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स्टारलिंक को भारत में मंजूरी देने के मायने क्या?

मात्र 24 घंटों के अंतराल में निजी क्षेत्र के सुनील मित्तल की मिलकियत वाले एयरटेल ने और फिर देश के सबसे बड़े उद्योगपति अम्बानी के स्वामित्व वाले जियो ने एलोन मस्क की कंपनी –स्पेसएक्स—के साथ भारत में इन्टरनेट सेवाएं उपलब्ध कराने का समझौता किया है। यह समझौता दोनों देशों की सरकारों की अनुमति के बाद ही प्रभावी हो सकेगा। बताया जा रहा है कि भारत के दोनों कंपनियों ने लगातार मस्क की इस कंपनी की स्टारलिंक नामक अपेक्षाकृत सस्ती सेवा का विरोध किया था लेकिन अचानक इस परिवर्तन ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। यहाँ तक कि पिछले तीन वर्षों से मस्क की स्टारलिंक को भारत सरकार ने एयरवेज देने की मंजूरी नहीं दी थी। इसका मुख्य कारण था देश की सुरक्षा से समझौते का ख़तरा। 

उधर टैरिफ को लेकर भारत और अमेरिका के बीच लगातार असहज स्थिति बनी हुई है और देश का एल्युमीनियम और स्टील उद्योग संकट में है। ट्रम्प ने अमेरिका के गवर्नेंस में दखलंदाजी के लिए मस्क को निर्बाध शक्तियाँ दे रखी हैं और उन्हें अपना 'पहला मित्र' करार दिया है। आख़िर भारत के दोनों उद्योगपतियों का ह्रदयपरिवर्तन क्यों हुआ, यह लाख टके का सवाल है। दूसरा अगर तीन साल से भारत सरकार को इस विदेशी कंपनी को भारत में एयरवेज देने से सुरक्षा को ख़तरा था तो आज क्या वह ख़तरा टल गया है? क्या सरकार ट्रम्प को खुश करने के लिए स्टारलिंक को इजाजत देगा? भारत सरकार न भूले कि दो दिन पहले मस्क ने अहंकार भरे स्वर में पोलैंड के विदेशमंत्री से कहा था कि अगर स्टारलिंक यूक्रेन की संचार सेवा रोक दे तो उस देश का पूरा फ्रंटलाइन सुरक्षा सिस्टम ध्वस्त हो जाएगा। साथ ही व्हाइटहाउस में ट्रम्प-जेलेंस्की विवाद के बाद यूक्रेन की सभी इंटेलिजेंस शेयरिंग रोक दी गयी थी। 

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किसी संप्रभु देश का अपनी संचार, खासकर आज के दौर में इन्टरनेट जैसी सेवा, को किसी विदेशी संस्था के हाथ सौंपना देश के संवेदनशील डाटा और संचार-तंत्र को ख़तरे में डालना होगा। यूक्रेन के मजबूर राष्ट्रपति जेलेंस्की के “वाणिज्यिक लचीलेपन” (अपने बहुमूल्य खनिज के दोहन का अधिकार ट्रम्प की सरकार को देने पर रजामंदी) के बाद ही अमेरिका ने हथियारों की आपूर्ति फिर शुरू कर दी है। भारत को भी अपना दूरगामी हित देखना होगा। 

पूंजीवादी दबंगई का विद्रूप चेहरा 

भले ही ब्रिटेन को सबसे पुराना प्रजातंत्र (सन 1215 के मैग्ना कार्टा की अवधारणा से) माना जाता हो लेकिन राजतंत्र के अवशेष काफी समय तक अपना प्रभुत्व रख सके। वास्तविक संवैधानिक प्रजातंत्र 4 मार्च, 1789 में अमेरिका में संविधान बनने के साथ शुरू हुआ। लेकिन वर्तमान ट्रम्प काल में पूंजीवाद का नया विद्रूप चेहरा दिखने लगा है। उद्योगपति एलोन मस्क की हैसियत प्रेसिडेंट ट्रम्प के बाद दूसरे नंबर पर है और वह डिपार्टमेंट ऑफ़ गवर्नमेंट एफिशिएंसी (डोजे) के मुखिया के रूप में किसी भी सरकारी विभाग के लोगों को निकाल सकते हैं। उनके आदेश सरकार के विभाग सिर झुका कर कबूल कर रहे हैं। 

यहाँ तक कि विदेशों से वार्ता में मस्क फ़ैसले ही नहीं ले रहे हैं बल्कि धमकी दे रहे हैं और उन देशों के चुने मंत्रियों को अपशब्द तक कह रहे हैं। मस्क भले ही एक सफल उद्यमी हों लेकिन वह संसद के प्रति जवाबदेह नहीं हैं यानी “अनाधिकृत शक्ति केंद्र” हैं जिनका अमेरिकी कानून कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता। याद करें कि यूक्रेन और और अमेरिका के राष्ट्रपतियों के बीच ओवल ऑफिस में भरी प्रेस कांफ्रेंस में झड़प हुई। 
एक ऐसे ही नए विवाद में मस्क ने पोलैंड के विदेश मंत्री को “चुप, छोटे आदमी” कहा जिस पर दुनिया भर में प्रतिक्रिया हो रही है। ट्रम्प और उनके विदेश मंत्री ने मस्क का समर्थन किया तो पोलैंड के पीएम ने अपने विदेश मंत्री का।
हिमाकत का यह आलम था कि मस्क ने कहा कि अगर वह अपने स्टारलिंक को यूक्रेन में बंद कर दें तो वहाँ का फ्रंटलाइन सैन्य संचार ध्वस्त हो जाएगा। सवाल यह है कि क्या व्यक्तिगत पूंजी की ताकत संप्रभु देशों का भविष्य इस आधुनिक युग में भी बनाती-बिगाड़ती रहेगी? दुनिया जानती है कि ट्रम्प के चुनाव में सबसे बड़े डोनर मस्क थे और चुने जाने के बाद ट्रम्प ने उन्हें “पहला मित्र” कहा। 
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प्रजातंत्र में गवर्नेंस कोई पार्किंग का ठेका नहीं है जो एक बार मिलने के बाद ठेकेदार अपनी मर्जी से चलाये। उसकी कुछ अपरिहार्य शर्तें हैं। दुनिया के सबसे अमीर उद्योगपति के पैसों के बूते पर चुनाव जीत सरकार बनाने वाले ट्रम्प अब दुनिया के देशों को मस्क की इन्टरनेट सेवायें लेने को मजबूर कर रहे हैं और इसके लिए उनके पास हथियार हैं टैरिफ बढ़ाना।

कुछ भारत का हित चाहने वाले “राष्ट्रभक्त विश्लेषक” इसमें आपदा में अवसर भले ही देख रहे हों और ट्रम्प के साथ कुछ हितों की अनदेखी कर संबंध बनाने की वकालत कर रहे हों लेकिन ट्रम्प की अनैतिक सौदेबाजी और ब्लैकमैलिंग को नज़रअंदाज करना गलत होगा।

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एन.के. सिंह
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