पंडित जवाहर लाल नेहरू और नरेंद्र मोदी के राजनीतिक क्षेत्र अवध और पूर्वांचल में एक कहावत चलती है—बैठों तेरी गोद में, उखाडूं तोर दाढ़ी। यह कहावत इंडिया टुडे और सी वोटर्स समूह के मूड ऑफ नेशन के उस सर्वे पर एकदम सटीक बैठती है जिसमें देश के 52 प्रतिशत लोगों ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में पहली पसंद बताया है। उसके ठीक विपरीत देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को पहली पसंद बताने वाले महज 5 प्रतिशत हैं। इन दोनों के बीच में 12-12 प्रतिशत की लोकप्रियता पर अटल बिहारी वाजपेयी और डॉ. मनमोहन सिंह हैं और इंदिरा गांधी महज 10 प्रतिशत लोगों की पहली पसंद हैं। नेहरू निंदा और मोदी प्रशंसा की यह नई तरकीब है और इसी में कॉरपोरेट मीडिया की कमाई और भलाई है। यह हाल के लोकसभा चुनाव में लगे सदमे से उबरने की एक कोशिश भी है। जाहिर सी बात है कि यह सर्वे अपने आकलन में बताता भी है कि आज अगर चुनाव हुए तो फिर मोदी प्रधानमंत्री बनेंगे और उनकी सीटें बढ़ेंगी।
पोस्ट ट्रुथ के दौर में इस तरह के सर्वेक्षण और विश्लेषण की एक खास तिर्यक दृष्टि और उद्देश्य है और उसे वे पूरा करते हैं। संभव है वे इस तरह से आने वाले विधानसभा चुनावों के लिए माहौल बना रहे हों या फिर गठबंधन की राजनीति के दौर में उन दलों को धमका रहे हों जिनके कंधों पर एनडीए की सरकार चल रही है और वे समय समय पर कंधा उचकाते रहते हैं या बदलते रहते हैं। इस प्रकार के सर्वे को देख और सुनकर कुछ नए और पुराने प्रसंग याद आते हैं। हाल में एक मंचीय कवि जो कि अपनी कमाई से करोड़पति बन गए हैं और अब उन्हें राजनीति के बजाय कविता ही रास आने लगी है उन्होंने डिजिटल मीडिया के माध्यम से अपनी लोकप्रियता तुलसीदास से भी ज्यादा सिद्ध करवा दी थी। इस तरह के तुलनात्मक अध्ययन या आलोचनात्मक चाटुकारिता का एक नमूना आज के साठ साल पहले उस समय प्रस्तुत हुआ था जब किसी आलोचक ने एक लेख लिखकर हरिवंश राय बच्चन को भी तुलसीदास से बड़ा कवि बताया था। इस पर हिंदी के एक युवा आलोचक ने टिप्पणी करते हुए लिखा----बांड़ी बिस्तुइया बाघे से नजारा मारे।। वह लेख पढ़ने के लिए बच्चन जी ने इलाहाबाद से विशेष तौर पर पत्रिका बंबई मंगवाई और पढ़कर तिलमिला उठे। यहां बच्चन जी वाला मुहावरा प्रयोग करना नहीं चाहता इसलिए गोद में बैठकर दाढ़ी उखाड़ने वाले मुहावरे का प्रयोग कर रहा हूं। क्योंकि नेहरू के बनाए देश में उन्हीं की ऐसी तैसी करने वाले लोगों के बारे में और क्या कहा जाए।
नेहरू की लोकप्रियता को नरेंद्र मोदी के काल में जांचने की कोशिश करना, न सिर्फ सर्वेक्षण के शास्त्र के साथ धोखाधड़ी है बल्कि पत्रकारिता के साथ भी बेइमानी है। वास्तव में मोदी के युग में नेहरू के बारे में जिन लोगों की राय ली गई है उनके पास नेहरू के शासन के बारे में या तो पर्याप्त डाटा नहीं हैं या फिर जो डाटा हैं वह न तो निष्पक्ष हैं और न तटस्थ। वे पिछले दस सालों में बेहद दूषित और करप्ट किए गए हैं। बल्कि इंदिरा गांधी और मनमोहन सिंह के बारे में भी जो सूचनाएं दी जा रही हैं वे भी काफी कुछ विकृत की गई हैं या फिर संपादित की गई हैं। ऐसे में यह तुलनात्मक अध्ययन एक क़िस्म का अवैज्ञानिक अध्ययन है और यह समाजशास्त्र के नज़रिए से भी उचित नहीं है।
इसका मतलब यह नहीं है कि इतिहास के लंबे कालखंड में उभरे नेतृत्व का तुलनात्मक अध्ययन नहीं किया जा सकता। न ही सर्वेक्षण की मनाही है। लेकिन सर्वेक्षण ऐतिहासिक विश्लेषण का एक छोटा सा हिस्सा है। जो सर्वेक्षण हाल के चुनावों में बुरी तरह से विफल रहा है आखिर उसकी ऐतिहासिक व्यक्तित्वों के बारे में क्या विश्वसनीयता हो सकती है। वास्तव में यह काम इतिहासकारों का है, विशेषज्ञों का है और अंतिम निष्कर्ष उन्हीं पर छोड़ भी देना चाहिए।
पत्रकारिता अल्पकालिक इतिहास लेखन है। इतिहास दीर्घकालिक पत्रकारिता है। लेकिन अगर यह दोनों अनुशासन अपनी भूमिका बदल लें तो अनर्थ होने लगेगा।
महानता की स्थापना इतिहास के लंबे कालखंड में होती है। हालांकि कुछ लोग अपने जीवन में ही किंवदंती बन जाते हैं। लेकिन फिर भी डॉ. राम मनोहर लोहिया का कहना था कि किसी की मूर्ति निधन के पचास साल बाद ही लगानी चाहिए। क्योंकि कालखंड ही वह कसौटी है जो साबित करता है कि कोई महान है या नहीं। हम अपने समक्ष ही तमाम लोगों को देख रहे हैं जो अपने जीवन में अपनी मूर्तियों की स्थापना करवा लेते हैं और या तो उनके सामने ही या दस बीस-पचास साल बाद वह खंडित कर दी जाती है। हाल में बांग्लादेश में शेख मुजीबुर्रहमान की मूर्ति ढहाए जाने की घटना अभी भूली नहीं है और यूक्रेन में महात्मा गांधी की मूर्ति के आगे माथा टेकते मोदी जी भी शायद ही किसी को विस्मृत हुए हों।
नेहरू और मोदी की तुलना महज इस आधार पर नहीं की जा सकती कि किसने कितनी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली।
उनकी तुलना मात्रात्मक रूप से नहीं हो सकती। उनकी तुलना गुणात्मक रूप से होनी चाहिए। उनकी तुलना सिर्फ हार्डवेयर के रूप में नहीं होनी चाहिए उनकी तुलना के लिए उनके सॉफ्टवेयर के आधार पर भी होनी चाहिए।
नेहरू की आलोचना के तीन दृष्टिकोण हैं। एक नजरिया गांधीवादियों का है जो कहते हैं कि नेहरू की औद्योगिक नीतियां गांधी के विरुद्ध थीं। इसीलिए आज भारत में बेरोजगारी कायम है और पर्यावरण का विनाश हो रहा है। इसी के साथ समाजवादियों द्वारा नेहरू की कड़ी आलोचना की जाती है कि वे नाम तो समाजवाद का लेते थे और काम पूंजीवादी व्यवस्था के लिए करते थे। वे यह भी कहते हैं कि नेहरू को भारत की जातिगत सच्चाई और यहां की संस्कृति के बारे में विधिवत जानकारी नहीं थी। वे यूरोपीय प्रभाव में थे। आलोचना के इसी सिलसिले को वैचारिक धार देते हुए धर्मपाल लिखते हैं---नेहरू और टैगोर भारत को आत्मदैन्य वाली छवि के अधीन देख रहे थे। वे भारत को उसके स्वधर्म से दूर ले जा रहे थे। संघ परिवार ने एक तरफ धर्मपाल के इस विमर्श को पकड़ रखा है और दूसरी ओर उसे नेहरू की धर्मनिरपेक्ष नीति से चिढ़ है। संघ परिवार को इससे भी ज्यादा चिढ़ नेहरू की बौद्धिकता और लेखकीय क्षमता से है। इसीलिए उसके अबौद्धिक लोग नेहरू के चरित्र हनन से काफी संतोष प्राप्त करते हैं।
हाल में दो युवा इतिहासकार शुभनीत कौशिक और रमाशंकर सिंह ने---–नेहरू का भारत (राज्य, संस्कृति और राष्ट्रनिर्माण)---शीर्षक से 12 शोधपरक लेखों की एक पुस्तक संपादित की है। संवाद प्रकाशन से छपी यह पुस्तक नेहरू के विभिन्न आयामों की प्रासंगिकता पर ऐतिहासिक प्रमाण के साथ कहती है----
`दो सदियों की औपनिवेशिक लूट, विभाजन से टूटी अर्थव्यवस्था और दिशाहीन समाज को जिस धैर्य, विश्वास और वैचारिक दृष्टि से नेहरू ने नेतृत्व किया वह समकालीन विश्व इतिहास में अपना कोई समकक्ष उदाहरण नहीं रखता। आजादी के बाद भारत में जो कुछ सकारात्मक रचा गया, उस पर नेहरू की छाप पड़ी है। यही कारण है कि दक्षिणपंथी सांप्रदायिक राजनीति द्वारा मनगढ़ंत कथाओं का विशाल पिटारा नेहरू के चरित्र हनन के लिए खोल दिया गया है। ताकि इस छाप को सर्वदा के लिए मिटा दिया जाए।’
वास्तव में संघ परिवारी और उनके प्रभाव में काम करने वाला कॉरपोरेट मीडिया अगर नेहरू की निंदा में संलग्न है तो उसकी एक वजह स्वतंत्रता आंदोलन में नेहरू की भागीदारी और उसकी वजह से बना अखिल भारतीय प्रभाव है। संघ परिवार ने स्वाधीनता संग्राम में हिस्सा नहीं लिया तो इसमें नेहरू का क्या दोष है। नेहरू से नाराजगी की दूसरी वजह उनका गांधी की तरह प्रादेशिक राष्ट्रवाद में विश्वास होना है। जैसे गांधी मानते थे जो लोग भारत के भूभाग में रहते हैं वे सभी यहां के नागरिक हैं और उन सभी का यह राष्ट्र है। जबकि संघ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में यकीन करता है और उसकी व्याख्या धर्म आधारित होती है। इसीलिए वे भारत को हिंदू राष्ट्र मानता है। इसके अलावा नेहरू गांधी की तरह ही राज्य को धर्मनिरपेक्ष बनाना चाहते थे। वे सभी धर्मों के प्रति समान व्यवहार रखते थे और यह हरगिज स्वीकार करने को तैयार नहीं थे कि राज्य पर किसी एक धर्म का अधिपत्य हो। अपने इस प्रयास में वे संघ की सांप्रदायिक राजनीति के प्रति पूरे देश को आगाह करते थे और इस बात से भी आगाह करते थे कि राज्य के प्रमुख अधिकारी अपनी धार्मिक रुझान का सार्वजनिक प्रदर्शन न करें। इसीलिए उन्होंने अगर गांधी की हत्या के बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर प्रतिबंध लगाया था तो राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के काशी विश्वनाथ मंदिर जाकर ब्राह्मणों के चरण पूजन पर भी आपत्ति की थी।
लेकिन सवाल उठता है कि नेहरू की बड़े बांधों और कारखानों की विकास नीति पर चलने वाली मोदी सरकार किस हैसियत से उनकी आलोचना करती है। भाजपा और एनडीए सरकार की विकास नीति नेहरू की आर्थिक नीतियों का ही क्रूर विस्तार है।
अंतर इतना ही है कि नेहरू मिश्रित अर्थव्यवस्था चलाते हुए भी समाजवाद में मानवता का भविष्य देखते थे। संघ परिवारी चंद पूंजीपतियों के लिए पूरी अर्थनीति को समर्पित करते हुए सबका साथ और सबका विकास का नारा लगाते हैं। नेहरू में लोकलुभावनवाद नहीं था बल्कि पूरे देश का विकास उनका लक्ष्य था जबकि आज की सरकार लोकलुभावनवाद और याराना पूंजीवाद पर खड़ी है।
नेहरू की विदेश नीति चीन के मामले में बुरी तरह से विफल हुई और उसका दर्द उनके पंद्रह अगस्त 1963 को लाल किले के संबोधन में भी सुनाई पड़ता है। नेहरू ने वहां धोखा खाया और वे उस सदमे से उबर नहीं पाए और 1964 में 74 साल की उम्र में उनका निधन हो गया। इसके पीछे एक तरफ नेहरू की सदाशयता थी तो दूसरी ओर देशप्रेम था। पंचशील की विफलता से वे सचेत हो गए थे और उसके बाद भारत के शासक चीन से सतर्क रहे। लेकिन सवाल नेहरू की आलोचना का ही नहीं है। सवाल है चीन के साथ हमारा जो अनुभव रहा उससे हमने सबक क्या लिया? क्या मौजूदा सरकार की नीतियों में ऐसा कुछ दिख रहा है कि उसने चीन के खौफ को मिटाने और उससे संबंध सामान्य करने के लिए कुछ किया है। ऐसा कहीं नहीं लग रहा है। बल्कि मोदी का रुख शुतुरमुर्ग की तरह रेत में गर्दन डालकर घुसपैठ से इंकार करने का है। `न कोई आया न कोई गया’ वाला डॉयलाग उसी का प्रमाण है।
इतिहासकार प्रोफेसर सलिल मिश्र एक बातचीत में बताते हैं कि नेहरू ने 1952 में किस तरह से चुनाव का प्रचार किया उससे लगता है कि वे देश के मानस पर कहीं भी विभाजन की छाप नहीं पड़ने देना चाहते थे। वास्तव में नेहरू देश के विभाजन के दावानल का आचमन करके देश को निर्माण के रास्ते पर ले जा रहे थे। वे देश को फीनिक्स की तरह से राख से जिंदा कर रहे थे। जबकि आज की मोदी सरकार को तो औसतन छह प्रतिशत और कभी कभी डबल डिजिट की विकास दर वाला देश मिला था। तब देश में सांप्रदायिकता की हवा भी नहीं थी। लेकिन आज एक अमन चैन वाले और विकास के पथ पर तेजी से दौड़ते देश को वे फिर विभाजन विभीषिका की स्मृतियों और मानस में फंसना चाहते हैं।
पंडित नेहरू ने जिस सामासिक संस्कृति की बात कही उससे ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात यह है कि स्वयं पंडित नेहरू का व्यक्तित्व अनेक प्रकार की संस्कृतियों, सभ्यताओं और संस्कारों का कुंज था।
नेहरू की पहली चिंता यह थी कि भारत कहीं टुकड़ों में बंट न जाए। इसलिए उन्होंने एक ऐसे राष्ट्रवाद को प्रोत्साहित किया जिसमें आम जनमानस को भारतीय होना महसूस कराया जाए।
अपनी शेरवानी में वे जो गुलाब का फूल लगाते थे उससे उनकी जनता के प्रति मोहब्बत झलकती थी। उसके बारे में उन्होंने खुद कहा हैः---
मैंने एक फूल जो सीने से लगा रखा था।इसके पर्दे में तुम्हें दिल से लगा रखा था।।था जुदा मेरे इश्क का अंदाज सुनो,मेरी आवाज़ सुनो प्यार का राज़ सुनो।
दर दर उसने दस्तक दी, अंग्रेजों को बढ़कर ललकारा,या रेल में उसकी बैठक थी या जेल में उसका बिस्तर था ।
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