“चीज़ें जैसी दीखती हैं, वैसी वे नहीं हैं। जो कहा जा रहा है, उससे अधिक वह गूँज रहा है जो कहा नहीं गया। जब कोई आपको गले लगाने बढ़ता है तो उसके दस्तानों पर ध्यान जाता है।” किसानी संबंधी क़ानूनों पर मध्यस्थता करने के लिए समिति की घोषणा के पहले तक सर्वोच्च न्यायालय में जो कुछ चल रहा था, उसे देखते हुए बस यही सब कुछ ख्याल आ रहा था, लेकिन समिति के नामों के ऐलान के बाद जो झीना-सा पर्दा था, वह भी हट गया।
क्या सर्वोच्च अदालत ने अपना रुतबा गँवा दिया है?
- विचार
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- 13 Jan, 2021

कानूनदाँ तबक़ा अदालत के रुख पर सर पकड़ कर बैठ गया है। उसका कहना है कि अदालत वह कर रही है जो विधायिका और कार्यपालिका का काम है। यह ख़तरनाक शुरुआत है। जनतंत्र में संस्थाओं के बीच कार्य विभाजन साफ़ है। अदालत ने क़ानूनों की संवैधानिकता पर विचार नहीं किया है जो उसका काम है। यह भी एक रूपवाद है।
सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की पीठ से जो सरकार के ख़िलाफ़ गर्जन-तर्जन हो रहा था, उसे फटकार सुनाई जा रही थी, उसका खोखलापन तुरत उजागर हो गया। पूरी सुनवाई किसानों के हित, देश की भलाई का एक कमज़ोर स्वाँग भर थी। आलेख लचर था और अभिनेता कमज़ोर। जब कहानी का अंत बिना उसे शुरू किए पाठकों को मालूम हो तो कहानीकार को कुछ और धंधा खोज लेना चाहिए।