loader

क्या सर्वोच्च अदालत ने अपना रुतबा गँवा दिया है?

कानूनदाँ तबक़ा अदालत के रुख पर सर पकड़ कर बैठ गया है। उसका कहना है कि अदालत वह कर रही है जो विधायिका और कार्यपालिका का काम है। यह ख़तरनाक शुरुआत है। जनतंत्र में संस्थाओं के बीच कार्य विभाजन साफ़ है। अदालत ने क़ानूनों की संवैधानिकता पर विचार नहीं किया है जो उसका काम है। यह भी एक रूपवाद है।
अपूर्वानंद

“चीज़ें जैसी दीखती हैं, वैसी वे नहीं हैं। जो कहा जा रहा है, उससे अधिक वह गूँज रहा है जो कहा नहीं गया। जब कोई आपको गले लगाने बढ़ता है तो उसके दस्तानों पर ध्यान जाता है।” किसानी संबंधी क़ानूनों पर मध्यस्थता करने के लिए समिति की घोषणा के पहले तक सर्वोच्च न्यायालय में जो कुछ चल रहा था, उसे देखते हुए बस यही सब कुछ ख्याल आ रहा था, लेकिन समिति के नामों के ऐलान के बाद जो झीना-सा पर्दा था, वह भी हट गया।

सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की पीठ से जो सरकार के ख़िलाफ़ गर्जन-तर्जन हो रहा था, उसे फटकार सुनाई जा रही थी, उसका खोखलापन तुरत उजागर हो गया। पूरी सुनवाई किसानों के हित, देश की भलाई का एक कमज़ोर स्वाँग भर थी। आलेख लचर था और अभिनेता कमज़ोर। जब कहानी का अंत बिना उसे शुरू किए पाठकों को मालूम हो तो कहानीकार को कुछ और धंधा खोज लेना चाहिए।

ताज़ा ख़बरें

अदालत ने मध्यस्थता के लिए वैसे नाम चुने जो इन क़ानूनों के पैरोकार हैं और ख़ुद को किसानों का उनसे बड़ा हितैषी मानते हैं। ऐसा करते ही उसने किसानों का भरोसा गँवा दिया। अब यह समिति दफ्तर खोलकर बैठी रहेगी और कोई किसान उसकी चौखट पर भी नहीं फटकेगा। यह समिति की भी बेइज्जती होगी। कभी हुआ करता कि ऐसी समितियों में नाम आने से प्रतिष्ठा बढ़ती थी। आज के ज़माने में यही नहीं कहा जा सकता।

जब अदालती कार्रवाई शुरू हुई और अदालत ने सरकार के कान खींचने शुरू किए और दुलारे बच्चे की तरह सरकार ठुनकने लगी कि इतनी जोर से नहीं, दर्द हो रहा है तो भी कुछ भोले और लिहाजी लोगों ने कहा कि जम्मू और कश्मीर, बाबरी मस्जिद, सीएए और घर लौटते मज़दूरों के मामलों के मुक़ाबले अदालत कुछ तो बदली दीख रही है।

लेकिन जैसे ही अदालत ने कहा कि सरकार के बस की बात नहीं, हम एक समिति बनाएँगे, पी साईनाथ जैसे शक्की लोगों ने कहा समिति के हाथों मौत स्वीकार नहीं होगी। अंग्रेज़ी ज़्यादा चुस्त है: डेथ बाई कमिटी कबूल नहीं।

किसानों ने पूरी कार्रवाई को देखा और कहा, हमारी भलाई सोचने के लिए बहुत शुक्रिया लेकिन समिति का जो जाल आपने बिछाया है हम उस पर नहीं बैठने वाले। हम एक सीधा सा वाक्य कह रहे हैं कि सरकार ये तीनों क़ानून वापस ले ले। सरकार जो हमारा भला करने पर तुली हुई है, वह हमें हमारे हाल पर छोड़ दे। 

supreme court constitutes a committee on farm laws against farmers will - Satya Hindi

जिनकी संस्थाओं पर श्रद्धा है, (और वह जनतंत्र को बचाए रखने के लिए अनिवार्य है) वे अफ़सोस कर रहे हैं कि सबसे बड़ी अदालत ने अपनी साख खो दी। लेकिन यह अफ़सोस आज क्यों? जिस अदालत ने एनआरसी की प्रक्रिया को सरपट दौड़ाने के लिए चाबुक चलाई और लाखों लाख जन उसकी क़ीमत आज तक चुका रहे हैं, जिस अदालत ने यह कबूल करके कि बाबरी मस्जिद को मुजरिमाना तरीक़े से तोड़ा गया और फिर उन्हीं लोगों को राम मंदिर बनाने के लिए मसजिद की ज़मीन सौंप दी, जो अदालत सीएए की संवैधानिकता को चुनौती देनेवाली याचिका पर कुण्डली मार कर बैठ गई, जिस अदालत ने जम्मू कश्मीर को तोड़ दिए जाने के बाद दायर बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाएँ आजतक नहीं सुनीं, वह अदालत अगर इस मामले में अपनी लीक से हट जाती तो मुसलमानों, कश्मीरियों, प्रवासी मज़दूरों, संदिग्ध नागरिक या विदेशी घोषित कर दिए गए असमवासियों को लगता कि उनके साथ भेदभाव किया गया है। इस मुल्क में कुछ को इन्साफ़ मिलता है जबकि बाकियों के लिए उसकी उम्मीद नहीं है।

अदालत ने इस फ़ैसले से इस ग़लतफहमी को जड़ पकड़ने का मौक़ा नहीं दिया। नाइंसाफ़ी के मामले में वह सबको एक निगाह से देखती है। कम से कम इस एक बात के लिए उसका शुक्रिया अदा किया जाना चाहिए। अपने पिछले बर्ताव के मेल में ही ख़ुद को रखकर उसने न्याय के विचार में कोई भ्रम नहीं पैदा होने दिया है। एक न्याय है और दूसरा अन्याय, दोनों के बीच फर्क बना हुआ है।

किसानों को ठीक ही शुबहा था कि अदालत से उनके आन्दोलन को तोड़ने की कोई तरकीब हासिल की जाएगी। और उसे बदनाम करने की साज़िश पर मुहर भी लगे शायद।

अदालत ने जब कहा कि वह इस विरोध को रोकने के लिए नहीं कहेगी लेकिन यह कहाँ किया जाए, इसे लेकर वह विचार कर सकती है। उसी तरह उसने कहा कि औरतों, बच्चों और बूढ़ों को क्यों आंदोलन में रखा गया है। इस तरह वह आन्दोलन में अपनी भूमिका की तलाश कर रही है और ख़ुद को आंदोलन का अभिभावक घोषित कर रही है। उसने सरकार के इस इल्जाम को तवज्जो दी कि इस आंदोलन में प्रतिबंधित संगठन सक्रिय है और आंदोलन वास्तव में दूसरे इरादों से चलाया जा रहा है, इसे ग़ैर किसान चला रहे हैं। उसका महाधिवक्ता के इस आरोप पर नोटिस जारी करना ही उसे वैधता देना है। 

आन्दोलन में शामिल होने का हक सबका है उनके राजनीतिक विचार कुछ भी हों। मुद्दा ये क़ानून हैं। आंदोलन सरकार को गिराने का नहीं है। यह माँग किसानों की नहीं है। वैसे ही जैसे 2019 में शुरू हुए सीएए विरोधी आन्दोलन में क़ानून वापस लेने की माँग थी, सरकार के इस्तीफ़ा देने की नहीं। लेकिन उस समय भी सरकार ने कहा कि यह हिंदुओं के ख़िलाफ़ है, साज़िश देश को तोड़ने की है, सरकार को बदनाम करने की है, उसे घुटने टेकवाने की है। और आन्दोलनकारियों का इस नाम पर दमन किया गया।

वीडियो चर्चा में देखिए, सुप्रीम कोर्ट पर किसानों का भरोसा क्यों नहीं?
यही इस बार भी आन्दोलन शुरू करते ही भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने ही नहीं, मंत्रियों तक ने किया। किसानों को भोला भाला बताकर कहा गया कि उन्हें माओवादी, खालिस्तानी, जिहादी, टुकड़े टुकड़े गैंग के लोग बरगला रहे हैं, सरकार के ख़िलाफ़ भड़का रहे हैं। कल अदालत में इस राजनीतिक आरोप को सरकार की मान्यता के रूप में पेश किया गया जब महाधिवक्ता ने ये आरोप लगाए। अदालत ने निर्देश दिया कि सरकार खुफिया संस्थाओं की तरफ़ से इस संबंध में प्रामाणिक जानकारी दे, उसके पास क्या सबूत हैं। 
हमारी पुलिस, जाँच एजेंसियाँ और खुफिया संस्थाएँ जिस तरह काम कर रही हैं, उसे देखते हुए यह उम्मीद करना कि वे सरकारी दावे से अलग कोई रिपोर्ट देंगी, हास्यास्पद है।

कानूनदाँ तबक़ा अदालत के रुख पर सर पकड़ कर बैठ गया है। उसका कहना है कि अदालत वह कर रही है जो विधायिका और कार्यपालिका का काम है। यह ख़तरनाक शुरुआत है। जनतंत्र में संस्थाओं के बीच कार्य विभाजन साफ़ है। अदालत ने क़ानूनों की संवैधानिकता पर विचार नहीं किया है जो उसका काम है। यह भी एक रूपवाद है। संसद जब शासक दल की राजनीतिक सभा में बदल दी जाए तो यह अदालत वही करेगी जो अभी वह कर रही है। इस तबक़े की चिंता वाजिब है क्योंकि अदालती कार्रवाई जिस तरह चल रही है, उससे क़ानून के पेशे की प्रासंगिकता पर ही सवाल खड़ा हो जाएगा।

प्रताप भानु मेहता को अफ़सोस है कि सबसे बड़ी अदालत ने अपना वह रुतबा गँवा दिया कि वह जनता के भरोसे की आख़िरी जगह है। लेकिन सुनवाई के बाद शायद अदालत को इत्मीनान हो कि जनता के भरोसे का जो हो, आख़िरकार उसने सरकार का भरोसा तो बरकरार रखा है।

सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
अपूर्वानंद
सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें

अपनी राय बतायें

विचार से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें