न्यायपालिका को यह क्यों करना पड़ा? इसीलिए कि लाखों लोग रोज़ बीमार पड़ रहे हैं और हजारों लोगों की जान जा रही है। रोगियों को न दवा मिल रही है, न ऑक्सीजन मिल रही है, न बिस्तर मिल रहे हैं। इनके अभाव में बेबस लोग दम तोड़ रहे हैं। टीवी चैनलों पर श्मशान घाटों और कब्रिस्तानों में लगी लाशों की भीड़ को देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
कोरोना की दवाइयों, इंजेक्शनों और अस्पताल के बिस्तरों के लिए जो कालाबाजारी चल रही है, वह मानवता के माथे पर कलंक का टीका है। अभी तक एक भी कालाबाजारी को चौराहे पर सरे-आम नहीं लटकाया गया है। क्या हमारी सरकार और हमारी अदालत के लिए यह शर्म की बात नहीं है?
होना तो यह चाहिए कि इस आपातकाल में, जो भारत का आफतकाल बन गया है, कोरोना के टीके और उसका इलाज बिल्कुल मुफ्त कर दिया जाए। पिछले बजट में जो राशि रखी गई थी और प्रधानमंत्री परवाह-कोष में जो अरबों रुपए जमा हैं, वे कब काम आएंगे?
कमाई न करें अस्पताल
निजी अस्पताल भी यदि दो-चार महिने की कमाई नहीं करेंगे तो बंद नहीं हो जाएंगे। यह अच्छी बात है कि हमारी फ़ौज और पुलिस के जवान भी कोरोना की लड़ाई में अपना योगदान कर रहे हैं। बंगाल की चुनावी सभाओं और कुंभ के मेले पर सरकार ने जो ढिलाई दिखाई है, उसी का नतीजा है कि 56 इंच का सीना सिकुड़कर अब 6 इंच का दिखाई पड़ रहा है। अब भारत को दूसरे देशों के सामने दवाइयों के लिए झोली पसारनी पड़ रही है।
यदि महामारी इसी तरह बढ़ती रही तो कोई आश्चर्य नहीं कि अर्थव्यवस्था का भी भट्ठा बैठ जाए और करोड़ों बेरोजगार लोगों के दाना-पानी के इंतजाम के लिए भी संपन्न राष्ट्रों के आगे हमे गिड़गिड़ाना पड़े। चीन ने तो हमें दवाइयां दान करने की पहल कर ही दी है।
किसान आन्दोलन स्थगित हो
इस नाजुक मौके पर यह ज़रूरी है कि हमारे विभिन्न राजनीतिक दल आपस में सहयोग करें और केंद्र तथा राज्यों की विपक्षी सरकारें भी सांझी रणनीति बनाएं। एक-दूसरे की टांग खींचना बंद करें। किसान नेताओं के प्रति पूर्ण सहानुभूति रखते हुए भी उनसे अनुरोध है कि फिलहाल वे अपना धरना स्थगित करें।
राजनीतिक दलों के करोड़ों कार्यकर्ता मैदान में आएं और आफत में फंसे लोगों की मदद करें। यह काल आपात्काल से भी बड़ी आफत का काल है। आपात्काल में सिर्फ विपक्षी नेता तंग थे, लेकिन इस आफतकाल में हर भारतीय सांसत में है।
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