साथ ही यह भी देखा जाना ज़रूरी है कि उत्तराखंड सरकार के वकील का इस मामले में क्या रुख रहा है क्योंकि निश्चित रूप से वह सरकार के विचारों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस फ़ैसले की सुनवाई में सरकारी वकील पूरी तरह से आरक्षण के ख़िलाफ़ नजर आए और उन्होंने न्यायालय में हर तरह की दलील दी कि सरकार वंचित तबक़े को नौकरियों व प्रमोशन में आरक्षण देने के लिये बाध्य नहीं है। सरकार के प्रतिनिधियों का न्यायालय में यह कहना सरकार की नीयत को लेकर संदेह पैदा करता है।
शीर्ष न्यायालय के जस्टिस एल. नागेश्वर और हेमंत गुप्ता की पीठ ने फ़ैसले में कहा, “अगर राज्य की राय है कि एससी और एसटी वर्ग का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है तो वह आरक्षण दे सकता है। अगर सरकार एससी और एसटी वर्ग को प्रमोशन और नौकरियों में आरक्षण देने के अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल करना चाहती है तो उसे उपयुक्त आंकड़े जुटाकर यह साबित करना होगा कि इस वर्ग का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है।”
शीर्ष न्यायालय ने आगे कहा, “अगर उच्चतम न्यायालय के समक्ष यह संज्ञान में लाया जाता है कि एससी और एसटी को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है, तब भी न्यायालय सरकार को यह परमादेश नहीं दे सकता है कि वह आरक्षण मुहैया कराए।”
यह अजीब स्थिति है। अगर वंचित तबक़े को हिस्सेदारी देनी है तब तो आंकड़े जुटाने होंगे। लेकिन अगर सरकार अचानक फ़ैसला कर लेती है कि उसे आरक्षण नहीं देना है तो उसे किसी तरह के आंकड़े देने की ज़रूरत नहीं है। न्यायालय के मुताबिक़ सरकार की आरक्षण देने की कोई संवैधानिक बाध्यता नहीं है।
सरकार की भूमिका पर सवाल
कांग्रेस ने सरकार की भूमिका पर सवाल उठाए हैं। उत्तराखंड उच्च न्यायालय में मुक़दमा हार चुकी सरकार का प्रतिनिधित्व करने वाले वकीलों रंजीत कुमार, मुकुल रोहतगी और पीएस नरसिम्हा ने उच्चतम न्यायालय में कहा कि सरकारी नियुक्तियों या प्रमोशन में आरक्षण का दावा करने का कोई मूल अधिकार नहीं है और आरक्षण देना सरकार का कोई संवैधानिक दायित्व नहीं है।
अब सवाल यह है कि क्या इसे केंद्र सरकार की राय माना जाए? क्या सरकार का कहना है कि आरक्षण देना सरकार का संवैधानिक दायित्व नहीं है और संविधान ने समाज के वंचित तबक़े को सुविधाएं देने की बात नहीं की है।
विधायिका का क्या मतलब है?
एक अहम सवाल और भी है, जिस पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। एससी, एसटी और ओबीसी को आरक्षण देने का फ़ैसला संबंधित राज्यों या केंद्र सरकार की विधानसभाओं ने क़ानून बनाकर किया हुआ है। उसके बाद ही सरकार उसे कार्यरूप देती है। क्या उच्चतम न्यायालय के इस फ़ैसले का यह अर्थ निकलता है कि संसद या विधानसभा जो चाहे क़ानून पारित करें, सरकार अपने मन मुताबिक़ फ़ैसले कर सकती है कि वह आरक्षण दे या नहीं दे।
अगर विधायिका ने पारित कर दिया है कि सरकारी नौकरियों और सरकारी शिक्षण संस्थानों में एससी, एसटी, ओबासी को आरक्षण दिया जाएगा तो क्या यह सरकार पर बाध्यकारी नहीं है? या सरकार अपनी मर्जी के मुताबिक़ कुछ विभागों में आरक्षण दे सकती है और कुछ विभागों में आरक्षण नहीं भी दे सकती है, यह उसकी मर्जी पर निर्भर होगा?
कई सांसदों ने उच्चतम न्यायालय के इस फ़ैसले का मसला संसद में उठाया है। लेकिन सवाल यही है कि अगर उत्तराखंड की विधानसभा ने यह पारित कर दिया है कि एससी, एसटी और ओबीसी को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देना है तो क्या वहां की सरकार और उच्चतम न्यायालय मिलकर यह फ़ैसला कर सकते हैं कि सरकार आरक्षण दे या नहीं दे, वह उसकी मर्जी है और आरक्षण देना या न देना संवैधानिक बाध्यता नहीं है?
उच्चतम न्यायालय का फ़ैसला लंबी बहस का विषय है जो व्यवस्था संबंधी संकट से लेकर कई तरह के संवैधानिक संकट खड़े कर रहा है और तरह-तरह के संदेहों को जन्म दे रहा है। कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका तीनों को मिलकर स्थिति साफ करनी चाहिए कि आख़िर वे कहना और करना क्या चाहते हैं।
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