राजनीतिशास्त्री योगेंद्र यादव चुनौती दे रहे हैं कि आज सारे राजनीतिक चिंतक कहां चले गए? वे उन्हें ढूढ रहे हैं और उनकी तलाश जारी रहनी चाहिए। लेकिन वह कथन तो सभी के ध्यान में होगा कि जो बंगाल आज सोचता है वह भारत कल सोचेगा। यानी उस प्रदेश के पास देश को बौद्धिक नेतृत्व देने की क्षमता थी। पर आज बंगाल के पास भारत को राह दिखाने वाली मशाल नहीं है। आज स्थिति उल्टी हो गई है। जो आज शेष भारत है वही कल को बंगाल को भी होना है। यानी गुजरात, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और उत्तराखंड में संघ परिवार ने शासन, समाज और विकास का जो मॉडल थोपने की कोशिश की है वही एक दिन पश्चिम बंगाल पर भी थोपा जाएगा। पश्चिम बंगाल में एक मेडिकल कॉलेज में पीजी की इंटर्न डॉक्टर के बलात्कार और हत्या का मामला स्त्री अधिकारों, नागरिक अधिकारों की सुरक्षा के दायरे से निकल कर ममता बनर्जी की सरकार गिराने तक चला गया है। मंगलवार को पीड़ित डॉक्टर और नारी समाज के लिए न्याय मांगने के लिए आयोजित नवान्न अभियान जिस अभद्र और हिंसक तरीके से उपस्थित हुआ है उससे नारी समाज दहल गया है और बंगाल का समाज भी चौकन्ना हो गया है।
अचानक प्रकट हुए अराजनीतिक संगठन पश्चिम बांग्ला छात्र समाज और संग्रामी जत्था मोर्चा ने पूरे शहर में जो तांडव मचाया उससे लग रहा है कि यह कोई अराजनीतिक संगठन नहीं है। यह संगठन भाजपा के मुखौटे थे और बाद में जिस तरह से बुधवार को भाजपा ने `दमन’ के विरुद्ध बंद का आयोजन किया उससे इस अराजनैतिक संगठन की राजनीति उजागर हो गई। छात्र समाज और संग्रामी जत्था के लोग मंगलवार को प्रदर्शन के दौरान न सिर्फ ममता बनर्जी का इस्तीफा मांग रहे थे बल्कि उन पर गालियों की बौछार कर रहे थे और पुलिस वालों पर हमले कर रहे थे। विडंबना देखिए कि मां बहनों की सुरक्षा के लिए निकले लोग मां बहनों की गालियां बरसा रहे थे। वे पुलिस की बसें जला रहे थे और अवरोध के लिए लगाई गई बैरिकेड और रेलिंग उखाड़ रहे थे। साथ ही वे यह भी कह रहे थे कि ममता मुसलमानों का पक्ष लेती हैं इसलिए उन्हें सत्ता से हटना चाहिए। शायद इसीलिए पुलिस ने उन पर पानी की बौछार की और भाजपा नेताओं के दावे के अनुसार 133 लोग जख्मी हुए। स्त्रियों की सुरक्षा के लिए किए गए इस हिंसक प्रदर्शन से आरजी कर मेडिकल कॉलेज के डॉक्टरों ने भी अपनी दूरी बनाई है और इसकी निंदा कर रहे हैं। दरअसल इस प्रदर्शन में महिलाएं तो थी ही नहीं। ज्यादा से ज्यादा पुरुष थे और वे जो छात्र होने का दावा कर रहे थे उनका छात्र जीवन और शिक्षा संस्थाओं से कोई लेना देना नहीं लग रहा था।
इसका मतलब यह नहीं कि तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी का शासन बहुत अच्छा है। उनका शासन भ्रष्ट है और उनकी पार्टी में भी अनुशासनहीन और गुंडे किस्म के कार्यकर्ता हैं। लेकिन भाजपा जो उन्हें इस बिना पर हटाना चाह रही है वह तो उनसे भी गई गुजरी है। सही है कि ममता बनर्जी के शासन में उजागर हुए शारदा घोटाले में उनकी पार्टी के दर्जन भर सांसद और विधायक शामिल थे। लेकिन इस मामले में मतंग सिंह और आजकल असम के मुख्यमंत्री हिमंत विस्व सरमा का नाम भी तो शामिल था। इसी तरह नारदा घोटाले में भी तृणमूल कांग्रेस के कई तत्कालीन नेता जैसे मुकुल राय, सुभेंदु अधिकारी का नाम आया। इन मामलों की सीबीआई जांच भी हुई। लेकिन आज उस जांच का क्या परिणाम निकला। चूंकि उसमें जिनके नाम आए थे उनमें कई लोग भाजपा में चले गए इसलिए या तो जांच ठप हो गई या प्रभावहीन हो गई।
वास्तव में पश्चिम बंगाल पिछले 13 सालों में दो वैचारिक ध्रुवों के बीच करवट ले रहा है। यानी वामपंथ से दक्षिणपंथ की ओर उसकी यह करवट बहुत हिंसक, पीड़ादायक और अराजक साबित हो रही है। इस करवट ने लोकतंत्र की मान्यताओं को तो ताक पर रख ही दिया है भारतीय संविधान की संघीय अवधारणा की भी धज्जियां उड़ा दी हैं। चूंकि राजनीति और अर्थव्यवस्था का नैतिक और वैधानिक ढांचा बन नहीं पाया या फिर ध्वस्त कर दिया गया इसलिए जो कुछ बना है वह काले धन और गिरोहबाजी पर आधारित है। यही पश्चिम बंगाल के लोकतांत्रिक ढांचे की सच्चाई है और यही कमोवेश पूरे देश की है। इस बीच में ममता बनर्जी ने वामपंथ की विचारधारा के विकल्प के तौर पर उनके कार्यक्रम अपना लिए हैं। उनका तेवर भी वही रहता है लेकिन उनके कार्यकर्ताओं और समर्थकों को वैचारिक रूप से प्रशिक्षण देने का कोई कार्यक्रम नहीं है और न ही कोई चिंतन। यही वजह है कि आरजी कर के मामले पर उनकी पार्टी में भी विभाजन है। कुछ लोग अभिषेक को ज्यादा संतुलित मान रहे हैं।
वास्तव में पश्चिम बंगाल में स्त्री अधिकारों संबंधी आंदोलन में हिंसक, पुरुषवादी और सांप्रदायिक नजरिए से प्रवेश करके भाजपा ने पूरे आंदोलन को दूषित कर दिया है।
माकपा और कांग्रेस ने तो छात्र समाज और संग्रामी जत्था से दूरी बनाकर संदेश दे ही दिया है और अब समय है कि मेडिकल बिरादरी और महिलाएं भी इस तरह से आंदोलनों से दूरी बनाएं।
सवाल यह है कि ममता बनर्जी का क्या होगा? क्या उनका हश्र बुद्धदेव भट्टाचार्य जैसा होगा या वे इस झटके को सह जाएंगी और इसे भाजपा की साजिश साबित करके बंगाल के मध्यवर्ग का विश्वास फिर से हासिल कर लेंगी? यह लाख टके का सवाल है जिसे भारतीय जनता पार्टी और उसके गोदी मीडिया ने पूरे देश में अचानक उठ खड़े हुए स्त्री सम्मान और सुरक्षा संबंधी अन्य सवालों से भी बड़ा कर दिया है। केरल से पश्चिम बंगाल तक, मणिपुर से लेकर महाराष्ट्र तक, असम, उत्तराखंड, बिहार, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश समेत देश का कौन सा राज्य ऐसा है जहां पर महिलाओं पर अत्याचार की समस्या मुखर नहीं है। लेकिन मुख्यमंत्री का इस्तीफा मांगने के लिए अगर सिर्फ पश्चिम बंगाल ही चुना गया है तो उसकी कुछ भूराजनीतिक वजहें हैं।
हाल में हुए लोकसभा चुनाव में ममता बनर्जी ने भाजपा की उम्मीदों पर पानी फेरते हुए अपना दबदबा कायम रखा। उसने भाजपा के हृदय में उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र के बाद पश्चिम बंगाल को तीसरे तीर की तरह चुभा दिया। यह तीर इसलिए भी ज्यादा चुभ रहा है कि वहां लाख कोशिश के बावजूद ममता बनर्जी को भाजपा हटा नहीं पा रही है। हालांकि भाजपा ने संदेशखाली के बहाने ममता सरकार पर महिलाओं के साथ होने वाले अत्याचार को चुनाव से पहले ही राष्ट्रीय मुद्दा बनाने की कोशिश की थी। लेकिन ममता बनर्जी ने जिस तरह से उन महिलाओं के माध्यम से यह साबित कर दिया कि उनसे फर्जी बयान दिलवाया गया था उससे अत्याचार का वह गुब्बारा फूट गया। ऊपर से पश्चिम बंगाल के राज्यपाल का चरित्र भी संदेह के घेरे में है। इसलिए भाजपा ममता को उस तरह से नहीं घेर पा रही थी जैसा वह चाहती थी।
लेकिन आरजी कर मेडिकल कॉलेज के मामले ने ममता बनर्जी को सचमुच उलझा दिया है। भाजपा की खूबी यह है कि वह आपदा में अवसर ढूंढती है। उसने लोकसभा चुनाव की हार से सबक ले लिया और फिर सक्रिय हो गई। लेकिन उसे बांग्लादेश की आपदा ने एक अवसर दे दिया। उसके लोग पश्चिम बंगाल में यही कहते घूम रहे हैं कि जैसे शेख हसीना को आंदोलन करके हटा दिया गया वैसे ही ममता बनर्जी की तानाशाही से जल्दी छुट्टी पा ली जाएगी। दोमुंहेपन की हद है। बांग्लादेश में जिस शेख हसीना की तानाशाही को भाजपा और भारत सरकार समर्थन कर रही थी और जो शेख हसीना हिंदुओं की रक्षक बताई जाती थीं उनके पतन से ममता बनर्जी को हटाने की प्रेरणा ली जा रही है। यही है आपदा में अवसर। जहां कोई सुसंगति नहीं होती और न ही कोई नैतिकता होती है। सिर्फ सत्ता और सत्ता ही जिसका उद्देश्य और प्रयोजन होता है।
निश्चित तौर पर हर कीमत पर सत्ता हथियाने और उसे स्थायित्व देने के लिए हिंदुत्व को स्थापित करने की भाजपाई रणनीति ने इस बार ममता बनर्जी को घेर लिया है। स्वयं एक महिला होने और पश्चिम बंगाल के निम्न मध्यवर्ग में विशेष रूप से लोकप्रिय ममता बनर्जी दुर्योग से एक महिला संबधी मामले में ही आपराधिक लापरवाही बरतते हुई पकड़ी गई हैं। यह मामला वैसा ही है जैसे पश्चिम बंगाल को औद्योगिक प्रगति के मार्ग पर ले जा रहे बुद्धदेव भट्टाचार्य सिंगूर और नंदीग्राम मामले में फंस गए थे। सन 2006-2007 का यह मामला सन 2011 के चुनाव में बुद्धदेव पर भारी पड़ा। उनकी पार्टी का 33 साल का शासन समाप्त हो गया और तबसे ममता बनर्जी सत्ता में हैं। बल्कि बुद्धदेव की राजनीति खत्म हो गई और उसके बाद वे कभी उठ नहीं सके।
बुद्धदेव का इरादा भले कोलकाता को बंगलुरू बनाने का रहा हो लेकिन उनके कार्यकर्ताओं ने तापसी मलिक के साथ बलात्कार करके और किसानों पर गोलीबारी करके पूरे देश को झकझोर दिया। कम्युनिस्ट आंदोलन का बीस साल पहले 1991 में शुरू हुआ पतन जो भारत के तीन राज्यों में ठिठक गया था वह और तेज हो गया। जिस तरह आज आरजी कर मेडिकल कॉलेज के बलात्कार के मामले में पश्चिम बंगाल का स्त्री समाज और संवेदनशील मध्यवर्ग खुलकर सड़क पर आ गया है वैसे ही उस समय बंगाल का वह बौद्धिक समाज जो माकपा से ऊब गया था महाश्वेता देवी के नेतृत्व में बुद्धदेव के विरुद्ध सड़क पर आ गया। तापसी मलिक के मामले को महाश्वेता देवी ने इस तरह से उठाया कि वह चुन्नी कोटाल और दूसरी अन्य पीड़ित लड़कियों के बाद बेहद गंभीर मामला बन गया और माकपा की ताबूत में आखिरी कील साबित हुआ।
चुन्ना कोटाल लोधा शबर जाति की एक दलित लड़की थी जो अपने समाज में ग्रेजुएट होने वाली पहली महिला थी। लेकिन शिक्षा जगत के अधिकारियों की मानसिक यातना के कारण उसने 27 साल की उम्र में 1992 में आत्महत्या कर ली थी। महाश्वेता देवी ने उस पर `व्याधखंड’ जैसी रचना भी लिखी।
लेकिन बुद्धदेव भट्टाचार्य और ममता बनर्जी की राजनीति और व्यक्तित्व में अंतर है। बुद्धदेव भट्टाचार्य जिनकी इसी महीने आठ अगस्त को मृत्यु हुई, वे एक भद्र राजनीतिज्ञ थे। हालांकि वे प्रमोद दास गुप्ता के प्रशिक्षण में छात्र आंदोलन से निकले थे लेकिन वे ममता बनर्जी की तरह सड़क पर पिटने और घसीटे जाने वाली लड़ाई के उस्ताद नहीं थे। वे गैबरियल गार्सिया मार्खेज और टैगोर के रसिक थे। उन्होंने मार्खेज की रचनाओं का अनुवाद भी किया था। वे नाटक के शौकीन थे और विश्व साहित्य पर अच्छी पकड़ रखते थे। हाल में उनके निधन पर कोलकाता और शेष भारत ने उन्हें जिस प्रकार श्रद्धांजलि दी है वह स्मरणीय है। पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल और महात्मा गांधी के पोते गोपाल कृष्ण गांधी ने उनकी विद्वता और साहित्यिक प्रतिभा की भूरि भूरि प्रशंसा की है। लेकिन उनकी खूबी यह भी थी कि वे अपने को विद्वान जताते नहीं थे। स्वयं ममता बनर्जी ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि आशा करती हूं कि वे बंगाल में फिर जन्म लेंगे।
जाहिर सी बात है कि ममता बनर्जी माकपा जैसी स्थापित पार्टी की सीढ़ियां चढ़ते हुए सत्ता तक नही पहुंची हैं। वे कांग्रेस जैसी विशाल पार्टी के ढांचे से विद्रोह करके निकलीं और उन्होंने बंगाल में अपनी राजनीति खुद खड़ी की। कविता लिखने और चित्र बनाने की प्रतिभा रखने के बावजूद वे अपना समय राजनीति करने और संघर्ष करने में लगाती हैं। मेडिकल कॉलेज की घटना से उन्हें झटका लगा है और इसकी चोट गहरी भी हो सकती है। केंद्र की भाजपा नीत सरकार और उसकी एजेंसियां उन्हें कमजोर और बदनाम करने में लगी हैं। हो सकता है कि उनकी स्थिति 2026 में बुद्धदेव वाली कर भी दी जाए। लेकिन इस बात की संभावना भी है कि वे अगर इस दुर्गापूजा में न सही तो अगले दुर्गापूजा में अपनी खोई हुई शक्ति फिर से प्राप्त कर लें और भाजपा को चुनौती दे डालें।
लेकिन असली सवाल इससे भी बड़ा है। वह है देश भर में महिला अधिकारों और मानवाधिकारों की हिफाजत और विस्तार का। मैतेई और कुकी संघर्ष के बाद मणिपुर में महिलाओं के साथ जो कुछ उसने बता दिया है कि कथित मातृसत्तात्मक समाज में भी हिंसक राजनीति स्त्रियों को असुरक्षा देकर जाती है। केरल जो कि 1991 से ही संपूर्ण साक्षर राज्य है, वहां के फिल्म उद्योग के बारे में हेमा समिति की रिपोर्ट ने पूरे समाज को हिलाकर रख दिया है। पश्चिम बंगाल भी आमतौर पर स्त्रियों को सम्मान देने वाला और सुरक्षा देने वाला समाज माना जाता है। लेकिन हाल की घटना ने उसकी हकीकत को सतह पर ला दिया है।
प्रश्न यह है कि क्या स्त्रियों की सुरक्षा को प्रतिद्वंद्वी राजनीति और सांप्रदायिक, हिंसक विमर्श के सहारे छोड़ देना चाहिए या उसके लिए किसी नई किस्म की राजनीति की दरकार है? क्या यह मामला राजनीति से ही होगा या इसके लिए मानवाधिकार का देशव्यापी आंदोलन और समाज सुधार आंदोलन चलना चाहिए? स्त्रियों का मामला भी सिर्फ लैंगिक भेदभाव के खांचे में ही नहीं विभाजित है। वह जाति और धर्म के खांचे में भी बंटा है। दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक स्त्रियों की पीड़ा दोहरी होती है। वहां पुरुष भी अत्याचार करता है और धर्म और जाति भी करते हैं। आंबेडकर ने बार बार कहा है कि सामाजिक आंदोलन राजनीतिक आंदोलन से ज्यादा कठिन है। उसके जोखिम भी उससे ज्यादा हैं लेकिन वह जरूरी है। क्या हमारा समाज राजनीतिक दलों के हाथों से इस पहल को लेकर अपने तईं इस बारे में कोई तैयारी कर सकता है? क्या हमारा नागरिक समाज इतना सक्षम है?
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