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मोदी-ट्रम्प में गुरु कौन...जब दोनों ही अपने देश को 'विश्वगुरु' बनाने में जुटे

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश को संसद में संबोधन के जरिये जानकारी दी कि महाकुम्भ में हम सब ने राष्ट्रीय चेतना के विराट रूप के दर्शन किया. इसके एक वाक्य पहले वह यह बताना नहीं भूले कि भागीरथ ने गंगा को पृथ्वी पर उतारा था. उनका वाक्य “बूझो तो जाने” की परिचित शैली में था जैसे पूछ रहे हों “भाइयों-बहनों, महाकुंभ को भी इस “विराट” रूप में किसने उतारा? पीएम ने हमें यह भी बताया कि महाकुम्भ से राष्ट्रीय एकता बढ़ी है. पता नहीं चला कि मुसलमान का सहमना ख़तम हो गया या हिन्दू ने उनसे जबरिया भारत माता की जय न कहने पर गले लगाना शुरू कर दिया. शायद राष्ट्रीय एकता से मोदी की मुराद हिन्दू एकता की थी क्योंकि हिंदुत्व/सनातनत्व और राष्ट्रीय एकता संघ की परिभाषा के अनुसार समवर्ती (को-टर्मिनस) होते हैं. 
तभी तो मोदी जी ने एक विदेशी पॉडकास्ट को घंटों इंटरव्यू देते हुए अपने और “पोटस” (अमेरिकी राष्ट्रपति के लिए --प्रेसिडेंट ऑफ़ द यूएस--  इस संक्षिप्तीकरण का इस्तेमाल किया जाता है) ट्रम्प के समरूप होने का जिक्र करते हुए कहा “मैं नेशन फर्स्ट वाला और वो राष्ट्र फर्स्ट वाले” कहा.  ट्रंप ने भी मोदी के इस इंटरव्यर को री-ट्वीट किया। "एक ने कही, दूजे ने मानी, नानक दोनों ब्रह्मज्ञानी". 
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मोदी ने बिलकुल सही कहा. कितनी समानता हैं दोनों में!! मोदी के पास अमित शाह हैं तो ट्रम्प के पास एलोन मस्क. मस्क ने संसद के प्रति जवाबदेह न होते हुए भी तमाम सरकारी विभागों को बंद कर दिया और कर्मचारियों को निकाल दिया. ट्रम्प ने हर विरोधी आवाज को जो अमेरिका में किसी भी वैश्विक मुद्दे पर उठी लेकिन उन्हें पसंद नहीं आयी, देशनिकाला दे दिया. जब कोर्ट्स ने इन कदमों को गैरकानूनी बताया, और मस्क को संविधानेतर शक्ति केंद्र तो मस्क ने सार्वजनिक रूप से जीओपी (रिपब्लिकन) सांसदों को डोनेशन दिया ताकि संसद में उनके समर्थन से ट्रम्प के खिलाफ जाने फैसला देने वाले जजों पर महाभियोग लगा कर निकाला जा सके. आखिर ट्रम्प और मस्क अमेरिका को सर्वोपरि रखना चाहते हैं और मोदी और अमित शाह “भारत को विश्व गुरु” बनाना चाहते हैं. 
मस्क की शैली देखें. भारत में अभिव्यक्ति स्वातंत्रय की रक्षा के लिए वे सरकार के खिलाफ कर्नाटक हाईकोर्ट में गए हैं. जबकि अपने देश में अमेरिका फर्स्ट रखने के लिए जजों को धमकी मिल रही है. मोदी जी की सरकार भी विदेशी मानवाधिकार संस्थाएं जब भारत में प्रेस की आजादी कम होने की बात कहती है तो उनके खिलाफ भारत विरोधी होने का आरोप लगाते हैं. ट्रम्प-मस्क भी जजों की स्वायत्तता को देश हित के खिलाफ पाते हैं और उन्हें समूल नाश करने की धमकी दे रहे हैं.

ट्रम्प नीति एक अबूझ पहेली

ट्रम्प की रूस-उक्रेन युद्ध समाप्त करने की पहल फिलहाल बाँझ रही. इसके पीछे एक बड़ा कारण है ट्रम्प की दबाव और दबाव डाल कर ब्लैकमेल करने के रेवैये के प्रति उनके खिलाफ बढाता अविश्वास. इसके मात्र कुछ दिनों पहले अचानक ट्रम्प को रूस से यूरोप की सुरक्षा का ब्रह्मज्ञान आया और फ़ौरन हीं ब्रिटेन के लैकहीथ बेस पर भारी परमाणु हथियार तैनाती का ऐलान कर दिया. एक रिपोर्ट में इस खुलासे के बाद नाराज रूस ने कहा है कि इसका जवाब सही समय पर दिया जाएगा. 
अभी दस दिन पहले ट्रम्प ने नाटो देशों को चेतवानी दी थी कि वे अपना रक्षा खर्च बढ़ाएं और पेमेंट करें वरना अमेरिका मदद से हाथ खींच लेगा. उन्होंने इस सन्दर्भ में रूस के पक्ष में उक्रेन को आगाह किया था. अब इस नए ब्रह्ज्ञान से पूरा यूरोप हीं नहीं एशिया भी चकरा गया है.
याद होगा कि ट्रम्प के नाटो की मदद न करने और उक्रेन को युद्ध रोकने की ताकीद के कारण फ्रांस के राष्ट्रपति और ब्रिटेन के पीएम ने कई बैठकें कर ईयू के सभी सदस्यों के एक जुट हो कर उक्रेन को आर्थिक व सैन्य सहायता की बात कही थी. यूरोप का अमेरिका की नीतियों के खिलाफ यह ऐतिहासिक कदम था. लैकहीथ में करीब 17 साल बाद परमाणु आयुध की तैनाती ट्रम्प के नीति में निरंतरता की कमी का ताज़ा उदाहरण है. वह अब रूस के खिलाफ यूरोप को मजबूत करना चाहते हैं क्योंकि रूस के पास दुनिया की परमाणु बमों की संख्या का लगभग आधा “डेलीवरेबल परमाणु बम” है. रूस भी अब अपनी युद्ध-तत्परता बढाने में जुट गया है. 
दरअसल परमाणु तैनाती रोकना अभी तक शांति बहाली की सोची समझी नीति रही थी और अमेरिका की अगुवाई में साल्ट, एनटीपी सरीखे अग्रीमेंट के तहत भारत सहित अन्य देशों को हथियार बनाने से रोका जा रहा था.
वैसे तो तमाम देशों के पास परमाणु क्षमता है लेकिन वे प्रत्यक्ष तौर पर “डिलीवरेबिलीटी” के स्टेज और क्षमता वाले नहीं हैं. लेकिन समझा में नहीं आ रहा है कि ट्रम्प रूस के साथ है या उक्रेन के, नाटो और यूरोप के या रूस-चीन धुरी के. बहरहाल भारत-अमेरिका परमाणु उर्जा डील नया और बेहतर विकल्प है याने ट्रम्प नीति जो भी रहें भारत को हानि नहीं होगी.    
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क्या अमेरीकी बौद्धिक जड़ता का शिकार बन गए हैं

 इन सब के बीच एक खास पहलू है लगभग 240 साल से मुक्त प्रजातान्त्रिक संविधान की छाँव में समृद्ध होती अमेरिकी जनता का अमेरिका फर्स्ट के नारे के प्रति समर्पण. ट्रम्प के दुबारा पद पर आने के पीछे भी यही नारा है. लेकिन क्या अमेरिका फर्स्ट के लिए ट्रम्प के गवर्नेंस की गलतियाँ न बताना या हमास या फिलस्तीनियों के खिलाफ इजराइली सैनिक कार्रवाई का विरोध कटाई न करना भी पूर्व शर्त है? कौन है मस्क गवर्नेंस के स्ट्रक्चर में? कैसे ऐसा व्यक्ति लोगों को नौकरी से निकाल सकता है? आज भारत के छात्रों को निकाला गया है, लेकिन सत्ता की आदत होती है किसी को न छोड़ना. अगर अमेरिकी यह समझ रहे हैं कि ट्रम्प की दादागीरी यहीं ख़त्म हो जायेगी तो वह भ्रम में हैं. 
एन के सिंह, ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन (बीईए) के पूर्व महासचिव
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एन.के. सिंह
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