किसी भी बाहरी चुनौती के समय अपने घर को एकजुट रखना घर के ज़िम्मेदार लोगों की प्राथमिकता होती है, लेकिन तवांग में चीनी घुसपैठ से पैदा हुए आक्रोश को देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की ओर मोड़ते हुए देश के घर (गृह) मंत्री अमित शाह ने जिस तरह के सवाल उठाये वह इस पारंपरिक विवेक को उलटने जैसा है।
अफ़सोस कि इसके लिए उन्होंने गलत तथ्यों का सहारा लिया जो गृहमंत्री जैसे पद की गरिमा को धूमिल करता है। अमित शाह का यह कहना कि नेहरू के ‘चीन प्रेम के कारण सुरक्षा परिषद में भरत की स्थायी सदस्यता की बलि चढ़ गयी’, न सिर्फ़ तथ्यात्मक रूप से गलत है बल्कि भारत को एक आधुनिक राष्ट्र-राज्य बनाने को अथक परिश्रम करते हुए बेमिसाल कुर्बानी देने वाले पं.नेहरू की निष्ठा पर भी सवाल उठाना है।
13 दिसंबर को संसद के दोनों सदनों में विपक्ष तवांग के घटनाक्रम पर बहस चाहता था, लेकिन चार दिन बाद देश को सूचित करने खड़े हुए रक्षामंत्री राजनाथ सिंह बस बयान देकर चलते बने। उन्होंने विपक्ष के सामान्य सवालों का जवाब देने की भी ज़रूरत नहीं समझी, बहस कराना तो दूर की बात।
विपक्ष ने ग़ुस्सा ज़ाहिर करते हुए संसद की कार्यवाही का बहिष्कार किया तो बीजेपी नेताओं की ओर से कहा जाने लगा कि ऐसे वक्त पर सरकार पर सवाल उठाना ग़ैरज़िम्मेदाराना है। ये उस पार्टी का रवैया था जिसने 1962 के युद्ध के समय न सिर्फ़ पं.नेहरू के ख़िलाफ़ ज़बरदस्त निंदा अभियान चलाया था बल्कि संसद में बहस की माँग भी की थी। उस समय बीजेपी के युवा नेता अटल बिहारी वाजपेयी की इस माँग को पंडित नेहरू ने ग़ौर से सुना था और युद्ध के दौरान इस चीनी आक्रमण के मुद्दे पर बहस करायी थी।
इतना ही नहीं, पं.नेहरू ने इस ‘बहस को गोपनीय’ रखने की सलाह को ठुकरा दिया था और कहा था कि देश को इस ज़रूरी मुद्दे पर हुई बहस के बारे में जानने का हक़ है।
क़ायदे से तो इस स्पष्टीकरण के बाद किसी विवाद की गुंजाइश नहीं रह जाती लेकिन यदि अमित शाह को नेहरू जी की बात असत्य लगती है तो वे उस प्रस्ताव की कॉपी को सार्वजनिक कर सकते हैं जिसमें भारत को सुरक्षा परिषद का सदस्य बनने का निमंत्रण दिया गया था।
भारत सरकार के साथ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुआ हर पत्राचार उनकी पहुँच के दायरे में ही नहीं नियंत्रण में भी है लेकिन गृहमंत्री को शायद सत्य के संधान से ज़्यादा अफ़वाहों को भी हवा देना है। जिस देश में आज तक यह माना जाता है कि पं.नेहरू के कपड़े धुलने के लिए पेरिस जाते थे (कोई अहमक ही ऐसा करेगा क्योंकि इसमें आने वाले ख़र्च से कई जोड़ी कपड़े बन जायेंगे!) वहाँ गृहमंत्री की ग़लतबयानी किस क़दर वायरल होगी और किसका मक़सद हल करेगा, यह समझा जा सकता है।
इन्हीं अफ़वाहों का नतीजा है कि लोग यह भी याद नहीं करते कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का जब गठन हुआ तो भारत आज़ाद भी नहीं हुआ था। प्रथम विश्व युद्ध के बाद 1920 में पेरिस शांति समझौते के तहत अस्तित्व में आया ‘लीग ऑफ नेशन्स’ बुरी तरह असफल साबित हुआ था।
ज़ाहिर है द्वितीय विश्व युद्ध में मित्र राष्ट्रों की विजय के बाद एक नये अंतरराष्ट्रीय संगठन की ज़रुरत महसूस हुई और 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ अस्तित्व में आया। इसके सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य के रूप में ब्रिटेन, फ्रांस, अमेरिका, रूस के साथ-साथ ‘रिपब्लिक ऑफ चाइना’ को भी शामिल किया गया जिसने च्यांग काई शेक के नेतृत्व में मित्र राष्ट्रों का साथ दिया था। कोई वजह नहीं थी कि ऐसा करते वक़्त भारत की आज़ादी के आंदोलन को धार देते हुए ब्रिटेन की आँखों में चुभने वाले पं.नेहरू से राय ली जाती।
चीन के मसले में एक जटिलता ये आयी कि 1949 मे वहाँ माओत्से तुंग के नेतृत्व में हुई कम्युनिस्ट क्रांति ने मुख्य भूमि पर ‘पीपुल्स रिपबल्कि ऑफ चाइना’ का झंडा बुलंद कर दिया और च्यांग काई शेक के रिपब्लिक ऑफ चाइना को एक द्वीप (ताइवान) पर निर्वासित होने को मजबूर कर दिया जो चीन का ही एक हिस्सा है। सोवियत संघ ने इस ‘नये चीन’ को तुरंत मान्यता दे दी लेकिन सुरक्षा परिषद के अन्य सदस्यों को इसमें समय लगा।
लेकिन आख़िरकार ‘वन चाइना पॉलिसी’ को संयुक्त राष्ट्र ने मान्यता दी और ताइवान की राजधानी ताइपे की जगह चीन की राजधानी बीज़िंग को सुरक्षा परिषद के सदस्य की शक्ति हासिल हो गयी। दुनिया की नज़र में ताइवान चीन का एक प्रांत ही होकर रह गया। उस शीतयुद्धकालीन दौर में चली बहसों में पं.नेहरू ने ‘पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना’ को सदस्यता देने का समर्थन किया था क्योंकि माओ की क्रांति एक हक़ीक़त थी और चुनाव ताइवान और बीजिंग के बीच था, न कि भारत और चीन के बीच। गुट निरपेक्ष आंदोलन के नेता के बतौर वे सुरक्षा परिषद में पूर्व और पश्चिम का एक संतुलन भी चाहते थे।
समस्या ये है कि व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी के छात्रों और प्रोफेसरों को तथ्यों से नहीं सिर्फ़ शिकार से मतलब होता है। पूरी दुनिया की तरह मोदी सरकार भी वन चाइना पॉलिसी को मानती है और ताइवान अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद संयुक्त राष्ट्र का सदस्य तक नहीं है।
प्रधानमंत्री मोदी ने बतौर गुजरात के मुख्यमंत्री चार बार चीन का दौरा किया था और 2014 में प्रधानमंत्री बनने के फ़ौरन बाद चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को गुजरात का दौरा कराके दोस्ती का नया अध्याय शुरू किया था। वे अब तक 20 बार शी जिनपिंग से मुलाक़ात कर चुके हैं इसके बावजूद 2017 में डोकलाम विवाद, 2020 में गलवान की खूनी झड़प और 2022 में तवांग का घटनाक्रम हुआ। गलवान घाटी में तो भारत के 20 जवानों की शहादत भी हुई पर प्रधानमंत्री मोदी ने कह दिया कि ‘न कोई घुसा था और न कोई घुस आया है।‘
उनके इस बयान ने चीन के आक्रमणकारी रवैये को ढाल दे दी जिसका उसने बार-बार इस्तेमाल किया। नतीजा ये हुआ कि भारतीय सैनिकों की गश्त का दायरा गलवान में सीमित कर दिया गया।
आज नेपाल से लेकर श्रीलंका तक भारत के ज़्यादातर पड़ोसी चीन के प्रभाव में हैं। उपग्रह से खींचे गये चित्र साफ़तौर पर बताते हैं कि चीन ने भारतीय ज़मीन में घुसकर गाँव बसा दिये हैं। अरुणाचल प्रदेश से बीजेपी के सांसद तापिर गाव ने संसद में खड़े होकर कहा कि ‘चीन भारत के अंदर 50-60 किलो मीटर तक घुस आया है लेकिन न सरकार को फ़िक्र है और न मीडिया ही चर्चा करता है।‘ मोदी सरकार इस गंभीर मुद्दे पर मुँह खोलने को तैयार नहीं है। हद तो ये है कि चीनी झालरों के बहिष्कार के ‘राष्ट्रवादी आंदोलन’ के बावजूद मोदी राज में भारत और चीन के बीच व्यापार कई गुना बढ़ गया है।
ऐसे में सवाल ये है कि चीन को लेकर अपनी कूटनीतिक विफलताओं के लिए मोदी सरकार कब तक बहाने बनायेगी और गृहमंत्री अमित शाह कब तक पं.नेहरू को लेकर देश को गुमराह करते रहेंगे?
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