गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर स्वतंत्र भारत की कल्पना करते अपनी मशहूर कविता (Where the mind is without fear and the head is held high) में लिखते हैं कि “जहाँ चित्त भय से शून्य हो/ जहाँ गर्व से माथा ऊँचा करके चल सकें/ जहाँ ज्ञान मुक्त हो/ जहाँ दिन रात विशाल वसुधा को खंडों में विभाजित कर छोटे-छोटे आँगन न बनाये जाते हों/….. हे पिता, अपने हाथों से निर्दयता पूर्ण प्रहारकर/ उसी स्वतंत्र स्वर्ग में इस सोते हुए भारत को जगाओ...!”
लेकिन आज का भारत कविगुरु की इस कल्पना से बिल्कुल उलट है जहाँ सत्य बोलने या अन्याय का प्रतिकार करने मात्र से ‘देशद्रोही’ कहलाते हुए जेल जाने की घटनाएँ रिकॉर्ड तोड़ रही हैं।
इसी माहौल में 7 सितंबर से कन्याकुमारी से ‘भारत जोड़ो यात्रा’ शुरू हुई जिसने 16 दिसंबर को सफ़र के सौ दिन सफलतापूर्वक पूरे कर लिए। संविधान के संकल्पों और ‘आयडिया ऑफ इंडिया’ की याद दिलाते हुए राहुल गाँधी के नेतृत्व में चल रही कांग्रेस की इस पद-यात्रा ने अब तक 8 राज्यों से गुज़रते हुए साढ़े तीन हज़ार किलोमीटर यानी कुल यात्रा का लगभग दो तिहाई सफ़र पूरा कर लिया है।
ऐसे में ये सवाल स्वाभाविक है कि आख़िर इस यात्रा का हासिल क्या है? इस सवाल का जवाब तलाशना शुरू करते ही दो मशहूर हस्तियों के बयान कान में गूँजने लगते हैं। यात्रा के सौ दिन पूरे होने की पूर्व संध्या पर कोलकाता इंटरनेशनल फ़िल्म फ़ेस्टिवल में रुपहले पर्दे के महानायक कहलाने वाले अमिताभ बच्चन ने ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी’ का सवाल उठाया और सुपरस्टार शाहरुख़ ख़ान ने कहा कि “दुनिया कुछ भी कर ले मैं, आप लोग और जितने भी पॉजिटिव लोग हैं, सबके सब जिंदा हैं।” फ़िल्म ‘पठान’ के एक रोमांटिक गाने के पिक्चराइज़ेशन में भगवा वस्त्र के इस्तेमाल से हिंदुत्ववादियों के निशाने पर आये शाहरुख़ का ये बयान सामान्य नहीं है क्योंकि आमतौर पर वे विवादित मुद्दों पर चुप रहते हैं। इससे भी बड़ा आश्चर्य है पीएम मोदी के प्रिय अमिताभ बच्चन का ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी’ पर छाये ख़तरे की ओर इशारा करना जिसका सवाल उठाने वाले न जाने कितने बुद्धिजीवी और पत्रकार ‘देशद्रोही’ क़रार दिये जा चुके हैं।
अगर ये किसी ‘बदलते मौसम’ का सबूत है तो फिर सौ दिन की भारत जोड़ो यात्रा को इसका श्रेय ज़रूर देना चाहिए जिसकी शुरुआत से लेकर अब तक के सफ़र में राहुल गाँधी ने तानाशाही का सवाल उठाते हुए बार-बार एक ही मंत्र दोहराया है- डरो मत!
हो सकता है कि कुछ लोग मोदी शासन और अंग्रेजों के शासन की तुलना को अतिरेक मानें लेकिन जिस तरह से जीवन भर कांग्रेस का विरोध करने वाले सैकड़ों जनसंगठन इस यात्रा में शामिल हैं वह स्थिति की गंभीरता को बताता है।
कथित मुख्यधारा मीडिया के लगभग ब्लैकआउट के बावजूद अगर लाखों लोग इस यात्रा में उत्सुकता के साथ सूबे दर सूबे जुड़ते गये हैं तो वजह उस ‘आयडिया ऑफ़ इंडिया’ पर छाये ख़तरे का ही है जिसने संविधान के ज़रिये दलितों, आदिवासियों, स्त्रियों को ख़ासतौर पर पहली बार स्वतंत्रता और समता का वैधानिक अधिकार दिया था। साथ ही अल्पसंख्यकों को अपने धर्म और पहचान के साथ सभी नागरिक अधिकारों के साथ गरिमामय जीवन का भरोसा दिया था। जिस संविधान के ज़रिये यह काम होना था आज वही निशाने पर है।
लोकतंत्र और उन्हें मज़बूत बनाने वाले संस्थानों के महत्व के लिहाज़ से नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के पहले और बाद के भारत में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ अब महज़ आरोप नहीं है। कार्यपालिका से तो ख़ैर उम्मीद भी नहीं की जा सकती पर न्यायपालिका ने भी देश को बेतरह निराश किया है। इस संकट को जन-चर्चा का केंद्र बनाने की ज़िम्मेदारी से बँधा मीडिया सत्ता का ऐसा चारण बना हुआ है जिसकी दूसरी मिसाल दुनिया भर में नहीं है। विपक्ष को कठघरे में रखने की उसकी नीति ने मीडिया को सत्ता के उपकरण में बदल दिया है।
‘भारत जोड़ो यात्रा’ के ज़रिये इसी स्थिति पर सवाल उठाते हुए लाखों लोगों से संवाद किया गया जिसने माहौल बदला है। यह यात्रा इस मायने में भी अभूतपूर्व है कि विश्व इतिहास के किसी दौर में किसी राजनेता ने ऐसी पदयात्रा नहीं की जिसका मक़सद फ़ौरी राजनीतिक लाभ न होकर प्रेम और सद्भावना जैसे मानवीय और सभ्यतागत गुणों का प्रचार रहा हो। संत-महात्मा ज़रूर ऐसी यात्रा किया करते थे लेकिन लगातार पैदल चलते हुए कन्याकुमारी से कश्मीर के बीच साढ़े तीन हज़ार किलोमीटर से अधिक दूरी मापने का कोई प्रयास इस परिसर में भी शायद ही हुआ हो। इस शिद्दत से इसकी ज़रूरत भी कभी महसूस नहीं की गयी थी। भारत के इतिहास में कभी ऐसा नहीं हुआ कि किसी शासक ने बहुसंख्यक जनता में किसी समुदाय विशेष के ख़िलाफ़ घृणा-प्रसार को संस्थागत रूप दिया हो। न सम्राटों के समय ऐसा हुआ, न सुल्तानों और बादशाहों के। उनके तीर-तलवार उनकी महत्वाकांक्षाओं की राह मे रोड़े बने सहधर्मियों का भी शिकार करते रहे और लगान वसूली के लिए उनके कोड़े बिना धार्मिक भेदभाव के पीठ की चमड़ियाँ उधेड़ती रहीं।
इस लिहाज़ से राहुल गाँधी की यह यात्रा एक अभूतपूर्व संकट के दौर में किया जाने वाला ‘अभूतपूर्व प्रयास’ है। अपने पाँव के छालों को चर्चा में आये दिये बिना की जा रही राहुल की इस तपस्या को देखते हुए कहना मुश्किल हो रहा है कि वे संत हैं या राजनेता। और यह सिर्फ़ उनकी बढ़े हुए बालों और खिचड़ी दाढ़ी की वजह से नहीं है। वे इस यात्रा के दौरान जिस तरह धर्म और दर्शन से जुड़े प्रश्नों को उठाते हैं, उसने यह छवि बनायी है। वे अपनी भंगिमाओं में आज़ादी की लड़ाई में तप कर निकले राजनेताओं की उस प्रजाति की याद दिलाते हैं जो लगभग लुप्त हो चुकी है। जो देश के लिए किसी भी कुर्बानी के लिए तैयार रहती थी।
इस यात्रा के पहले राहुल गाँधी ने जिस तरह नेशनल हेराल्ड केस में कई दिनों तक ईडी के सवालों का सामना किया और जेल भेजने की चुनौती दी, उसने ईडी और सीबीआई से भयभीत तमाम विपक्षी नेताओं से अलग एक साहसी नेता के तौर पर उन्हें स्थापित किया।
उसके बाद इस यात्रा ने उनकी ‘पप्पू छवि’ निर्मित करने पर ख़र्च हुए सैकड़ों करोड़ पर पानी फेर दिया है। स्कूली बच्चों, युवाओं, महिलाओं, मछुआरों, किसानों से लेकर रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन से हुई राहुल की बातचीत के वीडियो लाखों लोगों तक पहुँचे हैं जिसने उन्हें एक बेहद संजीदा राजनेता बतौर जनमानस में स्थापित किया है। यही नहीं, इस यात्रा ने जी-23 के हल्ले के बीच बिखराव जैसी हालत का शिकार नज़र आ रही कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं की मायूसी दूर की है और उन्हें संघर्ष के मैदान में डटने की शक्ति दी है। इस पदयात्रा ने राहुल ही नहीं, पूरी कांग्रेस का कायांतरण किया है। राहुल ने यात्रा के दौरान कहा भी- “मैं पुराने राहुल गाँधी को बहुत पीछे छोड़ आया हूँ।”
कुछ लोगों की राय में राहुल गाँधी ने हालिया चुनावों से दूरी बनाकर अपरिपक्वता का परिचय दिया है। अगर यात्रा स्थगित करके चुनाव में ताक़त झोंकी जाती तो गुजरात में जैसी पराजय हुई वह न होती। लेकिन अगर ऐसा होता तो शायद यात्रा की जो ‘नैतिक आभा’ आज नज़र आ रही है, वह धूमिल पड़ जाती और यह महज़ एक राजनीतिक दाँव बन कर रह जाती। आज समाजसेवियों से लेकर पूर्व नौकरशाह, पूर्व सैन्य अधिकारी, पूर्व न्यायाधीश, बुद्धिजीवी, लेखक, खिलाड़ी और अभिनेता तक इस यात्रा से जिस तरह जुड़ रहे हैं, वह शायद मुमकिन न होता। आज यह यात्रा हर उस व्यक्ति के अंदर कुछ करने का जज़्बा भरने में क़ामयाब है जो ‘सत्ताधारियों के संगठित नफ़रती अभियान’ से ‘भारत नाम के विचार’ को बचाना चाहते हैं।
यानी इस यात्रा की सबसे बड़ी उपलब्धि राहुल गांधी के रूप में एक संजीदा राजनेता का उदय है जिसने देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी में उत्साह भर दिया है। सावरकर और आरएसएस पर लगातार सवाल उठाकर राहुल ने कांग्रेसी होने का एक वैचारिक आधार भी अनिवार्य कर दिया है। ‘मोदी सत्ता से डरने वालों’ या ‘आरएसएस से वैचारिक संघर्ष से हिचकने वालों’ को पार्टी छोड़ने के लिए कहना उनकी प्रतिबद्धता को ही दर्शाता है। साथ ही पूँजी के केंद्रीकरण और कॉरपोरेट एकाधिकार के सवाल उठाकर ‘लेफ्ट टू द सेंटर’ की कांग्रेस की आर्थिक नीतियों को फिर स्पष्ट किया है जहाँ पूँजीवाद को एक मानवीय चेहरे के साथ ही अपनी गतिविधियों की छूट संभव है।
एक लिहाज़ से इस यात्रा ने मायूस हो चले देश को झकझोरा है। सोते से जगाया है। विकल्प की तस्वीर साफ़ की है। यह मौजूदा सत्ता के लिए बुरी ख़बर है। जैसा कि गोरख पांडेय लिख गये हैं-
वे डरते हैं,
किस बात से डरते हैं वे,
वे डरते हैं कि
निहत्थे और ग़रीब लोग
एक दिन
उनसे डरना बंद कर देंगे!
(पंकज श्रीवास्तव- कांग्रेस से जुड़े हैं।)
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