सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद अब बनारस की ज्ञानवापी मस्जिद में ASI के वैज्ञानिक सर्वे में कोई रुकावट नहीं रही। वह चलता रहेगा। कोर्ट के अनुसार मुस्लिम पक्ष की यह आशंका बेबुनियाद है कि सर्वे का नतीजा उनके ख़िलाफ़ ही जाएगा- वह उनके हक़ में भी जा सकता है और उनके अपने पक्ष को मज़ूबत कर सकता है।
पहली नज़र में सुप्रीम कोर्ट का यह फ़ैसला न्यायसंगत लगता है लेकिन यदि इस सर्वे का संभावित परिणामों के बारे में सोचें तो वह बहुत-कुछ वैसा ही हो सकता है जैसा 1992 में अयोध्या में कार सेवा की अनुमति देने का बाद हुआ था।
ऐसा नहीं है कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के इंजिनियर अपने वैज्ञानिक सर्वे के दौरान ज्ञानवापी मस्जिद को ढहा देंगे। इसकी फ़िलहाल कोई आशंका नहीं है क्योंकि उनको मस्जिद पर एक कील ठोंकने की भी अनुमति नहीं है। ज़िला जज ने हालाँकि इसकी अनुमति दे दी थी लेकिन पहले हाई कोर्ट ने और अब सुप्रीम कोर्ट ने साफ़-साफ़ कह दिया है कि मस्जिद में किसी तरह की भी खुदाई नहीं होगी।
दरअसल, हिंदू पक्ष या हिंदुत्व की राजनीति करने वालों को फ़िलहाल मस्जिद गिराने की ज़रूरत भी नहीं है। वह काम बाद में भी हो सकता है। अभी तो उनका मक़सद केवल यह है कि कैसे उपासना स्थल (विशेष उपबंध) अधिनियम 1991 की बाधा के बावजूद किसी-न-किसी तरह से यह साबित किया जा सके कि काशी (और मथुरा में भी) जहाँ मंदिरों के समीप मस्जिदें खड़ी हैं, वहाँ पहले मंदिर थे और उनको तोड़कर ये मस्जिदें बनाई गई हैं।
आपको मालूम होगा कि उपासना स्थल अधिनियम 1991 के अनुसार आज की तारीख़ में देश के किसी भी 'धर्मस्थल का चरित्र' बदला नहीं जा सकता भले ही वह किसी और धर्मस्थल को तोड़कर बनाया गया हो। इस क़ानून के अनुसार किसी धर्मस्थल का चरित्र मापने का पैमाना यह है कि 15 अगस्त 1947 में उस धर्मस्थल का चरित्र क्या था। अगर उस दिन वह मस्जिद थी तो उसे किसी भी हाल में मंदिर नहीं बनाया जा सकता और अगर मंदिर था तो उसे मस्जिद नहीं बनाया जा सकता। अयोध्या का मामला इससे अलग कर दिया गया था क्योंकि वह न्यायालयों के अधीन था। उसके अलावा देश के सारे धर्मस्थल इस क़ानून के तहत आते थे।
अब प्रश्न यह उठता है कि जब मस्जिद को मंदिर में बदला ही नहीं जा सकता तो हिंदू पक्ष इस मामले को लेकर अदालत में गया ही क्यों है!
क्यों वाराणसी की अदालतों में इस मसले पर आठ-आठ मुक़दमों पर सुनवाई चल रही है? (कल ही एक और याचिका दाख़िल की गई है कि मस्जिद में मुसलमानों का प्रवेश रोका जाए क्योंकि मुसलमान इसमें मौजूद हिंदू चिह्नों को हटा सकते हैं।)
प्रश्न यह है कि जब उपासना स्थल अधिनियम 1991 के तहत मस्जिद को मंदिर में बदला ही नहीं जा सकता तो कोई याचिकाकर्ता क्यों यह कह रहा है कि मस्जिद परिसर में भगवान विश्वेश्वर विराजमान की प्रतिमा है? किस आधार पर अन्य याचिकाकर्ता मस्जिद की बाहरी दीवार पर हिंदू देवी-देवता की उपस्थिति का दावा करते हुए साल भर वहाँ पूजा करने की माँग कर रहे हैं?
जब उपासना स्थल क़ानून के तहत मस्जिद का चरित्र बदला ही नहीं जा सकता तो (तर्क के लिए मान भी लें कि) मस्जिद के अंदर शिव की मूर्ति है या मस्जिद के बाहर किसी देवी-देवता की मूर्ति या आकृति है तो भी इन सारी याचिकाओं से हासिल क्या होगा?
यही तर्क मुस्लिम पक्ष शुरू से दे रहा है और कह रहा है कि उपासना स्थल क़ानून 1991 के रहते इन याचिकाओं पर सुनवाई हो ही नहीं सकती परंतु वाराणसी की अदालतों के अनुसार यह क़ानून इन याचिकाओं की सुनवाई की राह में आड़े नहीं आता। एक अदालत ने तो यहाँ तक कह दिया कि ज्ञानवापी मस्जिद का धार्मिक चरित्र ही 'संदिग्ध' है इसलिए इन याचिकाओं पर सुनवाई हो सकती है। दूसरे शब्दों में उस अदालत के अनुसार यह तय नहीं है कि 15 अगस्त 1947 को वह मस्जिद थी। यदि तब वहाँ पूजा होती थी तो उसे मंदिर भी कह सकते हैं। इसलिए उसका चरित्र बदलने का प्रश्न ही नहीं उठता। यह एक नया एंगल है जो बिल्कुल वैसा ही है जैसा कि अयोध्या के मामले में इस्तेमाल किया गया था। एक रात को मस्जिद के अंदर मूर्तियाँ रख दी गईं और कालांतर में उसे मस्जिद से विवादित ढाँचा बना दिया गया।
फ़िलहाल यह मामला भी सुप्रीम कोर्ट के सामने है कि क्या उपासना स्थल क़ानून के बावजूद किसी अदालत में यह मुक़दमा किया जा सकता है कि फलाँ मस्जिद में हिंदू मूर्तियाँ हैं और इसलिए इसे मंदिर मानते हुए (उसका चरित्र बदलकर) हिंदुओं के हवाले किया जाए?
क्या इस क़ानून के बावजूद कोई पक्ष किसी मस्जिद के भीतर या बाहर किसी भी आधार पर पूजा की अनुमति माँग सकता है?
हमें नहीं मालूम, सुप्रीम कोर्ट इस मुद्दे पर क्या राय देगा लेकिन सर्वे की अनुमति देकर सुप्रीम कोर्ट ने परोक्ष रूप से यह तो मान लिया है कि यह क़ानून किसी को यह पता लगाने से नहीं रोकता कि किसी धर्मस्थल के नीचे कभी कोई मंदिर था या नहीं। इस फ़ैसले का आगे क्या परिणाम निकल सकता है, इसके बारे में कोर्ट ने अभी विचार करना उचित नहीं समझा।
कोर्ट इस सर्वे के परिणाम को लेकर बहुत आशंकित नहीं है, यह उसकी इस राय से भी झलकता है कि मुस्लिम पक्ष को सर्वे को लेकर परेशान नहीं होना चाहिए क्योंकि 'यदि भविष्य में इन याचिकाओं की स्वीकार्यता पर सुनवाई के दौरान फ़ैसला उनके पक्ष में आया (जिसके बाद ये सारे मुक़दमे रद्द हो जाएँ) तो ASI के सर्वे में चाहे जो परिणाम निकले, उसकी औक़ात केवल काग़ज़ के एक पुर्ज़े जितनी होगी।’
क्या वाक़ई? जो लोग इस देश के मौजूदा धार्मिक-राजनीतिक माहौल को समझते हैं, वे जानते हैं कि अगर सर्वे में थोड़ा-सा भी संकेत मिला कि मस्जिद के नीचे हिंदू मूर्तियाँ हैं तो भारतीय जनता पार्टी और हिंदू संगठन आगे क्या करेंगे। ध्यान में रहे कि यह चुनाव का भी साल है।
और इसीलिए यह संदेह उपजता है कि जो सुप्रीम कोर्ट आज कह रहा है कि सर्वे को हो लेने दो, कहीं वह अपनी 1992 वाली ग़लती तो नहीं दोहरा रहा।
(नीरेंद्र नागर के फ़ेसबुक पेज से)
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