सन 2000 में सुप्रीम कोर्ट ने ताजमहल के मूलत: शिवमंदिर होने का दावा करने वाली पी.एन.ओक की याचिका ‘बी इन हिज़ बोनेट’ की टिप्पणी के साथ खारिज कर दी थी। टिप्पणी का अर्थ हुआ कि याचिकाकर्ता को सनक सवार है, वह एक ही बात भुनभुना रहा है। लेकिन यह विवाद 2022 में भी सरगर्म है। नफ़रत की देग़ पर सत्ता की बिरयानी बनाने वालों के लिए न इतिहास से मतलब है और न तथ्यों से, उन्हें बस भुनभुनाते हुए उन कान के कच्चे लोगों के दिमाग़ में ज़हर भरना है जो उनकी राह आसान करते हैं।
आर्केलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया बार-बार कह चुका है कि इस बात के कोई प्रमाण नहीं हैं कि ताजमहल कभी मंदिर था। पीएम मोदी के पहले कार्यकाल में केंद्रीय संस्कृति मंत्री रहे महेश शर्मा ने स्पष्ट कहा था कि सरकार को ताजमहल के हिंदू मंदिर होने के दावे से जुड़ा कोई सबूत नहीं मिला है।
फिर भी आरएसएस और उससे जुड़े संगठनों के नेताओं और कार्यकर्ताओं की ओर से ताजमहल के ‘तेजो महालय’ होने की बात बार-बार कही जाती है। तमाम न्यूज़ चैनल इस मुद्दे को लगातार हवा देते रहते हैं। इरादा सत्य कहना नहीं, ताजमहल के नाम पर ध्रुवीकरण की कोशिश करना है।
ताजमहल के निर्माण से जुड़े तमाम दस्तावेज़ मौजूद हैं, जो यह साफ़ करते हैं कि इस विश्वप्रसिद्ध इमारत की कल्पना कैसे पहले लकड़ी के मॉडलों में ढाली गई फिर उसे कुशल कारीगरों ने लगभग बीस साल की मेहनत से साकार कर दिया।
शाहजहाँ 1628 में गद्दी पर बैठा था, 1630 में वह सल्तनत के विद्रोही ख़ान-ए-जहान लोदी का पीछा कर रहा था कि उसकी परमप्रिय बेग़म अर्जुमंद बानो उर्फ मुमताज महल की बुरहानपुर में मौत हो गई जो इस अभियान में साथ थी। शाहजहाँ को इससे गहरा सदमा लगा। शाहजहाँ के दरबारी इतिहासकार अब्दुल हमीद लाहौरी ने “पादशाहनामा” में लिखा है कि इस हादसे से पहले उसकी दाढ़ी के बीस बाल भी सफ़ेद नहीं थे, लेकिन इसके बाद उसके अधिकांश बाल सफ़ेद हो गए। उसने मनोविनोद, भड़कीले कपड़े, उत्तम पकवान का परित्याग कर दिया और शोक में डूबा रहा।
शाहजहाँ ने मुमताज की याद को अमर बनाने के लिए एक ऐसा मकबरा बनाने का फ़ैसला किया जिसकी मिसाल दुनिया में न हो।
राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी ने 1973 में इतिहासकार डॉ. रामनाथ की किताब ‘मध्यकालीन भारतीय कलाएँ एवं उनका विकास’ प्रकाशित की थी। इस किताब में उन्होंने इमारत की शुरुआत का वर्णन किया है। वे लिखते हैं- “शाहजहाँ ने विभिन्न स्थपतियों की एक सभा बुलाई और उसमें अपना मंतव्य प्रकट किया। उसने ऐसे मकबरे का ऐसा नक्शा बनाने का आदेश दिया जो नायाब, कमाल, लतीफ़ और अजीबो-ग़रीब हो। हरेक स्थपति ने अपने-अपने नक्शे पेश किए। एक नक्शा पसंद किया गया। उसमें शाहजहाँ ने घटा-बढ़ी की और फिर उसके अनुसार लकड़ी का एक मॉडल बनाया गया (बमूजिब आ नक्शा लतीफये रौज़ये चौबे तैयार शुद)। वास्तव में लकड़ी के बहुत से मॉडल बने और ताजमहल के अनुपातों को इनमें ही अंतिम रूप दिया गया। फिर उसे वास्तविक आकार में पत्थर का बना दिय गया।”
ताजमहल के निर्माण में उसी ईरानी चारबाग़ योजना का इस्तेमाल किया गया है जो मुग़ल भारत लेकर आए थे। इसमें बाग़ की ज़मीन को नहरों से काटकर चार भागों में विभाजित करते हैं। भारत की भीषण गर्मी से परेशान बाबर ने अपनी आत्मकथा में आश्चर्य जताया है कि भारत में लोग न तो योजनाबद्ध रूप से बाग़ लगाते हैं और न बहते हुए पानी की कोई कृत्रिम व्यवस्था ही करते हैं। उसने आगरा में बाग़-ए-गुलअफ़्शाँ (अब रामबाग़) समेत कई बाग़ लगवाए थे। ताजमहल की चारबाग़ योजना में बस एक फ़र्क़ ये किया गया कि बीच में एक संगमरमर का तालाब बनाया गया और मकबरे को बाग़ के उत्तर में ठीक यमुना नदी के ऊपर बनाया गया।
अगर ये इमारत किसी राजपूत राजा का बनवाया शिवमंदिर था तो फिर राजपूत इतिहास में कहीं इसका ज़िक्र क्यों नहीं? न ही कहीं और इस शैली का बना कोई दूसरा मंदिर ही मिलता है! क्या यह संभव है कि कोई शैली सिर्फ एक मंदिर में इस्तेमाल हो? सच तो ये है कि मुग़लों के आने के पहले मंदिरों पर ‘मेहराबदार गुंबद’ बनाने की परंपरा ही नहीं थी।
अगर ऐसी कोई इमारत पहले से मौजूद होती तो बाबर ने अपनी आत्मकथा में इसका ज़िक्र ज़रूर किया होता। अगर इसे मान सिंह ने बनवाया था (जैसा प्रचारित किया जाता है) तो फिर बदायूँनी और अबुल फ़ज़ल जैसे अकबरकालीन इतिहासकार ज़िक्र ज़रूर करते।
मुग़ल दौर में तमाम विदेशी व्यापारी भारत आते रहते थे। किसी ने भी यमुना किनारे संगमरमर के किसी ‘मंदिर’ का ज़िक्र नहीं किया। उल्टा वे शाहजहाँ द्वारा मकबरा बनवाने का ज़िक्र ज़रूर करते हैं। 1631 में अंग्रेज़ व्यापारी पीटर मंडी ने स्पष्ट लिखा कि शाहजहाँ अपनी पत्नी की स्मृति में एक विशाल मकबरा बनवाना प्रारंभ कर रहा है। फ्रांसीसी व्यापारी जी.बी टैवर्नियर कई बार भारत आया था। उसने 1676 में प्रकाशित किताब ‘ट्रैवल इन इंडिया’ में तामजमहल के बारे में साफ़ लिखा कि उसने इस ‘महान कार्य को प्रारंभ होते और परिपूर्ण होते’ देखा है।
शाहजहाँ के जीवन के उत्तरार्ध में भारत आए और उत्तराधिकार युद्ध के दौरान चिकित्सक के रूप में शामिल रहे फ्रांसीसी यात्री फ्रैंक्विस बर्नियर ताजमहल को साफ़तौर पर शाहजहाँ द्वारा निर्मित बताता है ‘जिसकी तरह की सुंदर इमारत पूरे यूरोप में नहीं है।’ बर्नियर लिखता है -
“मैं ज़ोर देकर कह सकता हूँ कि यह इमारत संसार की विचित्र चीज़ों में मिस्र के उन पिरामिडों की अपेक्षा गिने जाने के लिए अधिक योग्य है जो केवल अनगढ़ पत्थरों के ढेर मात्र हैं, जिन्हें दोबारा देखने पर मेरा जी उकता गया, जिनको देखने से यह अनुमान होता है कि एक पर एक पत्थर लाद दिए गए हैं और जिनमें कारीगरी या कला-कौशल का बहुत ही कम समावेश है।” (पेज, 185, बर्नियर की भारत यात्रा, प्रकाशक- नेशनल बुक ट्रस्ट)
ऐसे दस्तावेज़ों की कमी नहीं जिनमें ताजमहल के निर्माण से जुड़ी तमाम बातें दर्ज हैं। अब्दुल हमीद लाहौरी ने साफ़ लिखा है कि वह ज़मीन जो इस मकबरे के लिए चुनी गई वह मूल रूप से राजा मानसिंह की थी और इस समय उनके पोते राजा जय सिंह के अधिकार में थी। उन्हें इसके बदले में सरकारी ज़मीन दी गई और यहाँ ‘नीचों से इमारत बनाने का काम प्रारंभ हुआ।’
यही नहीं, इस संबंध में शाहजहाँ के कई फ़रमान मौजूद हैं जो बताते हैं कि किस तरह वह ताजमहल के निर्माण को लेकर सजग था। 20 सितंबर 1632 को जय सिंह को लिखे फरमान में शाहजहाँ कहता है-
“ज्ञात हो कि हमने मुल्कशाह को नई खानों से सफ़ेद संगमरमर लाने के लिए आम्बेर (आमेर) भेजा है और हम एतद्दवारा आदेश देते हैं कि आवश्यक संख्या में पत्थर काटने वाले और किराये की गाड़ियाँ पत्थर काटने के लिए जिनकी उपरोक्त मुल्कशाह को आवश्यकता पड़े, राजा उपलब्ध कराएगा। और पत्थर काटने वालों का वेतन तथा गाड़ियों के किराये की व्यवस्था वह राजकीय कोषागार की राशि से करेगा। यह आवश्यक है कि राजा मुल्कशाह को इस मामले में हर प्रकार से सहायता करे और वह इसे अति आवश्यक समझे तथा इस आदेश के परिपालन में भूल न करे।”
ताजमहल के तेजोमहालय होने को लेकर ताजमहल में मौजूद कुछ ऐसे चिन्हों का हवाला दिया जाता है जिनका संबंध हिंदू परंपरा से है। लेकिन यह कलाओं के विकास और उसमें विभिन्न शैलियों के सम्मिश्रण के महत्व को न जानने के कारण होता है। किसी मुगल इमारत में खम्बे, कलश, चक्र या कमल का होना उसी सम्मिश्रण की वजह से होता है। मुग़ल इमारतों को बनाने में बड़े पैमाने पर स्थानीय कारीगर भी शामिल होते थे जो पारंपरिक कला-परंपराओं में दीक्षित होते थे और अपने निशान छोड़ते थे।
हमारे गुरु और प्रसिद्ध इतिहासकार दिवंगत लालबहादुर वर्मा ने एक बार कहा था कि पी.एन.ओक की किताब जब प्रकाशित हुई थी तभी उन्होंने प्रो. बनारसी प्रसाद सक्सेना से इसका मुकम्मल जवाब देने का अनुरोध किया था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में मध्य एवं आधुनिक इतिहास विभाग के अध्यक्ष रहे प्रो.सक्सेना शाहजहाँ पर अथॉरिटी माने जाते थे। लेकिन उन्होंने शायद ऐसे लोगों के ‘मुँह लगना’ उचित नहीं समझा।
ज्ञान और अवाम के बीच की दूरी का क्या नतीजा हुआ, यह ताजमहल विवाद में देखा जा सकता है। टैगोर ने जिसे काल के गाल पर ढलका हुआ आँसू बताया था, उसी ताजमहल का नाम लेकर इतिहास को ख़ून के आँसू रुलाने का कुत्सित प्रयास हो रहा है।
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