाए थे, जिनमें पंडितों के सेब के बागान की देखभाल करने वाले मुसलमान काश्तकार हर साल फसल बेचकर जम्मू के शरणार्थी कैंपों में रहने वाले उनके मालिकों को पैसा देने जाते और अपनी आंखें पोंछते हुए लौटते। पर ये प्रसंग तो फिल्म में कहीं दिखे ही नहीं। शायद जिस एजेंडे के तहत यह फिल्म बन रही थी, उसमें ये सकारात्मक प्रसंग कहीं फिट नहीं बैठते थे।उन दिनों अचानक शहर की जामा मस्जिद में जुमे की नमाज के बाद एक अपरिचित सा चेहरा खुतबे के लिए खड़ा होता और स्थानीय नमाजियों को कोसने लगता कि वे दरगाहों पर इबादत के लिए जाते हैं या कश्मीरियत के नाम पर बहुत सी गैर-इस्लामी परंपराओं में मुब्तला हैं। उसी जैसा कोई व्यक्ति मोहल्ले की मस्जिद पर भी काबिज था और वहां के माइक से पंडितों को घर छोड़कर भाग जाने को कह रहा था। इस व्यक्ति को स्थानीय लोग पहचानते तो नहीं थे, पर उसके उच्चारण और पोशाक से अनुमान लगा लेते कि वह पाकिस्तानी पंजाब या सरहदी इलाकों से आया है। इस फिल्म में पीढ़ियों से पड़ोस में रह रहे और सूबा सरहद से आए मुसलमान के बीच के फर्क को खत्म कर दिया गया है।
कश्मीरी पंडितों के विस्थापन की जो कहानी फिल्म में सुनाई गई है, वह तथ्यात्मक रूप से काफी हद तक सही होते हुए फिल्म को प्रचार से अधिक कुछ नहीं बना पाती है। इसमें आतंकवाद के फौरी कारण उन आम चुनावों का तो जिक्र ही गायब है, जो जनता को अपनी पसंद के प्रतिनिधि चुनने के अधिकार से वंचित करते थे।
फिल्म के निर्माता भूल गए कि युद्ध या घृणा पर बड़ी रचना वही हो सकती है, जो अंतत: इनके विरुद्ध अरुचि पैदा कर सके। यहूदियों के नरसंहार या होलोकास्ट पर बहुत-सी फिल्में बनी हैं, पर सम्मान से जिक्र उन्हीं का होता है, जो नस्लवादी संहार के विरुद्ध दर्शकों को खड़ा करती हैं। द कश्मीर फाइल्स तो प्रतिशोध की फिल्म है, इससे जुडे़ लोगों को द पियानिस्ट या लाइफ इज ब्यूटीफुल जैसी फिल्में देखनी चाहिए।
(लेखक रिटायर्ड आईपीएस हैं। फ़ेसबुक वाल से साभार)
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